खुद्दार कहानी ! किन्नर हूं, 12 की उम्र में घर छोड़ा:नाचकर बधाई लेना पसंद नहीं था, भीख मांगकर पढ़ाई की; बनी वैक्सीन दीदी
‘पैदा हुई तो नाम पड़ा कमलेश। घर में खूब बधाई, सोहर बजे। घरवालों की नजर में लड़का जो पैदा हुआ था। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, मुझे लगने लगा कि मैं गलत शरीर में पैदा हो गई हूं। मुझे लड़कियों के बीच रहना, उठना-बैठना, सजना-संवरना अच्छा लगता था।
किसी के घर-परिवार वाले भला किसी लड़के को एक लड़की की तरह सजने-संवरने देंगे? सवाल ही नहीं। ऐसे में मैं छुप-छुपकर लिपस्टिक, काजल लगाती। स्कूल भी जाती, तो लड़कियों के बीच बैठती। धीरे-धीरे ये राज सबके सामने आ गया।
12 साल की मेरी उम्र रही होगी। एक रोज घरवालों को पता चल गया कि मैं लड़का हूं, लेकिन मेरी आत्मा लड़की की है। उन्हें समझ आ गया कि मैं एक ट्रांसवुमन हूं। मुझे मम्मी-पापा की जबरदस्त डांट पड़ी। बोले- समाज में नाक कटवाओगे। रहना है तो लड़के की तरह जीना होगा, नहीं तो इसी वक्त घर से निकल जाओ।’
दुर्ग से करीब 60 किलोमीटर दूर, छत्तीसगढ़ का झलमला इलाका। यहां इन दिनों जबरदस्त बारिश हो रही है। सोशल एक्टिविस्ट कंचन सेंद्रे अपनी एक दोस्त से मिलने आई हैं। यही उन्होंने मुझे भी मिलने के लिए बुलाया है।
कंचन सेंद्रे अपनी दोस्त के साथ।
मुझे देखते ही कंचन सबसे पहले चाय-कॉफी के लिए पूछती हैं। उमस भरी गर्मी की वजह से मैं उन्हें मना कर देता हूं। एक ग्लास ठंडे पानी के साथ अपनी बातचीत मैं शुरू करता हूं।
कंचन कहती हैं, ‘कमलेश से कंचन तक के सफर में तकरीबन 35 साल लग गए। 2014-15 में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी राज्य सरकार ने तृतीय समुदाय कल्याण बोर्ड में किसी ट्रांस कम्युनिटी को सदस्य बनाया हो।
छत्तीसगढ़ सरकार ने ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के हितों में पॉलिसी बनाने के लिए मुझे बोर्ड का सदस्य बनाया। मेरा कार्यकाल 2015 से 2022 तक का था। इससे पहले तक सिर्फ ब्यूरोक्रेट्स ही इस बोर्ड के मेंबर होते थे।’
मैं कंचन से उनके बचपन की फोटो दिखाने के लिए कहता हूं।
वो मेरी तरफ एकटक देखते हुए कुछ सेकेंड सोचती हैं। कहती हैं, ‘मेरे पास न घरवालों के फोटो हैं और न ही उस समय की मेरी। जिस दिन मुझे घर से निकाल दिया गया उस दिन से ही सारी यादें, पूरा बचपन वहीं छूट गया।
घर में जब पता चला कि मैं किन्नर समुदाय से हूं, तो घरवालों ने पहले तो समझाने की कोशिश की, लेकिन आप ही बताइए, कोई अपनी आत्मा के बिना कैसे जी सकता है। मेरी आत्मा तो लड़की की है।
रात का वक्त था। घर से बिना कुछ लिए शरीर पर जो कपड़ा था, पैर में जो चप्पल थे उसी के साथ बाहर निकल गई।’
मैंने कंचन से पूछा कि उस समय आपको पता था कि घर छोड़ने के बाद कहां जाना है?
जवाब मिला- ‘कहां जाना है, ये नहीं पता। 12 साल के बच्चे को क्या पता होगा? संयोग से रायपुर की ट्रेन में बैठ गई। जब ट्रेन में चढ़ी, तो कोच में बैठा हर शख्स मुझे घूर रहा था। कुछ तो गंदी नजर से देख रहे थे। मैं डरी हुई थी, मुझे याद नहीं कि कब आंख लग गई।
अगली सुबह जब हुई, तो कुछ ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के लोग ट्रेन में भीख मांगने के लिए आए। मैं सहमी हुई एक कोने में बैठी थी। उनकी नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने मुझे अपने साथ चलने के लिए कहा। इस तरह मैं ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के डेरे में आ गई।’
अब यहां से कंचन की जर्नी शुरू होती है, यह मैं कह सकता हूं न?
इस पर कंचन कहती हैं, ‘शुरुआत में तो वही सब मैंने भी किया, जो हर किसी ट्रांसजेंडर कम्युनिटी को करना पड़ता है। ट्रेनों में भीख मांगना, शहर-शहर जाकर बधाई गाना, नाचना। हालांकि, मुझे कभी सेक्स वर्क करने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ा।
दरअसल, जिस दिन मैं घर से निकली थी। उसी दिन ये संकल्प ले लिया था कि मैं अपना पेट पालने के लिए कुछ भी करूंगी, लेकिन गलत काम तो नहीं ही करूंगी।
मैं एक बात बताऊं, ट्रेनों में भीख मांगना, बधाई मांगना, नाचना… इन चीजों में मेरा बिल्कुल भी मन नहीं लगता था। मैं हमेशा चाहती थी कि खुद की पहचान बनाऊं।
मुझे याद है- ट्रेन में जब मैं अपने ग्रुप के साथ भीख मांगने के लिए जाती थी, तो सब भीख मांगना शुरू कर देते थे और मैं ट्रेन की सीढ़ी के किनारे बैठ जाती थी।
ग्रुप मेंबर्स से डांट पड़ती थी। वो लोग डेरा प्रमुख से शिकायत करने की धमकी भी देती थीं, लेकिन मेरा मन ही नहीं होता था, तो मैं क्या करती। बधाई मांगने के दौरान भी यही होता था। सभी लोग गाने पर नाचते थे। मैं किसी कोने में बैठ जाती थी।’
कंचन बताती हैं कि ये सब तकरीबन सात-आठ सालों तक चलता रहा। इसी के साथ उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी।
कंचन ने जब घर छोड़ा था तब वो छठी क्लास में थीं।
कंचन के हाथ में एक लैपटॉप है। इस पर वो कुछ काम कर रही हैं। कहती हैं, ‘10वीं-12वीं के बाद दुर्ग के ही एक कॉलेज में ग्रेजुएशन में एडमिशन लिया। अब कॉलेज का खर्च, खुद का खर्च कैसे निकालूं। मैं एक तरफ कॉलेज भी करने जाती, दूसरी तरफ ट्रेनों में भीख मांगती।
डर भी होता कि भीख मांगते हुए अगर किसी दोस्त ने देख लिया तो क्या इज्जत रह जाएगी। कई बार ऐसा भी हुआ कि एक-दो दोस्तों ने मुझे देख लिया। हालांकि, मेरे गेटअप की वजह से नहीं पहचान पाए, लेकिन कॉलेज जाने पर वो कहते- कंचन मैंने तुम्हारी तरह ही एक किन्नर को कल ट्रेन में भीख मांगते हुए देखा था। तुम तो नहीं थी न…।
मैं इग्नोर करके किसी और टॉपिक पर बात करने लगती। डर के साथ जीना नहीं चाहती थी। फिर लगा कि कुछ और भी काम तो कर सकती हूं न। मैंने भीख मांगना छोड़कर अखबार बेचना शुरू कर दिया। सुबह के चार-पांच बजे मैं साइकिल से मोहल्लों में अखबार बांटती थी। अब किसी अखबार पढ़ने वाले को कहां पता होता है कि कौन देकर गया है।’
बातचीत के बीच कंचन घड़ी देखती हैं। उन्हें भिलाई के लिए लौटना है। शेष बातें वो वहीं चलकर करने के लिए कहती हैं। हम दोनों भिलाई के लिए निकल पड़ते हैं। भिलाई पहुंचने पर वो अपना घर दिखाती हैं।
घर का एक कोना अवॉर्ड से भरा हुआ है। वो कहती हैं, ‘मैंने 2012 से ट्रांस कम्युनिटी के लोगों के लिए काम करना शुरू किया। हमेशा यही सोचती थी कि जैसा मेल-फीमेल होता है, वैसे ही तो ट्रांस भी है न ! हमारे साथ इतना भेदभाव क्यों?
कंचन एक-एक कर सारे अवॉर्ड दिखा रही हैं।
मैंने ट्रांस लोगों तक एजुकेशन, हेल्थ, सरकारी पॉलिसी के हिसाब से मिल रही सुविधाओं को पहुंचाने पर काम करना शुरू किया। अब तक 500 से ज्यादा ट्रांस लोगों को राशन, राशन कार्ड, 10 से ज्यादा लोगों को PM आवास योजना के तहत घर… ये सब दिलवा चुकी हूं।’
… तो फिर छत्तीसगढ़ सरकार में बोर्ड की सदस्य कैसे बनीं?
कंचन कहती हैं, ‘सोशल लेवल पर मैं काफी एक्टिव हूं। 2012-15 के बीच मैंने कई तरह के कैंपेन भी चलाए। ट्रांस लोगों का रेस्क्यू किया। 2014 में मैंने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के दौरान MLA का चुनाव भी लड़ा था। आम आदमी पार्टी से ज्यादा वोट मिले थे।’
कंचन दो किस्से बताती हैं…
पहला किस्सा- ‘छत्तीसगढ़ की ही घटना है। गांव में पता चला कि एक फैमिली का लड़का ट्रांस है। किन्नर है। पूरी पंचायत बैठ गई। लोग उसे मारने-पीटने पर उतारू थे। घरवाले भी सहमे हुए थे। वो भी खुद चाहते थे कि इसे घर से, गांव से, शहर से निकाल दिया जाए।
इसकी भनक मुझे लगी। मैंने पुलिस के साथ जाकर उस व्यक्ति का रेस्क्यू किया। दरअसल, गांव में पहले ऐसा ही होता रहा है। यदि पता चल गया कि किसी के घर ट्रांस बच्चा है, तो पूरे गांव के लोग इकट्ठा हो जाते थे। अभी भी कई जगह ऐसा होता है। उसे गांव से निकाल दिया जाता था। जैसा मेरे साथ हुआ।’
दूसरा किस्सा- ‘एक ट्रांसजेंडर थी, जो सेक्स वर्क का काम करती थी। एक कस्टमर ने बिना उसकी मर्जी के उसके साथ जबरदस्ती की थी। जब वो पुलिस थाने कम्प्लेंट लिखवाने गई, तो थानेदार ने गाली देकर भगा दिया।
मुझे इसके बारे में पता चला। मैं जब थाने गई, तब जाकर उसकी रिपोर्ट दर्ज हो पाई और उस शख्स पर कार्रवाई हुई। थानेदार का कहना था कि एक किन्नर के साथ क्या जबरदस्ती हो सकती है। वो तो खुद गलत काम करती है।
अब बताइए, अपनी मर्जी से करना और जबरदस्ती… दोनों में अंतर है न। मेरे कामों को देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने मुझे तृतीय समुदाय कल्याण बोर्ड का सदस्य बनाया। आप भी सोच सकते हैं कि जिस बोर्ड के जिम्मे ट्रांस लोगों के लिए पॉलिसी बनाने का जिम्मा होता है, वहां इससे पहले तक किसी ट्रांस को सदस्य नहीं बनाया गया था।’
2020 में कंचन को लोगों ने वैक्सीन दीदी के नाम से जाना। वो उस वक्त की एक दो तस्वीर दिखाती हैं। कहती हैं, ‘कोरोना में मेरी कम्युनिटी के लोगों की भी मौत हुई। जब वैक्सीन लगवाने की बारी आई, तो सभी डर रहे थे। पहले मैंने वैक्सीन की डोज ली। धीरे-धीरे लोग इससे प्रेरित होने लगे।’
जब लोग कोविड वैक्सीन से डर रहे थे तब कंचन ने उन्हें मोटिवेट किया।
मुझे याद है कुछ साल पहले मैं घर गई थी। गांव के बाहर खड़ी होकर रात होने का इंतजार करती रही। शाम ढलने के बाद घर पहुंची। घर के भीतर घुसते ही मुझे ऐसा लगा जैसे मैं किसी दूसरे के घर में आई हूं।
मेरी बचपन की एक भी फोटो मुझे नजर नहीं आ रही थी। पूछने पर पापा ने कहा- तुम्हारी कोई निशानी अब घर में नहीं है। उस दिन मैं उल्टे पांव लौट आई।’
मैं कंचन की आंखों में आंसू देख पा रहा हूं।
शाम होने को है। कंचन छत पर धूप में सूख रहे कपड़ों को लाने के लिए सीढ़ियों पर पैर जैसे ही बढ़ाती है, मैं चलते-चलते पूछ लेता हूं। ये घर अपना है या रेंट पर…। वो हंसते हुए कहती हैं- रेंट पर। औरों से ज्यादा किराया देती हूं, किन्नर जो हूं।
मैं उनकी जर्नी को शब्दों और कैमरे में समेटे अपने होटल की तरफ निकल पड़ता हूं।
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