किसान, स्मगलर और दम तोड़ती ज़िंदगियां…
नशा अफ़ीम का…
किसान, स्मगलर और दम तोड़ती ज़िंदगियां…
इस साल यूरोप की गलियों में रिकॉर्ड मात्रा में उच्च गुणवत्ता वाली हेरोइन के पहुंचने का अनुमान है.
….इसकी वजह है अफ़ग़ानिस्तान में 2017 में अफ़ीम की बंपर पैदावार.
बीते 15 सालों में
अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम की
खेती काफी तेजी से बढ़ी है.
2004
एक छोटा फूल = 4000 हेक्टेयर
एक बड़ा फूल = 8000 हेक्टेयर
2013
2017
अफ़ग़ानिस्तान के अफ़ीम उत्पाद को यूरोप पहुंचने में 18 महीने का वक़्त लगता है.
अधिकांश ड्रग्स बालकन रूट से तस्करी किए जाते हैं.
महज 20 प्रतिशत हिस्सा दूसरे देशों के रास्ते ले जाया जाता है.
स्रोत: UNODC
तो ये स्टोरी अफ़ीम के अफ़ग़ानिस्तान से यूरोप तक पहुंचने की कहानी है, इस सफ़र में शामिल लोगों की ज़ुबानी आप भी जानिए नशे के सफ़र को.
अफ़ग़ानिस्तान-अफ़ीम की फसल
दुनिया में अफ़ीम 90 फीसदी पैदावार अकेले अफगानिस्तान में होती है. इसकी खेती ग़ैरक़ानूनी है लेकिन बीते 15 सालों में अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम की खेती करने वाले लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है. यही वजह है कि अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय आय में अफ़ीम एक अहम हिस्सा बन चुका है. तालिबान को भी इससे मुनाफ़ा होता है. जबकि अफ़ग़ानिस्तान के आम लोगों के लिए ये लाइफ़ लाइन बन चुकी है. बीबीसी की औलिया अतराफ़ी ने दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम के खेतों मे जो कुछ देखा वो कुछ यूं था…
अफ़ग़ान कैलेंडर में एक ख़ास महीने में तीन हफ़्तों के लिए मोटी कमाई होती है. ये महीना है अप्रैल का, जब किसान और उनके परिवार महीनों खेतों में पसीना बहाने के बाद पैदा हुए अफ़ीम को बाज़ार तक पहुंचाते हैं.
सैकड़ों नौजवान लंबा फासला तय करके अफ़ीम की फसल इकट्ठा करने में मदद करने के लिए यहां आए हैं. इन्हें कलेक्टर या स्ट्रिंगर कहते हैं. हर तरह के काम करने वाले लोग अपने काम से छुट्टी लेकर यहां पहुंचे हैं.
तो हो सकता है कि किसी ट्रैक्टर की पीछे आप शिक्षक, उनके छात्र, दुकानदार और प्रशासनिक अधिकारी को एक साथ ये काम करते देख लें.
ये सभी अफ़ीम की पैदावार वाले सालाना उत्सव में हिस्सा लेने आए हैं, जो उनके देश को बदल रहा है.
अफ़ीम की पैदावार में कलेक्टर या स्ट्रिंगर की अहम भूमिका है. वे शरीर को बेहद हल्का रखते हैं और पीठ के पीछे लटका बैग ही उनकी पहचान है. पुलिस से बचने के लिए ये लोग एक जोड़ी कपड़े में भी आपको दिख सकते हैं.
आज के ज़माने में इस ढंग से काम करने वाले लोग शायद ही कहीं दूसरी जगह मिलें. एक बार जब वे अफ़ीम की पैदावार के इलाके में पहुंच जाते हैं तो समूहों में एक खेत से दूसरे खेत तक जाते हैं, कभी मोटे-मोटे अफ़ीम के दानों की तलाश में और कभी बेहतर डील के लिए.
उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी बेहद मुश्किल है. पहले वो अफ़ीम के फूलों से खरोंचकर अफ़ीम इकट्ठा करते हैं.
अफ़ीम के खेतों में काम करना काफी थकाने वाला होता है और नशे का असर भी होने लगता है. इसलिए जिनके खेत होते हैं उनके घरों की महिलाएं कम से कम तीस लोगों के लिए तीन शाम का खाना बनाती हैं.
इसमें मेमने का मांस, अफ़ग़ानी नान और दही होता है. रात का खाना खाने के बाद, कलेक्टरों का समूह गाना गाता है, नाचता है और अपनी-अपनी कहानी सुनाता है.
थोड़ी देर आराम करने के बाद ये लोग सुबह के तीन बजे जग जाते हैं. रात के अंधेरे में ये लोग अपने अपने सिर पर टॉर्च बांधकर रखते हैं, और पिछले दिन किए काम का मुआयना करते हैं.
अफ़ीम के हर फूल से तरल रूप में अफ़ीम निकाला जाता है. इसके बाद ये लोग एक उपकरण ‘तारयाकाई’ की मदद से फूल से निकलने वाले अफ़ीम के रस को पोछ लेते हैं.
जब ये लोग ये सब कर रहे होते हैं तब उनके सिर पर लगी टॉर्च की रोशनी चमकती रहती है. एक समूह में इतने लोग होते हैं कि आपको ये भ्रम हो सकता है कि शायद इस हिस्से में तारों भरा आसमान ही उतर आया हो.
इस काम के दौरान ये लोग गीत भी गाते रहते हैं. इन गीतों के बोलों में जीवन की लालसा, रोमांस और खुदा का ख़्याल शामिल होता है. कुछ ही देर में दूसरे खेतों से भी गुनगुनाने की आवाज़ आने लगती है.
फिर ये जुगलबंदी में गाते हुए एक दूसरे का साथ देते हैं. सोने की खान में काम करने की तरह ही यहां भी कुछ भी बर्बाद नहीं होता. नौजवान उनके साथ होते हैं और जो बचता है या छूट जाता है, उस फूल से वे अफ़ीम निकाल लेते हैं.
कलेक्टरों के कपड़े भी चिपचिपे हो जाते हैं, ऐसे में उनके कपड़ों को भी एक बड़े बर्तन में ठंडे पानी में धोया जाता है ताकि अफ़ीम के अवशेषों को वहां इकट्ठा किया जा सके.
एक कलेक्टर की आमदनी काफी हद तक उसके और उसकी टीम के काम करने की क्षमता और अफ़ीम की गुणवत्ता पर निर्भर होती है. प्रति व्यक्ति 20 किलोग्राम शुद्ध अफीम को बेहतर माना जाता है और दो किलोग्राम प्रति व्यक्ति को ख़राब.
जैसे ही अफ़ीम इकट्ठा करने का काम ख़त्म होता है, इससे की गई कमाई का इस्तेमाल अपना रुतबा बढ़ाने के लिए किया जाता है. नौजवान मोटरसाइकिल खरीदते हैं, कपड़े और मोबाइल फोन पर जम कर खर्च किया जाता है. कुछ लोग अपने पुराने कर्ज़ उतारते हैं या अपनी बेटियों की शादी के लिए दहेज देते हैं.
अफ़ीम के बाज़ार में इन दिनों तेज़ी दिख रही है. ये तेज़ी कुछ ही दिनों की है. यहां जल्द ही सन्नाटा दिखने लगेगा. लेकिन जो लोग इसमें लगे हुए हैं, उनके लिए अगली फसल फिर जाड़े के मौसम के बाद आएगी.
अफ़ग़ानिस्तान और ईरान की सीमा 900 किलोमीटर लंबी है.
ये काफी निर्जन और असुरक्षित भी है.
ईरान: ‘जन्नत के दूध’ की लत
बाल्कन रूट पर अफ़ग़ानिस्तान से निकला अफ़ीम सबसे पहले ईरान की सीमा में दाखिल होता है. दोनों देशों के बीच काफी लंबी और ख़तरनाक सरहद है. ईरान में ड्रग्स की लत एक बड़ी समस्या बनती जा रही है. क़रीब 20 लाख लोग नियमित तौर पर अफ़ीम का सेवन करने लगे हैं. इनमें 33 साल की गोली (वास्तविक नाम नहीं) भी शामिल हैं, जो मशाद में स्टैटिशियन हैं.
ईरान-अफ़ग़ान सीमा पर मिलाक चौकी
अफ़ीम से मेरा अजीब रिश्ता है. इसमें मोहब्बत भी है और नफ़रत भी है. मुझे इसका नशा पसंद है लेकिन मैं इसकी लत से रिहा नहीं हो पाती हूं, इस बात से मुझे नफ़रत भी है…
जब मैं 14 साल की थी तो मेरी नानी गुजर गई थीं. इसके बाद मेरी मां ने अफ़ीम का इस्तेमाल शुरू कर दिया था. वे अवसाद में चली गई थीं. हमारे परिवार में कई लोग अफ़ीम लेते थे तो उन्हें भी अपने दुख से निकलने का ये आसान तरीका लगा.
जब मैं 23 साल की हुई तो मेरी शादी हो गई. एक साल बाद मेरे पेट में असहनीय दर्द रहने लगा था. मैं कई बार डॉक्टर के पास गई लेकिन समस्या का हल नहीं मिला.
एक दिन मैं अपनी मां के घर गई और उन्होंने मुझे अफ़ीम के दो-चार कश लगाने को दे दिए. मुझे इससे दर्द से राहत मिली और मुझे लगा कि मेरी समस्या का हल यही है. और फिर मैंने अफ़ीम लेना शुरू कर दिया.
मेरी शादी में भी मुश्किलें शुरू हो गई थीं, मैं तन्हा महसूस करने लगी थी, जिसे प्यार नहीं मिल रहा था. मैंने अपनी मां की अफ़ीम चुराकर पीनी शुरू कर दी. जब मेरे पति को ये मालूम चला तो वे मुझे एक क्लिनिक ले गए.
लेकिन तब तक मेरी अफ़ीम की खुराक बहुत ज्यादा नहीं थी, लिहाजा उन्होंने मुझे मिथेडोन पर नहीं रखा. उन लोगों ने मुझे अवसाद से बाहर निकलने की थेरेपी दी.
लेकिन इससे मुझे कोई मदद नहीं मिली और मैं फिर से अफ़ीम का सेवन करने लगी.
साल भर बाद मेरे शौहर ने पाया कि मैं अब भी अफ़ीम ले रही हूं… और इस बार उन्होंने मुझे छोड़ दिया…
मैं अकेले रहने लगी थी लेकिन जब मेरी अफ़ीम की लत बढ़ने लगी तो मेरे पास मां के घर लौटने के सिवा दूसरा विकल्प नहीं बचा. हम लोग कभी कभार एक साथ भी अफ़ीम पी लेते हैं.
मैं इतना शर्मसार महसूस करती हूं कि मैं नहीं चाहती कोई मुझे अफ़ीम पीते हुए देखे. मेरी मां भी अकेली रहती हैं क्योंकि जब उन्होंने अफ़ीम का इस्तेमाल शुरू किया था तब मेरे पिता अलग रहने लगे थे.
वे हमारे साथ नहीं रहते हैं, लेकिन वे हमारे लिए अफ़ीम खरीद कर लाते हैं ताकि हमें गलियों में भटकना नहीं पड़े. मैंने कई बार अफ़ीम छोड़ने की कोशिश की, कई बार क्लिनिक भी गई लेकिन मां के घर लौटते ही मैं फिर से अफ़ीम पीने लगती हूं.
मेरी बहनें भी हैं जो शादीशुदा हैं और स्वतंत्र तौर पर रहती हैं- केवल मुझे ही इसकी लत है. मुझे काफी शर्म भी होती है, मैं अपनी बहनों से आंखें मिलाकर बात नहीं कर पाती.
मैं पैसे के मामले में खुदमुख़्तार नहीं हूं, मुझे लगता है कि मैं ड्रग्स की चपेट में आ गई हूं, अधर में लटकी हुई, फंसी हुई हूं.
अफ़ीम के यूरोप तक पहुंचने में तुर्की भी एक अहम ठिकाना है.
ईरान के बाद अफ़ीम तुर्की के सीमावर्ती शहर वान पहुंचता है.
तुर्की-अफ़ीम पर अंकुश की कोशिश
यूरोप में पहुंचने वाला अफ़ग़ानी हेरोइन का 80 प्रतिशत हिस्सा तुर्की के रास्ते जाता है. इसका पूरा का पूरा हिस्सा ईरान के रास्ते तुर्की पहुंचता है. तुर्की ने अफ़ीम के कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए दसियों करोड़ डॉलर खर्च किया है. लेकिन वान और उसके साथ ईरान-तुर्की की सीमा पर लगे गांव काफी बदनाम रहे हैं. नशे के कारोबार पर अंकुश लगाने में जुटे एंटी नारकोटिक्स ऑफिसर मुस्तफा कोकल और कुरसत बासेर को हर दिन शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तौर पर चुनौतियों का सामना करना होता है.
मुस्तफा कोकल:
अफ़ीम की तस्करी करने वाले लोग यहां के गांव का इस्तेमाल करते हैं. ये लोग सबसे पहले स्थानीय लोगों को तलाशते हैं, जो उन्हें अपना घर इस्तेमाल करने के लिए दे सके. इसके बाद स्थानीय लोगों के खेत-खलिहान, घर और स्टोरेज रूम में हेरोइन को छिपाकर रखा जाता है. ये इलाका इतना फैला हुआ है कि हमें इंटेलिजेंस यूनिट के साथ मिलकर काम करना होता है.
कुरसत बासेर:
कोई भी अभियान चलाने के लिए हमें महीनों तक तैयारी करनी होती है, इसमें तकनीकी अध्ययन से लेकर ज़मीनी निगरानी तक शामिल हैं. जब ऐसा कोई अभियान कामयाब होता है तो हम लोगों को वास्तविक तौर पर गर्व महसूस होता है. लेकिन ये इतना आसान नहीं होता. इस काम के लिए आपको खुद पर नियंत्रण करना सीखना होता है, मेरे ख्याल से ये केवल इसी काम के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए भी अच्छा है.
एक बार ऐसा हुआ है कि एक संदिग्ध ने कंडोम में भरे लिक्विड ड्रग्स को गटक लिया. एक कंडोम के फट जाने से वह संदिग्ध कोमा में पहुंच गया.
इससे पहले के मिले उदाहरणों से जाहिर होता है कि ऐसा एक पैक फट जाए तो उस आदमी की मौत हो जाती है. लेकिन ये संदिग्ध मरा नहीं और एक सप्ताह तक कोमा में रहा.
उसके बचने की उम्मीद ठीक उस आदमी जितनी थी जिसके सिर में दो गोली मारी गई हो. लेकिन वो बच गया और जब वो कोमा से बाहर आया, तो उसे कोई आइडिया ही नहीं था कि उसके साथ क्या हुआ है.
उसका दावा था कि वो विमान में फूड प्वॉइजनिंग का शिकार हो गया. वो विमानसेवा के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराने की सोच रहा था. लेकिन एक नर्स ने उससे पूछ लिया कि क्या वे तुम्हें विमान में खाने को ड्रग्स दे रहे थे?
कई बार, जब हमें तमाम रिसर्च के बाद भी अपराधियों का पता नहीं लगता तो हमें लगता है कि हम घास की ढेर में सुई तलाश रहे हैं.
तभी अचानक से कोई हिंट मिलता है और फिर आप मामला सुलझाने की दिशा में बढ़ने लगते हैं. ठीक उस वक्त ये महसूस होता है कि दुनिया में एक ऐसी शक्ति है जो अच्छाई की तरफ है, अच्छाई को जीतते हुए देखना चाहती है. तब आपको ये भी लगता है कि कड़ी मेहनत का फल मिल गया है.
जो हेरोइन तुर्की के एंटी नारकोटिक्स अधिकारियों से बच जाती हैं, वो यूरोप के बाज़ार में पहुंच जाती हैं.
ड्रग्स से छुटकारा दिलाने के नाम पर होने वाले इलाज का कारोबार भी लाखों डॉलर में है.
बीते कई सालों से ब्रिटेन में हेरोइन सेवन करने से मौत के मामले बढ़ते जा रहे हैं. कृत्रिम अफ़ीम भी बाज़ार में आ चुका है, जिसे फेंटानॉयल कहा जाता है और ये नए ख़तरे के तौर पर बढ़ता जा रहा है.
ब्रिटेन: लत से छुटकारा पाने की चुनौती
अफ़ग़ानिस्तान में 2017 में अफ़ीम की रिकॉर्ड पैदावार हुई है, जिसके बाद से संयुक्त राष्ट्र ने अनुमान लगाया है कि ब्रिटेन सहित दुनिया भर के बाज़ार में इस बार उच्च गुणवत्ता का अफ़ीम सस्ता मिलेगा. दूसरे शहरों की तरह ही दक्षिण पश्चिम इंग्लैंड का ये शहर है वेस्टन सुपर मारे. यहां ड्रग से छुटकारा दिलाने वाले कई सेंटर हैं. यहीं के केंद्र में लेस्ली चैंडलर ने अपना इलाज कराया और फिर से नया जीवन शुरू किया.
मैं कई दुर्घटनाओं का शिकार हुआ. जानलेवा हादसे हुए. मैं बालकनी से नीचे गिर गया. अपनी लत के चलते मुझे कई ऐसी जगहों पर जाना पड़ा, जहां मैं नहीं जाना चाहता था, जैसे कि जेल, और मनोचिकित्सा केंद्र और तो और मैंने एकाध बार आत्महत्या करने की कोशिश भी की.
जब मैं 15 साल का था तब मुझे हेरोइन की लत लगी थी. हालांकि 13 साल की उम्र में ही दूसरे ड्रग्स लेने लगा था. दरअसल मेरी दोस्ती ऐसे लोगों से हो गई थी जो मुझसे बड़े थे और वे लोग हेरोइन लेते थे, इस वजह से मेरा भी परिचय हेरोइन से हो गया.
मुझे भी लगा कि मैं भी खास हूं और हेरोइन लेने लगा. मुझे इसका एहसास भी नहीं था कि मैं कहीं का नहीं रहूंगा. लेकिन तब मैं हेरोइन पर नहीं रुका. मैं नए ढंग से बनाए जा रहे ड्रग्स जैसे कि स्पीड, एलएसडी और डोप लेने लगा था, साथ में शराब की लत भी थी.
जीवन चल रहा था, मुझे प्रेम हुआ और मैंने शादी भी कर ली. लेकिन ये शादी कुछ ही साल चली और उसके बाद चीजें तेजी से बिगड़ती गईं.
आखिरकार मैं चार-साढ़े चार साल पहले वेस्टन पहुंच गया. मैं 57 साल का हो गया. तब मुझे पता चला कि मैंने अपने शरीर को कितना नुकसान पहुंचाया. अब मुझे पेसमेकर लग चुका है.
वेस्टन का माहौल एकदम अलग है. यहां किसी ने मुझे ड्रग्स की लत वाला या फिर चोर नहीं समझा. ड्रग्स की लत को पूरा करने के लिए मैंने कई अपराध भी किए थे.
मुझे अपने बचपने में लौटने की जरूरत थी, जहां से मैच चीजों को समझ सकूं. अब मैं समझ गया हूं कि मैं कौन हूं और कहां से आया हूं. मैं जिन लोगों को जानता था या फिर जिनके बीच बड़ा हो रहा ता, उन लोगों से सालों तक मुझे निराशा मिली है, वे मुझे कलंक जैसा मानते रहे.
हालांकि स्थिति अब सुधरी है लेकिन कलंक अभी भी बरकरार है. मुझे लगता है कि ड्रग्स की लत में आए लोगों के लिए कुछ ज्यादा किए जाने की ज़रूरत है, क्योंकि ये एक तरह से मानसिक बीमारी भी है.
लोग जब गलियों में किसी ड्रग्स एडिक्ट या शराब के नशे वाले आदमी को देखते हैं, तो अलग ही ढंग से पेश आते हैं.
हो सकता है कि ड्रग्स या शराब का एडिक्टेड व्यक्ति गुस्से में हो या फिर कोई अपराध ही कर रहा हो लेकिन लोग ये नहीं समझते हैं कि वह आदमी अपने दुख, दर्द और डर में हो सकता है.
अगर हम इस सोच के साथ लोगों से पेश आएं तो फिर उन्हें अपने कलंक वाली मानसिकता से बाहर निकलने में मदद मिलेगी.
हो सकता है कि ड्रग्स या शराब का एडिक्टेड व्यक्ति गुस्से में हो या फिर कोई अपराध ही कर रहा हो लेकिन लोग ये नहीं समझते हैं कि वह आदमी अपने दुख, दर्द और डर में हो सकता है…
मैं स्कूलों में जाता हूं और बच्चों से बातें करता हूं. मुझे लगता है कि ये स्कूली उम्र होती है जब आप ड्रग्स की चपेट में आते हैं. मेरी मुश्किलें भी तो 13 साल की उम्र से ही शुरू हुई थीं.
ड्रग्स की चपेट में आने के लिए ये एक सामान्य उम्र है. इसलिए भी मैं स्कूल जाता है और इस उम्र के आसपास के लोगों से बात करता हूं, ये जरूरी है. इन दिनों स्कूलों में खुद को नुक़सान पहुंचाने का चलन भी तेज़ी से फैला है.
ऐसे में स्कूलों में बच्चों को ड्रग्स, अल्कोहल एडिक्शन, खुद को नुक़सान पहुंचाने की प्रवृति और आत्महत्या जैसे मुद्दों पर ज्यादा जागरूक बनाए जाने की ज़रूरत है.
2017 में अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम की कितनी पैदावार हुई, इसको लेकर सटीक आकंड़ा तो आने वाले दिनों में ही मिल पाएगा.
आंकड़ा जो भी हो लेकिन इससे लोगों की वित्तीय और निजी परेशानियां निश्चित तौर पर बढ़ेंगी. बहरहाल, लेस्ली अब यूनिवर्सिटी पहुंच गए हैं, वे काउंसलर बनने की पढ़ाई कर रहे हैं.
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