मैं चरमपंथी संगठन खालिस्तान कमांडो फोर्स का चीफ रहा हूं। आठ साल लाहौर में रहा। कुछ साल स्विट्जरलैंड में भी रहा। पाकिस्तान में रहकर हजारों युवाओं को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी, उन्हें चरमपंथी बनाया। फिर मुझे समझ आया कि ये राह ठीक नहीं है। अगर मैं पढ़ा-लिखा होता तो खालिस्तान कमांडो फोर्स की बजाय इंडियन आर्मी में होता। इसलिए अब मैंने अपनी जमीन दवाखाना खोलने, स्कूल बनाने और शेल्टर होम के लिए दान कर दी है।
मैं चरमंथी बना कैसे? पढ़िए मेरी पूरी कहानी…
मैं वस्सन सिंह जफ्फरवाल, पंजाब के धारीवाल का रहने वाला हूं। जट्ट परिवार में जन्मा और पला-बढ़ा। उन दिनों हमारा इलाका काफी पिछड़ा था। पढ़ाई-लिखाई का माहौल नहीं था। हम 6 भाई-बहन थे। पिता अकाली दल से जुड़े थे और कई बार जेल जा चुके थे।
अस्सी के दशक की बात है। पंजाब में हिंसा भड़की थी। पूरा इलाका छावनी में तब्दील हो चुका था। चरमपंथी संगठन तेजी से अपनी पैठ जमा रहे थे। खालिस्तान की मांग जोर पकड़ रही थी। उस वक्त मैं आठवीं में था।
मैं और मेरी मां। मां अभी 95 साल की हैं। अस्सी के दशक में मां को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था।
पंजाब के हालात देखकर एक दिन मैंने तय किया कि अब आगे नहीं पढ़ूंगा। गांव के पास पंजाब की मशहूर धारीवाल मिल थी। पढ़ाई छोड़कर वहां मैं काम करने लगा। राजनीति में जाने का बचपन से ही शौक था। मैं मिल में अपनी पैठ बनाने में जुट गया।
जल्द ही मैं मिलकर्मियों का नेता बन गया। तकरीबन 8 हजार कर्मचारी थे वहां। इसी वजह से हमेशा मैनेजमेंट और कर्मचारियों के बीच ही रहता था और उनका फेवरेट भी था। बचपन से मेरी सनक थी कि जहां भी रहूं हमेशा टॉप पर रहूं, चर्चा में रहूं।
पढ़ाई के दौरान मैंने एनसीसी किया था। इस वजह से मन में आर्मी में भर्ती होने की ललक थी। आर्मी ऑफिसर बनने का सोचता था, पर जब पंजाब में हिंसा भड़की और खालिस्तान की मांग जोर पकड़ने लगी, तो मुझे लगा कि अपनी फोर्स तैयार करनी चाहिए।
उन दिनों चप्पे-चप्पे पर पुलिस के जवान तैनात थे। घर-घर से नौजवानों की धरपकड़ हो रही थी। लोग अपने बच्चों को रिश्तेदारों यहां भेज रहे थे। उसी दौरान एनएसए लगाकर मेरे पिता को गिरफ्तार कर लिया गया।
इसके बाद पुलिस मुझे और घर वालों को तंग करने लगी। पुलिसवाले बार-बार पूछताछ के लिए घर आने लगे। मुझे काफी गुस्सा आता था। मेरे दो भाई दिल्ली में ट्रक चलाते थे और एक छोटा भाई घर पर रहता था। जब मैं मिल में होता था, तो पुलिस वाले घर जाकर मेरे भाई को काफी तंग करते थे। उसकी पिटाई करते थे।
मैं आठवीं तक ही पढ़ पाया। इसके बाद खालिस्तान मूवमेंट से जुड़ गया।
मुझे लगा कि ऐसे माहौल में नौकरी करना तो मुमकिन नहीं है। अपने परिवार और भाई को इस हाल में नहीं देख सकता था। मैंने नौकरी छोड़ दी और गांव लौट आया। कुछ दिनों बाद पुलिस ने अचानक घेराबंदी की और छोटे भाई को गिरफ्तार कर लिया।
उस वक्त जैसे-तैसे करके मैं पुलिस की नजरों से बच गया। फिर मैंने घर जाना छोड़ दिया, क्योंकि मुझे पता था कि अगर घर गया तो पुलिस मुझे उठा ले जाएगी। घर में पत्नी, दो बच्चे और मां थीं। मेरा मन नहीं मानता था उन्हें अकेला छोड़ने का, पर मजबूरी थी। पुलिस कभी भी मुझे मार सकती थी।
1982-83 की बात है। पंजाब में बसें जलाई जा रही थीं। पुलिस भाई से जानना चाहती थी कि बसें जलाने वाले कौन हैं, स्टूडेंट फेडरेशन वाले कौन हैं, भिंडरांवाला कहां है, भिंडरांवाला से तुम लोग कितनी बार मिले, क्या बातें हुईं।
पुलिस ने छोटे भाई को बहुत मारा। उसका असर आज भी है। वह आज भी कोई काम करने लायक नहीं है। इसके बाद मैंने फैसला किया कि अब घर नहीं जाना है। मैं दमदमी टकसाल (धार्मिक-राजनीतिक संगठन) चला गया। वहां खालिस्तान लिब्रेशन आर्मी का गठन किया। गांव-गांव में जाकर नौजवानों को संगठित करने लगा।
हम लोग रात के अंधेरे में गांवों में निकलते। कच्चे रास्तों से होते हुए लोगों के घरों में जाते। छतों पर चढ़कर एक दूसरे के घर जाते। आने-जाने के लिए साइकिल का इस्तेमाल करते थे। हमारा नेटवर्क इतना बढ़िया बन गया था कि कहीं ठहरने और खाने-पीने की दिक्कत नहीं होती थी।
अस्सी के दशक में मैं पुलिस की लिस्ट में मोस्ट वॉन्टेंड था। हर अधिकारी को मेरा नाम पता था।
नौजवान बड़ी संख्या में हमारे संगठन से जुड़ रहे थे। पंजाब के हर जिले में हमारा दबदबा था। आर्मी और भारत सरकार के टॉप नेता और प्रशासनिक अधिकारी मेरे नाम से वाकिफ थे। कम समय में मैंने अपने जैसे कई चरमपंथी नेता खड़े कर दिए थे। हमारे संगठन का नाम खालिस्तान लिब्रेशन आर्मी की जगह खालिस्तान कमांडो फोर्स हो चुका था। मैं इसका चीफ था।
1985 में हमने दमदमी टकसाल साहिब के मेहता चौक पर एक बड़ी मीटिंग बुलाई। जिसे सरबत खालसा नाम दिया। उस मीटिंग में कई फैसले लिए गए। जिसमें सबसे अहम फैसला था सरकार ने गोल्डन टेंपल में जो कार सेवा करवाई है, उसे रद्द किया जाएगा। पंथक कमेटी खुद कार सेवा कराएगी।
उसी दिन पंथक कमेटी का गठन भी किया गया। उसमें कुल पांच सदस्य थे। मैं भी उसमें शामिल था। 1986 को हमने पंजाब को खालिस्तान बनाने का ऐलान किया। उन दिनों मैं गोल्डन टेंपल में ही रहता था। मैं समझ गया था कि अब यहां रहना संभव नहीं है। चिंगारी भड़क उठी है। पुलिस और एजेंसिया मेरे पीछे पड़ी थीं।
मैंने एक रणनीति अपनाई और बॉर्डर पार करके पाकिस्तान चला गया। उस वक्त हमारे लिए पाकिस्तान सबसे मुफीद प्लेस था। पाकिस्तान सरकार ने हमें सपोर्ट करने का वादा भी किया था।
खालिस्तान मूवमेंट में पाकिस्तान का बड़ा हाथ था। जो भी नौजवान भारत से जाते थे, वहां की सरकार शरण देती थी।
उन दिनों जिन नौजवानों को लगता था कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार करेगी, वे पाकिस्तान चले जाते थे। तब तारबंदी नहीं होती थी। चेकपोस्ट पर हम एक-दूसरे ऑफिसर से बात करके आसानी से पाकिस्तान में पंजाब के युवकों की एंट्री करा देते थे।
मुझे लाहौर में एक आलीशान बंगला दिया गया था। मैं वहीं से खालिस्तान की मुहिम चलाता था। खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। लोग मिलने आते थे। हमारी मीटिंग्स चलती थी। ननकाना साहिब में एक हिदू परिवार के यहां हम खाना खाते थे। मेरी मांग पर पाकिस्तान सरकार ने 15 लाख रुपए खर्च कर करतारपुर साहिब में सेवा करवाई थी।
लाहौर में हम पंजाब के नौजवानों को ट्रेनिंग देते थे। हथियार प्रोवाइड कराते थे। इसमें पाकिस्तान सरकार भी सपोर्ट करती थी। करीब 8 साल तक मैं लाहौर में रहा।
मुझे आज भी याद है एक रात लाहौर में अमृतसर से 12 साल का बच्चा मेरे पास आया। मुझे बहुत तकलीफ हुई कि इतनी कम उम्र का बच्चा भागकर पाकिस्तान आया है। मैं उससे बहुत बात करना चाहता था, लेकिन तब हमारा रूल था कि हम रात में बात नहीं करते थे। मैंने उसे खाना खिलाया और सोने के लिए भेज दिया।
सुबह चाय-नाश्ता के बाद उससे पूछा कि तुम यहां क्यों आए हो? उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे पकड़ना चाहती है। इसी वजह से उसकी मां ने पड़ोसियों की छत से यह कहकर भगा दिया कि किसी तरह बॉर्डर पार करके लाहौर चले जाओ। वहां कम से कम जिंदा तो बचेगा।
2001 की बात है, जब अमृतसर में पुलिस ने मुझे गिरफ्तार किया था।
मैंने कहा कि एक बार फिर सोच लो। उस बच्चे ने कहा कि मुझे जंग लड़नी है, मैंने कहा कि सोच लो। बोला सोचकर ही आया हूं। पिता को पुलिस पहले ही उठा चुकी है। अब मेरे पास वापस जाने का रास्ता नहीं है।
मैंने चार महीने उसकी ट्रेनिंग करवाई। फिर उसे हथियार देकर पंजाब भेजा। एक दिन वह ट्यूबवेल पर नहा रहा था। तभी आर्मी ने उसे चारों तरफ से घेर लिया, लेकिन वह पुलिस के हाथ नहीं आया। उसने ट्यबवेल की नंगी तारों से लिपटकर जान दे दी। ऐसे नौजवानों के किस्से सुनकर मुझे काफी दुख होता था। अंदर से मन खौल उठता था कि कैसे जवान बच्चे बेमौत मर रहे हैं।
खैर जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, खलिस्तान मूवमेंट धीरे-धीरे कमजोर होने लगा। फिर मैंने पाकिस्तान सरकार से बात की और कहा कि अब यहां रहने का कोई फायदा नहीं है। मूवमेंट का सिर कुचला जा चुका है। ऐजेंसियां हमें पूरी तरह से बदनाम कर चुकी थीं।
1995 में पाकिस्तान सरकार की मदद से मैं स्विटजरलैंड आ गया। वहां मैंने होमियोपैथी का कोर्स किया।
कुछ साल बाद मुझे गांव की याद आने लगी। मूवमेंट के फेल होने का दुख भी था। कितने दोस्त, बच्चे मारे जा चुके थे। मुझे लगा कि गांव जाकर मूवमेंट को जिंदा करना चाहिए। 2001 में भारत लौट आया। अमृतसर में पुराने साथियों से संपर्क किया, लेकिन किसी ने मुझसे बात नहीं की। वे लोग मुझसे ऐसे पेश आते थे जैसे मैं उन्हें जानता ही नहीं।
एक दिन की बात है। मैं एक दुकान पर चाय पीने के लिए बैठा था, तभी पुलिस आ गई। मैंने इधर-उधर बचने की कोशिश की, लेकिन चारों तरफ से घिर चुका था। मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। मेरे ऊपर हत्या समेत 13 मामले थे। धीरे-धीरे मैं सभी मामलों से बरी हो गया।
आज मैं उस दौर से बहुत आगे निकल चुका हूं। अब नए सिरे से नई लाइफ की शुरुआत की है। मुझे बहुत अफसोस होता है कि कितना समय बर्बाद कर दिया। पता ही नहीं चला कि खालिस्तान कमांडो फोर्स के चीफ और आर्मी ऑफिसर में कितना फर्क होता है। अब मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूं कि समाज मुझे याद रखे।
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