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रंजना फतेपुरकर द्वारा स्वरचित : शिवमंदिर में जलती नीरांजन का अलौकिक ज्योतिर्मय पुंज माँ अहिल्यादेवी

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रंजना फतेपुरकर द्वारा स्वरचित : शिवमंदिर में जलती नीरांजन का अलौकिक ज्योतिर्मय पुंज माँ अहिल्यादेवी


गंगाजल निर्मल,प्रातः स्मरणीय,पुण्यश्लोक, मातोश्री अहिल्यादेवी मतलब शिवमंदिर में जलती नीरांजन का अलौकिक ज्योतिर्मय पुंज।
है माँ अहिल्या,अहिल्या नगरी में जन्म लिया और पहली सांस उस हवा में ली जहां के कण-कण में आपका पावन अस्तित्व मौजूद था।आपकी गौरवमयी कीर्ति सुनते हुए समय का चक्र आगे बढ़ रहा था।जब भी इंदौर के राजवाड़े के पास से गुजरती मन अनायास ही राजवाड़े की ओर खींचने लगता।राजवाड़े में प्रवेश करते ही जैसे आप नववधू के रूप में सजी धजी,पायल की मीठी रुनझुन से,हरी चूड़ियों की मधुर खनक से अलौकिक संगीत रस घोलती,लक्ष्मी की तरह साकार हो उठतीं।मेरा मानस कभी कल्पना में आपको गौतमाबाई रानी साहेब के पीछे-पीछे,सर पर पल्लू संवारते, छाया सा डोलते देखता तो कभी सुभेदार मल्हारराव जी की छत्रछाया में बड़े होते देखता।यही वो परिसर था जहां आपकी परवरिश इस तरह हुई कि आप आगे चलकर होलकर वंश की कीर्तिध्वजा कहलाईं।सुभेदार जी ने यहीं आपको राजनीति,युद्धनीति में पारंगत किया जिसकी वजह से आप राजयोगिनी,कर्मयोगिनी,कहलाईं।
गौतमाबाई रानी साहेब के ममतापूर्ण सानिध्य में आप मुझे राजवाड़े में गृहस्थी की परंपराओं को,होलकर वंश के कुलधर्म को,रीतिरिवाजों को आत्मसात करते हुए नज़र आती थीं।आप इन्हीं दीवारों को साक्षी बना,प्रजाहितकारिणी,

धर्मपरायण, न्यायदायिनी,तेजस्विनी,
राजकारण धुरंधर बनीं।प्रजा का सुख-दुःख आपका अपना सुख-दुःख बना।
मुझे महसूस होता जैसे अभी भी आप राजवाड़े के बाग में,महकते फूलों के बीच चहल कदमी करते हुए राज्य के हित की चर्चा कर रही हैं।यहीं योद्धा के वेश में सज्ज खंडेराव जी की तिलक लगा आरती उतारी होगी,मल्हारराव जी को आश्वस्त किया होगा कि आप निश्चिंत हो युद्ध में विजयी होकर आइए,मैं यहां का राज्यकार्य कुशलतापूर्वक संभाल लुंगी।यहीं खंडेराव जी के साथ अस्त्र-शस्त्र विद्या सीखी,यहीं माता के सिंहासन पर आसीन हुई होंगी,यहीं मालेराव जी और मुक्ताबाई साहेब को उंगली पकड़ चलना सिखाया होगा।
राजवाड़े की इन्हीं दीवारों ने आपको कर्तव्य की वेदी पर भावनाओं की आहुति देते हुए देखा होगा।पिता जैसे मल्हारराव बाबा,माँ जैसी सासू माँ और अभिन्न सखा जैसे स्वामी को सम्पूर्ण राज्य की जिम्मेदारी आपको सौंप,एक एक कर विदा होते हुए देखा तो इन्हीं हवाओं ने आपके ज़ख्मों पर मरहम रखा होगा,और आपके जीवन को लोकहित के प्रशस्त मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया होगा।
यहीं आपने माँ नर्मदा के सानिध्य में रहने का निर्णय लिया होगा और अपनी राजधानी महेश्वर जैसी पावन नगरी को बनाया होगा।
जब शत्रुओं के समक्ष दुर्गा बन गर्जना की होगी कि- कंधे पर भाला लेकर जब युद्ध के मैदान में उतरूंगी तो उनके न जाने कितने सैनिकों को मौत के घाट उतार दूंगी,तब शत्रु डर के मारे थर-थर कांप उठे होंगे।जब आप बाणों से सजे हाथी पर सवार हो युद्ध के लिए महिला सैनिकों के साथ निकलीं तो सारी प्रजा आपका भव्य स्वागत कर रही थी, आप पर पुष्पवर्षा कर रही थी,आपकी आरती उतारी जा रही थी,आपके नाम का होलकर कुलभूषण,होलकर कीर्तिध्वजा,युगन्धरा,
वीरांगना,रणरागिनी नाम से जयघोष हो रहा था।
महेश्वर में रहकर आपने देश के चारों दिशाओं में मंदिर तो बनवाए ही कई मंदिरों,मस्जिदों और दरगाहों का जीर्णोद्धार किया, कई कुएं, बावड़ी,छायादार वृक्ष,धर्मशालाएं,घाट,
धार्मिक पुस्तकालय बनवाए और जन-जन की नज़र में महेश्वर की महाश्वेता,शिवयोगिनी कहलाईं।
शिवचरणरत माँ अहिल्या,मैंने आपके सानिध्य में ही आपका जीवन,आप ही के शब्दों में पुस्तक में उतारने की कोशिश की।जैसे आप समक्ष बैठ कर मेरी लेखनी को शब्द दे रही थीं।मैं हर पल आपका अस्तित्व महसूस कर रही थी।आपकी धर्मप्रियता,संस्कार,
आपकी खुशियां आपके दुःख, सब मेरे शब्दों में साकार हो कागज़ पर उतर रहे थे।कभी आपकी खुशियां मेरे शब्दों को मोरपंख सा सहलाती तो कभी आपकी पलकों पर ठहरे आंसुओं से मेरी लेखनी की स्याही फैल जाती।
लेकिन जैसे-जैसे पुस्तक “मैं अहिल्या हूँ”
समाप्ति की ओर बढ़ रही थी और मैं आपके शिवचारणों में विलीन होने के पलों को कागज़ पर उतार रही थी एक भय मस्तिष्क में कौंधने लगा था,क्या पुस्तक समाप्त समाप्त होते ही आपका सानिध्य मुझसे छूट जाएगा?
मैंने मन ही मन आपको स्मरण किया….
…..और अचानक जैसे मुझे आभास हुआ…..आप धीरे से मुस्कराकर कह रही हैं….
…..जब तक शिव की सत्ता इस ब्रम्हांड में है मेरा अस्तित्व कायम रहेगा….मंदिरों की घंटियों में…..आरती की धुनों में….वेदों की ऋचाओं में मेरे स्वर गूंजते रहेंगे…..इंदूर के देवालयों में….नर्मदा की कल-कल में….मेरी प्रार्थना के स्वर शामिल रहेंगे…..शिवमंदिर में जलती पंचारती की ज्योत में मेरा अस्तित्व शामिल रहेगा….मैं यहीं हूँ…. मैं यहीं हूँ…. मैं यहीं हूँ…..।
लोकमाताओकराज्ञी,
महारानी अहिल्यादेवी को नमन करते हुए उनका जीवन उन्हींके शब्दों में चित्रित करने का अल्प प्रयास किया है।मेरी लेखनी प्रति कितना न्याय कर पाई है ये माँ नर्मदा की कल-कल ध्वनि में गूंजते माँ अहिल्या के आशीर्वचन ही बता पाएंगे,ऐसी उनके चरणों में प्रार्थना है


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