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“हाशिये पर आज भी टिकी महिलाओं की वर्तमान जिंदगी “

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“हाशिये पर आज भी टिकी महिलाओं की वर्तमान जिंदगी “

यदि हम समाज का मूल्यांकन महिलाओं की स्थिति से करे तो पता चल जाएगा हमारे देश की स्त्रियों को क्यूँ अधिकतर अधिकारों से वंचित किया गया है। लैंगिक भेदभाव की जड़े इतनी मजबूत है चाह कर भी महिलाओं को पूर्ण अधिकार नहीं है किसी भी क्षेत्र में।
हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए सामाजिक, राजनीतिक, विधिक और प्रशासनिक स्तर पर दावों और वादों में कमी नहीं रही है। लेकिन सच यह है कि आज भी इस दिशा में इतनी कामयाबी नहीं मिल सकी है, जिस पर संतोष किया जा सके। गौरतलब है कि वैश्विक आर्थिक मंच की अंतरराष्ट्रीय लैंगिक भेद अनुपात रिपोर्ट, 2021 में जिन देशों को बेहद खराब प्रदर्शन करने वाला बताया गया है, उसमें भारत एक है। इसके मुताबिक जिन एक सौ छप्पन देशों में महिलाओं के प्रति भेदभाव की स्थिति का आकलन किया गया, उसमें भारत एक सौ चालीसवें पायदान पर है। हालत यह है कि बाांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान जैसे छोटे और कमजोर माने जाने वाले देश भी इस मामले में भारत के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में हैं।
अगर कोई समाज किसी समस्या से जूझ रहा है और उसमें सुधार की प्रक्रिया में है, तो कायदे से उसे स्थितियों को क्रमश: बेहतर करने की ओर बढ़ना चाहिए। मगर ताजा रिपोर्ट को संदर्भ माना जाए तो साफ है कि महिलाओं को समान जीवन-स्थितियां मुहैया करा पाने के मामले में तेज गिरावट आई है।
पिछले 2 सालो मे महामारी की वजह से आर्थिक मोर्चे पर व्यापक उथल-पुथल रही और इसकी वजह से बहुत सारे लोगों को अपने जीवन-स्तर से समझौता करना पड़ा। लेकिन अगर इस दौर में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को अवसरों से ज्यादा वंचित होना पड़ा और आर्थिक भागीदारी में कमी आई है तो इसका मतलब यह है कि यहां के समाज में सार्वजनिक जीवन से लेकर कामकाज तक के ढांचे में स्त्रियों के प्रति भेदभाव का रवैया ज्यादा मुखर हुआ है।
समाज में किसी तबके के बीच बदलाव की राह इस बात से तय होती है कि मुख्यधारा की राजनीति में उसकी भागीदारी कितनी सशक्त है। अफसोस की बात है कि अंतरराष्ट्रीय लैंगिक भेद रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा गिरावट महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण उपखंड में ही आई है। सन् 2019 में महिला मंत्रियों का अनुपात जहां करीब तेईस फीसद था, वह इस साल घट कर नौ फीसद के आसपास रह गया है।
राजनीतिक ढांचे में इस अफसोसजनक उपस्थिति के रहते बाकी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए कैसी जगह बन सकती है। यह बेवजह नहीं है कि महिला श्रम भागीदारी सहित पेशेवर और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वेतन में विसंगति और शिक्षण में भागीदारी आदि में महिलाओं की भूमिका में काफी कमी आई है। सच यह है कि हर उस क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी काबिलियत साबित की है, जहां उसे मौका मिला है और इसीलिए वे सभी स्तरों पर बराबरी की हकदार हैं। मगर पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह जब समाज से लेकर सत्ता और संस्थानों के व्यवहार और फैसलों तक पर हावी हो तो कई बार काबिलियत भी पिछड़ जाती है। आमतौर पर हर साल वैश्विक अध्ययनों में हमारे देश की महिलाओं की जो तस्वीर उभरती है, वह निराश करने वाली होती है। परिवार, समाज, राजनीति, प्रशासन आदि हर मोर्चे पर लैंगिक भेदभाव का जो अनुपात दिखता है, उससे देश के समग्र विकास की अवधारणा पर सवाल उठते हैं।
आज समाज में कुछ विधवा महिलाओं की स्थिति हुई हाशिये पर टिकी हुई है। विधवाओं को अन्य महिलाओं को अच्छी लगने वाली तमाम वस्तुओं का इस्तेमाल मना है। इन्हें दिन में एक बार खाना चाहिए, जमीन पर सोना चाहिए, शुचिता का जीवन बिताना चाहिए और सिर घुटाना चाहिए। भले इन नियमों का अब पालन नहीं होता, पर उनका असर अब भी है। कई विधवाओं ने बताया कि हालांकि कानून के आधार पर उन्हें अपने दिवंगत पतियों की और अपने मां-बाप द्वारा उन्हें दी गई जमीन का मालिक बनने का अधिकार है, पर इससे अक्सर उन्हें वंचित रखा जाता है। उस जमीन के लिए उन्हें मारा जाता है, ‘चुड़ैल’ घोषित कर दिया जाता है और कई बार उनकी जान भी ले ली जाती है। उन्हें ‘अशुभ’ समझा जाता है।
वृंदावन में गोपियों की जगह विधवाओं ने ले ली है। वे कोठरियों, मंदिरों और धर्मशालाओं के बरामदे पर रहती हैं। कुछ रुपयों या मुट्ठी भर अनाज के बदले दिन भर भजन करती हैं, फूलों की मालाएं बनाती हैं और मंदिरों की सफाई करती हैं। वाराणसी हो या दक्षिणेश्वर-सब जगह यही कहानी है। उन्हें इस बात की उम्मीद रहती है कि उनके परिवार के लोग उन्हें कभी लेने आएंगे, लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है।
ऐसी महिलाएं जिन्होंने अपना जीवन अपने समुदायों के हाशिये पर रहकर बिताया है, जिनके लिए समानता और स्वतंत्रता अभी भी मायावी विचार हैं, फिर भी जो अपनी विभिन्न दमनकारी परिस्थितियों का सामना करती हैं साहस, धैर्य और गरिमा के साथ। इनकी ताकत हैरान करने वाली होती है पर कई जगह उनके साथ अभद्र व्यवहार उनके मन में परतंत्रता की बेड़ियाँ डाल रखी है। कब उबर पाएगी वो सभी स्त्रियाँ मानसिक शारीरिक यातनाओं से? आज भी यही सवाल रहेगा।

पूजा गुप्ता
मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)

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