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आग़ाज़-ए-मनजस

“ख़ास से आम सी होती मैं”
शौहरत मिली तो उसने भी लहजा बदल दिया,
दौलत ने कितने लोगों का शजरा बदल दिया…
ख़ैर वो तो ग़ैर था,ग़ैर ही रहा,
गिला भी कर सकें उससे,इतना भी हक़ ना रहा…
उसके नज़दीक अब उसके चाहने वाले बहुत हैं,उन सबकी आवाज़ों में दूर से जाती आवाज़ मेरी उस तक नहीं पहुंच पाती,
जिस सफ़र के कभी हम थे हमसफ़र,
उस रहगुज़र को अब मेरी निगाहें तलाशती हैं,
सफ़र के इस मोड़ पे वो मुझे भुला बैठा,पर मैं ना कभी उसे भुला पाऊंगी,अब आगे का सफ़र उसके बग़ैर ही तमाम अपना कर जाऊंगी,
वो वक़्त जैसा बदलता ही चला गया,
मैं इक लम्हा जैसे,वहीं रुक गई,
वो जो मेरा नाम लेते हुए कभी थकता ना था,आज अपनी महफ़िल में मेरे नाम से क़तराता है…
बहुत पहले तुमने अपने साथ का रिश्ता तोड़ दिया था,
बस अब यहीं अपना भी ताल्लुक़ ख़त्म करती हूं मैं
अब मैं भी उसपर कोई इल्ज़ाम ना दूंगी,
कभी अपनी ज़ुबां से अब उसका नाम ना लुंगी,
उसका नाम ले भी लूं गर कभी,
तो ये काम मेरा गुनाहों में गिना जाएगा,
अब कभी उससे राब्ता ना हो मेरा,
अब यही दुआ अपने ख़ुदा से करती हूं मैं….

✍️जॉयस ख़ान

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