आजादी है मेरे देश में !!
मैं बेटी इस देश की कहना कुछ चाहती हूँ-
“आजादी है मेरे देश में मानू कैसे इस बात को
बंदिशों में बेबस हुई नारी के देखूं जब हालात को…”
कि “आजादी है मेरे देश में मानू कैसे इस बात को
बंदिशों में बेबस हुई नारी के देखूं जब हालात को…’
पूरे सपने करने का क्या नहीं है मुझको हक यहाँ?!
हर बात में क्या है? क्यों है? क्यों होता मुझपे शक यहाँ !
वक्त पर सोना वक्त पर उठना करती में हर काम यहाँ,
निभाती हर एक जिम्मेदारी,
इज्जत का पर नाम कहाँ!
“आजादी है मेरे देश में मानूं कैसे इस बात को बंदिशों में बेबस हुई नारी के देखूं जब हालात को…”..
खुद की पसन्द के कपड़े पहनने पर
किसी से दो पल हँसके बोलने पर,
बात-2 पर चरित्र पर उठते सवाल यहाँ !!
“आजादी है मेरे देश में मानूं कैसे इस बात को
कुछ पल देर से घर पहुंचने पर मां-बाप के चेहरे पर शिकन का भाव है.
न सेफ्टी यहां रात में दिन में भी अभाव है,
खुले घुमते गुनहगार यहां सौ-2 में बिकता ईमान है।
मैं दहेज लिखूं या मार लिखूं
दर्द लिखूं या पुकार लिखूं
बेटियों की चित्कार लिखूं या मर्द का झूठा अहंकार लिखू???
लिखना है हक मुझे लिखनी है पहचान,
लिखना है सच मुझे लिखना है सम्मान,
पर सोचू भी इस बारे में तो कांपते उठते अरमान मेरे ।
“आजादी है मेरे देश में मानूं कैसे इस बात को
बंदिशों में बेबस हुई नारी के देखूं जब हालात को…”.
-अंजली बारूपाल


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