अमरमणि की रिहाई पर मधुमिता की बहन निधि की जुबानी:मैं शॉपिंग से लौटी तो सामने खून से लथपथ लाश पड़ी थी

मधुमिता शुक्ला हत्याकांड में पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी और उनकी पत्नी मधुमणि आज रिहा हो गए। रिहाई पर सुप्रीम कोर्ट के रोक न लगाने से मधुमिता की बहन निधि शुक्ला फूट-फूटकर रोने लगीं। पूरे मामले पर हमने उनसे विस्तार से बात की। आगे पूरी कहानी, निधि शुक्ला की ही जुबानी…
बीते तीन महीने से मैं ज्यूडिशियरी और राज्य सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों को मेल कर रही हूं, पत्र लिख रही हूं और उनसे मिलने भी जा रही हूं। मैंने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, प्रमुख सचिव गृह, मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश, डीआईजी जेल, राज्यपाल उत्तर प्रदेश से लगातार पत्राचार किया है। मैं जानती थी कि कुछ गड़बड़ होने वाली है। मुझे बताया गया था कि शायद अमरमणि 15 अगस्त को आरोपों से बरी हो सकता है।
मेरे लगातार पत्राचार, दौड़ भाग की वजह से मुझसे कहा गया कि ऐसा नहीं है। 15 अगस्त को इन्हें कोई रिहाई नहीं मिल सकती है। मैं इस बात को मान गई। मुझे बेवकूफ बनाने के लिए 15 अगस्त को कोई ऐसा कदम नहीं उठाया गया।
पहले तय था कि इस मामले में सुनवाई के लिए 25 अगस्त मुकर्रर हुई है, लेकिन मेरी आंखों में धूल झोंककर 24 तारीख की रात को ही अमरमणि को रिहा कर दिया गयाा। अदालत का कहना है कि जेल में अमरमणि के अच्छे चाल चलन की वजह से ऐसा किया गया है।
हकीकत तो यह है कि अमरमणि और उसकी पत्नी तो जेल में रहे ही नहीं। वे कागजों में ही उत्तराखंड की जेल में थे असल में 2012 से लेकर 2023 तक कभी जेल गए ही नहीं। ऐसे में अच्छे चाल-चलन की बात कहां से आ गई। अमरमणि और उसकी पत्नी जेल में नहीं है,।
अब मेरे वकील ने उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस देकर इसकी रिहाई पर रोक लगाने को कहा है। सरकार ने जवाब में आठ सप्ताह का समय मांगा है। आप ही बताओ अमरमणि जैसे व्यक्ति के लिए कुछ भी करामात करने के लिए आठ सप्ताह बहुत ज्यादा समय नहीं है क्या।
उस दिन मैं और मेरी बहन मधुमिता लखनऊ वाले घर पर थे। दोपहर का वक्त था। दाल-चावल खाने के बाद मधुमिता मुझसे कहने लगी कि जाओ तुम अकेले शॉपिंग कर आओ। दरअसल, हमें जब भी अपने घर लखीमपुर आना होता था तो हम सभी के लिए कुछ न कुछ खरीदारी करते थे। मैं तो एकदम खुश हो गई। मुझे लगा कि आज मैं अकेले शॉपिंग के लिए जा रही हूं तो अपने लिए ज्यादा सामान खरीदूंगी।
शॉपिंग के लिफाफों भरे हाथ से मैं दो-तीन घंटे में घर पहुंची तो देखा कि बाहर से कुंडी लगी है। मुझे हैरानी हुई कि बाहर से किसने कुंडी लगाई होगी। खैर, मैंने लिफाफे नीचे रखकर कुंडी खोली तो सामने देखा कि मधुमिता की खून से लथपथ लाश पड़ी है।
मैंने अपने बाल खींचते हुए चिल्लाना शुरू कर दिया मधु..मधु..मधु..। मैंने उसे अपने सीने से लगा लिया। बस, उस दिन से लेकर आज का दिन, 17 साल हो गए, मैं अकेले न्याय की लडाई लड़ रही हूं। न मैं सोई, न मुझे भूख लगी, न मैं हंसी, न घर से बाहर निकली। मैं इतना थक गई हूं कि आज अगर मेरी मधु मुझसे आकर कहे कि चल निधि मेरे साथ तो मैं बिना एक पल गंवाए उसके साथ चल दूंगी।

मधुमिता शुक्ला हत्याकांड से जुड़े कुछ डॉक्यूमेंट्स दिखातीं बहन निधि शुक्ला।
ईश्वर जब किसी से रूठता है तो उसे ऐसे खत्म करता है जैसे उसने हमारा सब खत्म किया। महीनों हो जाते हैं, अब मैं हंसती नहीं हूं। चिड़चिड़ी हो गई हूं। बस जी रही हूं। नर्क से बदतर जिंदगी झेली है। मैं संगीत सीखा करती थी। बहुत मीठा बोलती थी, दिनभर सितार बजाती थी, लेकिन अब जिंदगी में केवल दौड़-भाग, जान बचाना, कोर्ट, कचहरी, अपराधी, पुलिस और वकील रह गए हैं।
17 साल से मैं इस घर के अंदर कैद हूं। जरा-सी देर के लिए बाहर जाती हूं यह जानकर कि मुझे किसी भी वक्त मार दिया जाएगा। मेरी जिंदगी खतरे में है। मेरी जिंदगी ऐसी है कि मैं बाहर वॉक या रनिंग करना चाहती हूं, लेकिन नहीं कर सकती हूं। जरा सी आवाज होती है तो मौत मंडराती नजर आती है।
हमारा परिवार लखीमपुर खीरी का एक हंसता-खेलता संपन्न परिवार था। पापा फॉरेस्ट रेंजर थे। उस जमाने में जब लोग टीवी पर ही कार देखा करते थे, तब हमारे पास जीप थी। हर 15 दिन में पापा हमें फिल्म दिखाने ले जाया करते थे। हम दो भाई और दो बहनें थी। मधुमिता तीसरे नंबर पर थी और मैं घर में सबसे छोटी। पापा अक्सर देर रात को घर लौटते थे। जब भी आते हलवाई के यहां से चार लिफाफे बनवाकर लाते थे। उनमें सेम, सेमी और दो पेड़े हुआ करते थे। हमारी आदत थी कि हम बच्चे पापा के आने पर ही सोते थे, चाहे वह रात में कितनी ही देर से क्यों न आएं।
9 जून 1996 की बात है। सभी लोग दोपहर का खाना खाने के बाद सुस्ता रहे थे। लखीमपुर में एक हादसा हो गया था, कुछ मजदूर जल गए थे, तो पापा उनके लिए एंबुलेंस का इंतजाम कर घर लौटे। मां की आदत थी कि जब तक पापा घर न लौटें, मां खाना नहीं खाती थी। पापा घर आए तो दोनों लोगों ने खाना खाया। पापा अपने साथ एक बढ़ई लेकर आए थे। दरअसल हमारे आंगन में रखा एक दीवान आवाज करता था। पापा का कहना था कि यह जरा-सी भी आवाज न करे। बढ़ई ने कहा कि मुझे दो कील दे दो।
पापा छत पर कील लेने गए तो छत से टंकी के जरिए नीचे उतरते हुए गिर गए। उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ था। उनके गिरने से आवाज इतनी तेज हुई कि हम सब उठ गए। देखा तो पापा गिरे हुए हैं। मोहल्ले वालों की मदद से मां कार में ही पापा को लखनऊ मेडिकल कॉलेज ले गईं, जहां उनकी मौत हो गई।
जीवन अब बिना पापा के शुरू हो चुका था, लेकिन उसमें रंग नहीं था अब। अब मां न तो हमें मारती न रोकती-टोकती। हम बच्चे कुछ-कुछ बेलगाम भी हो गए थे। वह अपने ही गम में डूबी रहती थीं। पापा की जगह मां को नौकरी ऑफर हुई थी। मां ने कहा कि जहां तुम्हारे पापा जॉब करते थे, वहां मुंह उघाड़े मैं काम नहीं करूंगी। हमारे पास रुपए-पैसे की कोई कमी थी नहीं, इसलिए मां ने नौकरी नहीं की, लेकिन मेरी मां पढ़ी-लिखी थीं। उन्होंने डबल एमए और एलएलबी किया हुआ था। पापा की पेंशन, बगीचे और जमीनों से आने वाले पैसों से गुजारा चलता रहा।

मधुमिता कभी कॉपी-पेंसिल लेकर लिखती नहीं थी, बल्कि सीधे मंच से कविता पाठ करती थी। मधुमिता की तस्वीर।
यहां से मधुमिता की कहानी शुरू होती है। मधुमिता जीवनभर क्लास में टॉप करती रही। ईश्वर ने उसे सब कुछ दिया था। दिमाग, रूप-रंग, सौंदर्य। वह इतनी ज्यादा खूबसूरत थी कि उस पर से नजर नहीं हटती थी। वह उस समय इंटर में थी कि घर में एक चिट्ठी आई कि आपको कवि सम्मेलन में बुलाया जा रहा है। मम्मी ने मना कर दिया कि देखो मधु तुम्हारे पापा को तुम्हारा कविता पढ़ना पसंद नहीं था।
दरअसल, जब पापा जिंदा थे तो हम सब लोग लखीमपुर में ही दशहरे के मेले में गए। वहां हर साल कवि सम्मेलन भी होता था। उसके आयोजक पापा के दोस्त थे तो हम लोग सबसे आगे बैठे थे। वहां कवि सम्मेलन भी था। मधुमिता ने कहा कि वह भी मंच पर से कविता सुनाएगी तो पापा ने उससे कहा कि पागल हो क्या तुम। 12 साल की हो क्या सुनाओगी, लेकिन मधुमिता ने हमारे आयोजक रिश्तेदार से कह दिया। उन्होंने पापा से कहा कि कौन सा मुंबई में कवि सम्मेलन हो रहा है, लखीमपुर में ही तो हो रहा है, बच्ची को गाने दो।
जब मधुमिता ने मंच से कविता सुनानी शुरू की ‘लहू का रंग एक है, अमीर क्या, गरीब क्या…’ तो हम सब की आंखें ही फटी रह गईं। हम में से किसी को नहीं पता था कि वह कविताएं लिखती है, लेकिन घर आने के बाद पापा ने कहा कि मधु कविता-शविता नहीं लिखना है, तुम सिर्फ पढ़ाई में अपना ध्यान लगाओ। तब से वह चोरी-छिपे कविताएं लिखती रहती थी।
मधु के लिए जिस कवि सम्मेलन का बुलावा आया था, उसमें जाने के लिए उसने मां को राजी कर लिया था। वह चली गई। उसके बाद आए दिन उसे कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। वह ओज और वीर रस की कवियित्री थी। मधु की शोहरत फैलने लगी। यहां तक कि मुंबई में उसके नाम पर कवि सम्मेलन होने लगे। मधुमिता नाइट्स के नाम से चौपाटी और मलाड में उसके सालाना कवि सम्मेलन होते थे। लोग बारिश में भी उसे सुनने के लिए खड़े रहते थे। चारों ओर से पैसा और शोहरत बरस रही थी। उस जमाने में उसे 35 से 40 हजार रुपए मिलते थे।
मधुमिता के पास शोहरत और पैसा बरसने लगा। एक तरह से वह पैसों की अटैची भरकर लाती थी। हम सब भाई-बहनों का भी ख्याल रखती। उस वक्त कुमार विश्वास स्ट्रग्लर कवि थे और मधुमिता को एक कवि सम्मेलन के 40 हजार रुपए तक मिला करते थे।
अटल जी का जन्मदिन था। मुझे अब तारीख तो याद नहीं, लेकिन शायद 24 अक्टूबर 2001 थी, लखनऊ में मधुमिता का कवि सम्मेलन था। उस पर फूलों की बारिश की गई। मधुमिता के कवि सम्मेलन में बसपा मंत्री अमरमणि त्रिपाठी की बेटियां अनु, तनु अपनी दादी सावित्री देवी के साथ आईं।
कवि सम्मेलन के बाद उन्होंने मधुमिता के ऑटोग्राफ भी लिए। उन्होंने बताया कि हम फलाने के बेटियां हैं, लेकिन हमें किसी मंत्री-संतरी से क्या लेना-देना था। एक दफा दिल्ली में मधुमिता का कवि सम्मेलन हुआ, वहां भी अमरमणि का परिवार पहुंचा। फिर धीरे-धीरे अमरमणि के परिवार ने हमारे घर आना-जाना शुरू कर दिया। वह लोग जबरदस्ती हमारी जिंदगी में घुस आए और हमें पता ही नहीं लगा। जब भी वे हमारे घर आते तो खुद ही घर में घूमने लग जाते, खुद चाय बनाने लग जाते, टेबल के ड्रॉअर खोलने लग जाते। हमें गुस्सा तो बहुत आता था, लेकिन कर कुछ नहीं पाते थे।
मेरा भाई तो इस सब के बहुत खिलाफ था। उसका कहना था कि यह सब लोग अपराधी हैं, हमें इनसे दूर रहना चाहिए। उसने मधुमिता को समझाया भी कि इनके चक्कर में न पड़ो, दूर रहो इनसे। लेकिन मधुमिता कहती कि अब हम क्या करें, कैसे भगा दें किसी को अपने घर से।

निधि के मुताबिक अमरमणि त्रिपाठी की मां मधुमिता को बेटे के करीब कर अपनी बहू से बदला लेना चाहती थीं।
एक दिन अमरमणि त्रिपाठी की मां सावित्री देवी मधुमिता के लिए रेशम का रुमाल लेकर आईं और कहने लगीं कि तुम लोग हमारे घर पर खाने पर आओ। वह अपने दुखड़े भी मधुमिता से रोने लगीं कि उनकी बहू उन्हें बहुत परेशान करती है। दरअसल, अमरमणि की पत्नी की अपनी सास से नहीं बनती थी। हम लोग मधु से बोलते थे कि यह काहे आती हैं तुम्हारे पास, इस पर वह कहती कि बेचारी अपनी बहू से परेशान है। इस सारे फसाद की जड़ अमरमणि त्रिपाठी की मां सावित्री देवी थीं।
फिर एक दिन आखिरकार हम सब अमरमणि के घर खाने पर चले ही गए, वहां हमें वो राक्षस भी मिला। वह हमसे बहुत इज्जत और प्रेम से मिला। कहने लगा कि अरे मधु, तुम हमारे लिए भाषण लिखा करो, मेरे भाषणों में जरा शेरो शायरी कर दिया करो। फिर कहने लगा कि अरे तुम नहीं चाहती हो कि हमारे भाषण पर भी तुम्हारी कविताओं की तरह तालियां बजें।
अमरमणि ने ऐसी लच्छेदार बातों का जाल बुना कि हम सब इसके जाल में फंस गए। हम जब खाना खाने के बाद अपने घर आ रहे थे तो भाई ने कहा कि अरे आदमी तो अच्छा लग रहा है, हम तो इसे ऐसे ही बुरा-भला बोल रहे थे। इस पर मधु बोली- देखा मैंने पहले ही कहा था कि इसकी बेचारी मां बहू से परेशान है।
बस मधु और अमरमणि के रिश्तों की कहानी भाषणों से शुरू होती है। वह भाषण लिखने के बहाने मधु से बतियाने लगा। दोनों के बीच बातचीत बढ़ने लगी। मधु महीनों महीने बाहर रहा करती थी इसलिए हमें नहीं पता होता था कि वो कहां पर है, क्या कर रही है। इधर अमरमणि परिवार के मधुमिता से रिश्ते बढ़ते जा रहे थे। इसके चलते हमारे घर में कलेश भी बढ़ने लगा था। हमारे परिवार को पसंद नहीं था कि मधुमिता अमरमणि से बात तक भी करे।
मधुमिता का इस तरह ब्रेन वॉश हो चुका था कि वह कुछ समझने के लिए तैयार ही नहीं थी। वह अमरमणि को बुरा-भला कहने पर हम लोगों से खूब झगड़ने लगी। अमरमणि का यह आलम था कि जब भी वह घर पर आता तो मधु हमें बोलती कि फटाफट चाय बनाओ। वह घर पर आते ही सब हाईजैक कर लेता था। अमरमणि ने मधु को इस तरह बेवकूफ बना दिया था कि वह कुछ सुनने के लिए राजी नहीं थी।
हमारा बाप मर गया था। घर मधुमिता ही चलाती थी, जिसे अमरमणि हाईजैक कर चुका था। वह मधु को हमारे खिलाफ भड़काने लगा। वह कहता था कि देखो मधु तुम्हारी मां तुम्हें कम और निधि को ज्यादा प्रेम करती है। तुम्हारी वजह से घर चलता है, तुम कविताएं पढ़ती हो, मेहनत करती हो और देखो घर में तुम्हारी इज्जत क्या है। सब तुम्हारा पैसा लूटना चाहते हैं। अमरमणि ने उसके दिमाग को अपने कंट्रोल में ले लिया। वह धीरे-धीरे परिवार के खिलाफ होती गई। मधु अमरमणि की जरा भी बुराई नहीं सुन सकती थी।
मुझे याद है कि एक दफा मधु ने मुझसे कहा कि मैंने उसके पर्स से पैसे चोरी किए हैं, इस बात पर मैंने उसको थप्पड़ मार दिया था। हालांकि मैं झूठ नहीं बोलूंगी… मैं उसके पर्स से पैसे चुराती भी थी। उसे पता भी था, लेकिन उसने कभी रिएक्ट नहीं किया था। बस वो यह कहा करती थी कि देखो निधि पैसे मांग लिया करो, क्योंकि चुराने से लक्ष्मी रूठ जाती हैं।
बस फिर वह 9 मई 2003 का मनहूस दिन भी आ गया, जिस दिन ने हमसे हमारी मधु को छीन लिया। उस दिन मधु और मैं लखनऊ वाले घर पर थे। एक रात पहले हमारी मां लखनऊ से कपड़े खरीदकर लखीमपुर चली गई थीं। हमने सुबह की चाय पी। दोपहर को दाल-चावल खाया। मधु ने मुझसे कहा कि धूप बहुत तेज है, उसका बाजार जाने का मन नहीं है, मैं निशातगंज बाजार से भाइयों के लिए कपड़े खरीद लाऊं।
उससे एक दिन पहले मेरी मां लखनऊ आई थी। रात को मैं, मधु और मां एक ही बेड पर सो रहे थे। आधी रात को हमारी खिड़की पर जोर से आवाज हुई, किसी ने कुछ फेंका। हम तीनों डर गए, देखा तो कोई नहीं था। सुबह बात आई-गई हो गई। मां लखीमपुर के लिए निकल गई थी। खैर मधु के कहने पर दिन में मैं अकेले शॉपिंग के लिए चली गई।
जब लौटी तो मधु की लाश पड़ी थी। तभी बगल के कमरे से आवाज आई कि दीदी हमें खोलो। हमारा नौकर उस कमरे में बंद था। मैंने उसका दरवाजा खोला। उसने मुझे बताया कि कोई सत्यप्रकाश आया था। दीदी मिलने गई तो सत्यप्रकाश ने अंदर से कुंडी लगा ली और नौकर को कमरे में बंद कर दिया। फिर उसने साइलेंसर लगी पिस्टल से दीदी की छाती में गोली मारी।
यह जानने के बाद मैंने अपने कपड़े बदले और पीसीओ पर भागी-भागी गई। हालांकि मधु का फोन वहां था, लेकिन मुझे वह फोन चलाना नहीं आता था। अपनी मां को फोन किया कि मधु को चोट लग गई है। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि मधु को गोली लगी होगी। पीसीओ वाले ने कहा कि यहां तुम्हारी कोई मदद नहीं करेगा। तुम पुलिस स्टेशन जाओ, पुलिस आने के बाद ही कोई डॉक्टर तुम्हारी मदद कर पाएगा।
मैं पुलिस स्टेशन गई, जाकर बताया कि किसी ने मेरी बहन को चाकू मार दिया है। पुलिस आई। पुलिस ने मुझसे पूछा कि यह सब किसने किया होगा? मैंने कहा कि अमरमणि ने मेरी बहन का खून किया है। अमरमणि का नाम मेरी जुबान से सुनते ही सारा मोहल्ला पुलिस ने घेर लिया।
अमरमणि उस वक्त का ताकतवर मंत्री था। वह सरकार बनाने और बिगाड़ने की हैसियत रखता था। मायावती उसकी, पुलिस उसकी, शासन उसका, वकील उसके, हर चीज उसकी। जैसे ही मेरे मुंह से अमरमणि का नाम आया, वहां आईजी एके जैन आ गए। मुझे एक कमरे में ले जाकर कहने लगे कि क्या अनाप-शनाप बोल रही हो। किसका नाम ले रही हो? यह नाम किसी से ले मत लेना।
मैंने भी तय कर लिया था, अब क्या इज्जत और क्या बेइज्जती। उस दिन अमरमणि के मधु को 41 फोन आए थे, सुबह से ही दोनों में झगड़ा हो रहा था। पुलिस मुझे पुलिस स्टेशन और मधु की बॉडी को मॉर्च्युरी में ले गई।

निधि शुक्ला के मुताबिक मधुमिता के जाने के बाद पुलिस बोल रही थी कि वह अज्ञात के खिलाफ एफआईआर लिखेगी, लेकिन वो बार-बार कह रही थीं कि नहीं अमरमणि के खिलाफ लिखो।
पुलिस स्टेशन जाकर पुलिस मुझसे कहने लगी कि जो बोल रहे हैं, वो लिखो। पुलिस ने हमें एक कागज दिया, दूसरा कागज दिया, लेकिन हमने उन पर अमरमणि का ही नाम लिखा। फिर वहां दो पुलिसवाली आईं। उन्होंने मुझे सिर पर जोर से मारा।
मैं अपने घर में सबसे छोटी थी, घर में कभी किसी ने मुझ पर हाथ नहीं उठाया था। उस दिन पहली दफा मधु के जाने के बाद मुझे किसी ने मारा। फिर मुझ पर दबाव बनाने के लिए मेरे पास एक आदमी की बेदम पिटाई शुरू कर दी। पुलिसवाली ने कहा कि अब तीसरा पन्ना दे रहे हैं, इसके बाद कोई पन्ना नहीं देंगे।
इतने में पुलिस स्टेशन मेरी मां भी आ गईं। मां ने देखा कि वहां मुझे मारा जा रहा है, पेट्रोल डालकर मुझे जलाने की बातें हो रही हैं तो मां डर गईं। मैं पेशाब करने के लिए गई वहां मां ने मुझे धीमे से कहा कि जैसा पुलिस वाले बोल रहे हैं, वैसा करो, यहां से जिंदा निकलो किसी तरह। जिंदा रहोगी तभी मधु की लड़ाई लड़ सकोगी।
मेरी मां बेशक घरेलू थीं, लेकिन एलएलबी पास थी, डबल एमए किया था। मुझे याद है कि वह उस घड़ी रोए जा रही थीं और मुझसे बोल रही थी कि किसी तरह यहां से निकल।
मां मेरे छोटे भाई के साथ आई थीं। वह भाई को रास्ते में रोक कर समझा कर आईं कि अगर वे न लौट सकें तो जेवर और पैसा फलाने के पास रखा है, उसे वहां से लेकर किसी और शहर निकल जाना। दरअसल लखीमपुर से सीधे मां लखनऊ वाले घर पर गई थीं, जहां मोहल्ले वालों से उन्हें सारी बातचीत का पता लग चुका था, लेकिन उन्होंने बहुत सूझबूझ से काम लिया।
तभी मधु के फोन पर अमरमणि का फोन आया। पुलिस वाले ने मुझे फोन दिया कि मंत्रीजी बात करेंगे। मैंने फोन लिया, अमरमणि कहने लगा कि अरे मधु कहां है, मैंने गुस्से में अमरमणि से कहा कि तुम खून के आंसू रोओगे, बर्बाद हो जाओगे। तभी एसएचओ ने मेरे हाथ से फोन छीनकर कहा कि यह मंत्रीजी को बर्बाद करेंगी। पुलिस स्टेशन में इतना सुनकर सभी मुझ पर और मेरी मां पर हंसने लगे।
मेरी मां ने पुलिस स्टेशन में कहा कि मेरी बेटी को हाथ मत लगा देना। एक तो हत्या करते हो, दूसरे हमें ही मारते हो, पुलिस वालों ने मेरी मां से भी बदतमीजी शुरू कर दी। अब मुझसे देखा नहीं जा रहा था। मैंने मां की तरफ देखा, मां आंखों से बोल रही थी कि कुछ मत कहो, मार दिए जाएंगे इसलिए जैसा पुलिसवालों ने कहा, मैंने वैसा कागज पर लिख दिया।
मैं और मेरी मां किसी तरह रात के डेढ़ बजे पुलिस स्टेशन से निकले। रात का वक्त था। चारों ओर सन्नाटा था। हम किसी तरह अपने घर पहुंचे तो देखा कि हमारे घर को पुलिस ने सील बंद कर दिया है। अब हम कहां जाएं, क्या करें। कोई हमारी मदद के लिए तैयार नहीं। कोई हमसे बात नहीं कर रहा था। हमने आधी रात को मोहल्ले के मंगल रिक्शावाले को जगाया। उसने शराब पी रखी थी।
हमने उससे उसके रिक्शे की चाबी मांगी। नशे में उसने चाबी दे दी। मैंने आधी रात को अपनी मां को रिक्शे के पीछे बिठाकर खुद रिक्शा चलाया और वहां से शाहमीना लेकर आई। शाहमीना वहां से लगभग पांच किलोमीटर दूर था। यहां एक मजार थी, जिसके गुरू पापा के दोस्त थे। हम लोग मजार पर आ गए। रात को मेरे भाई भी मजार पर आ गए। उन्हें पता था कि हम लोग मजार पर ही होंगे।
अब सुबह के 4 बज गए। हम लोग वहां से मॉर्च्युरी गए। सुबह लगभग 5 बजे वहां अमरमणि भी आया और सीधा मॉर्च्युरी में गया। हम भी उसके पीछे-पीछे गए। हमने देखा कि हमारी मधु वहां सोई हुई है, उसे देखकर हम बहुत रोए।
मां ने कहा कि मेरा आदमी चला गया और मेरी औलाद को तू खा गया। अमरमणि ने मेरी मां से कहा कि बकवास मत करो, जितना बोल रही हो न, लखनऊ से निकल नहीं पाओगी। मैंने अमरमणि से कह दिया कि जो करना है अब कर लो, मधु को मार डाला है, मधु तो चली गई, अब हम सब को भी मार डालो।
लखीमपुर का कप्तान हर दिन घर में आकर धमकाता। कहते थे कि जिंदा रहना है या नहीं। मेरी मां से बोला करते थे कि इस उम्र में आप अपने बाकी बच्चों को भी खोना चाहती हैं। बस फिर सब कुछ ऐसे चलने लगा जैसे फिल्म चलती है। राजनीतिक ताकत, गुंडागर्दी, अपराध सब करीब से देखने लगे। सरकार, पुलिस, शासन सब बिके हुए देखे। तीन दफा हमारे केस में सीबीआई बिक गई। खैर मेरी मां और मैं अमरमणि का नाम लेते रहे।
मीडिया का एक धड़ा हम मां-बेटी के साथ खड़ा हो गया था। सच कहें तो मायावती ठीक नहीं हैं और बात करती हैं लॉ और ऑर्डर की। उसकी छांव में हमारे घर हर ऑफिसर आता और हमें धमकाता। हमारे रिश्तेदार और सरकारी अफसर और पुलिस वाले आते कहते कि अरे चुप रहो, कुछ मत कहो, यह हो जाएगा, वो हो जाएगा तो हम भी कहते कि हां ठीक बोल रहे हो।
एक दिन एसपी लखीमपुर हमारे घर आए, मेरी मां से बोले कि क्यों सभी को मार डालना चाहती हो, कितना धन-दौलत चाहिए तुम्हें बताओ। मेरी मां ने कहा कि मेरी बेटी मेरा धन-दौलत थी।
अमरमणि ने हमारे घर में जैमर लगवा दिए। मेरी फोन नंबर की सारी सीरीज पूरे प्रदेश से जमा कर ली। हम अपनी जान बचाने के लिए कभी जयपुर गए, कभी उत्तराखंड गए। शहर-शहर अमरमणि से जान बचाते बंजारों की तरह घूमते रहे। अब हमारी संपत्ति भी बिकने लगी। लेकिन कुछ पत्रकारों ने हमारी रक्षा की।
हम जब भी घर से बाहर जाते तो नोटरी करके जाते कि हमारी जान को अमरमणि से खतरा है, अगर हमें कुछ हो जाए तो इसका जिम्मेदार अमरमणि होगा। कुछ पत्रकारों की ईमानदारी से अमरमणि के खिलाफ माहौल बनने लगा। मायावती ने CBCID को जांच सौंप दी, लेकिन CBCID तो सरकार की ही एजेंसी थी। मेरी मां ने मांग की कि जांच सीबीआई करे।
एक दिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए। कुछ पत्रकारों ने प्रधानमंत्री से सवाल किया कि मधुमिता केस की जांच सीबीआई को क्यों नहीं सौंपी जा रही है तो इस पर प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा। फिर कुछ दिन बाद वह स्पेन गए। वहां उन्हें हर दिन की तरह जब मीडिया की ब्रीफिंग दिखाई गई तो स्पेन के अखबारों में मधुमिता कांड छाया हुआ था।
प्रधानमंत्री को बहुत बेइज्जती का अहसास हुआ कि हमारे देश की बदनामी हो रही है। उन्होंने वहीं से दिल्ली फोन करके केस सीबीआई को सौंपने के आदेश दिए। प्रधानमंत्री वाजपेयी की वजह से इस केस की जांच सीबीआई को सौंप दी गई, अन्यथा मायावती कभी इसे सीबीआई को न सौंपतीं।
सीबीआई जांच भी आसान नहीं थी। सीबीआई ने तीन दफा हमारे गवाहों के बयान बदल दिए। फिर हमने केस ट्रांसफर करने के लिए कहा। हमारी याचिका पर केस उत्तराखंड ट्रांसफर हुआ। वहां भी अमरमणि ने जज को मैनेज कर लिया। हम पहचान गए कि यह जज तो वो हैं, जो अमरमणि के साथ बहुत दफा देखे गए हैं। मैंने इसके लिए भी याचिका दायर की।
अब मैंने जज पर ही सवाल खड़े कर दिए थे तो इस याचिका की कोई सुनवाई करने के लिए तैयार नहीं था। मैंने यह याचिका नैनीताल हाईकोर्ट में लगाई, जहां से यह सुप्रीम कोर्ट पहुंची। अब जज को और अमरमणि को इल्म था कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा है। खैर हर अदालत से फैसला हमारे पक्ष में आया। इसकी वजह है कि बीते 17 साल से मैं अनवरत, बिना रुके लड़ रही हूं।

निधि शुक्ला के दिमाग में एक ही बात रहती है कि भगवान भी अमरमणि को उसने नहीं बचा सकता है।
ऐसी कोई तारीख नहीं जिस पर मैं नहीं पहुंची। कभी दिल्ली, कभी उत्तराखंड, कभी लखनऊ भागे। हर दिन मैं इस केस के लिए भागती ही रहती हूं। अब थकने भी लगी हूं। मां बूढ़ी हो गई हैं, ढेरों बीमारियों की शिकार हैं और भाइयों की भी अपनी-अपनी गृहस्थी हो गई है, लेकिन मैं दिमागी तौर पर अब संतुलित मानसिकता वाली औरत नहीं रही। अमरमणि ने अब उत्तराखंड सरकार से माफी की याचिका लगाई है।
आपको पता है कि मैंने आतंकवादी बनने का सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि मैं आतंकवादी बन जाऊंगी, लेकिन अमरमणि को नहीं छोडूंगी। हमारे गवाह मुकर गए, अमरमणि ने हमारे मुकाबले 32 वकील उतारे, 10 दिन तक लगातार मेरी गवाही हुई, लेकिन सब हार गए।
केस उत्तराखंड ट्रांसफर करवाना भी इतना आसान नहीं था। उस वक्त शिवराज पाटिल गृहमंत्री थे। मैं और मेरी मां सारी रात उनके घर के आगे खड़े रहे। किसी तरह उनकी जानकारी में आया कि एक मां-बेटी पूरी रात से मिलने के लिए खड़े हैं। हम उनके पास गए और सारी बात बताई तो उनकी मदद से कहीं जाकर केस उत्तराखंड ट्रांसफर हुआ।
जब हमारा केस देहरादून सेशन कोर्ट में चल रहा था तो हम 6 महीने के लिए देहरादून चले गए। जब वहां से नैनीताल हाईकोर्ट ट्रांसफर हुआ तो हम वहां जाकर रहने लगे, हमारे दिमाग में एक ही बात रहती है कि भगवान भी अमरमणि को हमसे नहीं बचा सकता है।
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