ओपिनियन ! न्याय मित्र:राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए सटीक सुझाव
पाँच राज्यों और अगले साल के लोकसभा चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त न्याय मित्र (एमिकस क्यूरी) ने बड़ा सटीक और तीखा सवाल उठाया है।
सवाल यह है कि जब लोकपाल, विजिलेंस कमिश्नर, मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष सहित बीस संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को अपराध करने पर हटा दिया जाता है तो विधायकों, सांसदों को इस मामले में छूट क्यों?
बात यह है कि क़ानून का पालन करने वालों की बजाय क़ानून बनाने वालों को ज़्यादा पवित्र और पारदर्शी होना चाहिए। अभी नियम यह है कि किसी गंभीर अपराध में कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए जाने और दो साल से ज़्यादा सजा पाने के बाद नेताओं को छह साल के लिए ही चुनाव लड़ने से रोका जाता है।

सुप्रीम कोर्ट के न्याय मित्र का सुझाव यह है कि ऐसे नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगना चाहिए।
न्याय मित्र का कहना है कि अपराध सिद्ध होने पर नेताओं की अयोग्यता का समय तय करना या उन्हें सीमित अवधि तक ही अयोग्य ठहराना संविधान के आर्टिकल 14 के तहत समानता के अधिकार का घोर उल्लंघन है।
सही भी है, जब आपराधिक प्रवृत्ति में लिप्त पाया गया अधिकारी बर्खास्त हो सकता है तो सांसद और विधायकों को इस मामले में सहूलियत क्यों दी जाती है? ऐसे लोग अगर ज़्यादा संख्या में संसद या विधानसभा में पहुँच गए तो वे तो इस क़ानून को भी बदल सकते हैं! फिर क्या होगा?
सवाल यह भी उठना चाहिए कि अगर कोई निचला कोर्ट किसी को दोषी करार देकर सजा सुना देता है और वह अपील में जाने का सबूत देकर चुनाव लड़ता है तो यह प्रक्रिया भी बंद होनी चाहिए।
अभी भी कई नेता ऐसे हो सकते हैं जिनके ख़िलाफ़ केस अपील में हैं और वे सांसद या विधायक बने बैठे हैं। कम से कम यह तो होना ही चाहिए कि अपील में जब तक वे निर्दोष साबित नहीं होते तब तक तो चुनाव वे नहीं ही लड़ पाएं।

एक देश, एक विधान, एक निशान के इस दौर में नेताओं और आम लोगों के लिए अलग- अलग नियम- क़ानून कैसे हो सकते हैं?
राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए यह हर हाल में अत्यावश्यक है कि आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को संसद या विधानसभा में आने से सख़्ती के साथ रोका जाए। हमारी संसद और विधानसभाएँ इसके लिए सख़्त क़ानून बनाने में दिलचस्पी क्यों नहीं दिखातीं, यह एक ज्वलंत सवाल है।
इस दिशा में तुरंत और सटीक कदम उठाने की ज़रूरत है।
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