Male मैटर्स- लड़के सड़क चलते लड़कियों को छेड़ते क्यों हैं:लड़का टॉक्सिक पैदा तो नहीं होता, फिर बन कैसे जाता है
ये 26 साल पुरानी घटना है। नवंबर की एक शाम घर के पास एक सुनसान सी गली में वो वाकया हुआ। मैं एक सहेली के साथ वहां से गुजर रही थी। हम अपनी बातों में खोए हुए थे। तभी अचानक मेरे सीने पर जोर से एक हाथ पड़ा। बगल से साइकिल से गुजर रहा एक लड़का मेरे सीने पर हाथ मारकर गया था। मैं पलटकर जोर से चिल्लाई। हम कुछ दूर उसके पीछे दौड़े भी, लेकिन तब तक वो दूसरी गली में मुड़कर नदारद हो चुका था। हम बस इतना देख पाए कि उसने लाल रंग की टी-शर्ट पहनी थी।
मैं 17 साल की थी और गोबर पट्टी के उस सो कॉल्ड ऑक्सफोर्ड वाले शहर में बड़े होते हुए सत्रहों बार ऐसे अनुभवों से गुजर चुकी थी। भीड़ में, मेले में, बस-टैंपो-सड़क-बाजार, किसी भी जगह पर कभी भी ये हो सकता था कि कोई पुरुष सीने पर हाथ मारकर चला जाता, पीछे से चिकोटी काट लेता या भीड़ का फायदा उठाकर गलत तरीके से छूने की कोशिश करता।
लेकिन उस शाम जो हुआ, वो इन सारी घटनाओं से अलहदा था।
उस लड़के के पीछे कुछ देर दौड़ने के बाद हम हारकर अपने रास्ते चल दिए। कई संकरी गलियों से गुजरकर मुख्य सड़क पर पहुंच हमने देखा कि लाल टी-शर्ट वाला वही लड़का एक कोने में साइकिल लिए खड़ा है। हम दोनों उसके पास पहुंचे। मैंने उसका कॉलर पकड़ लिया। आव देखा, न ताव, उसे तीन-चार चांटे रसीद कर दिए। दो लड़कियों के हाथों एक लड़के को पिटता देख भीड़ की नैतिकता भी जाग उठी। आसपास जमा लोगों ने भी लड़के पर हाथ साफ करना चाहा, लेकिन हमने रोक दिया।
पहली बार मैं विजेता की तरह महसूस कर रही थी। लड़कों ने दसियों बार मुझे इस तरह वॉयलेट किया था। मैंने पहली बार पलटकर जवाब दिया था।
मुझे लगा, मैंने ठीक किया। किया भी था। किसी भी लड़की के साथ ये क्यों होना चाहिए कि मर्द उसकी मर्जी के खिलाफ राह चलते उसके शरीर को छूकर निकल जाएं। उस पर फब्तियां कसें।
लेकिन उस दिन जो हुआ, वो छेड़खानी की बाकी घटनाओं जैसा नहीं था। इसलिए इतने साल गुजरने के बाद भी वो घटना और उस लड़के का चेहरा मेरी याद में धुंधला नहीं हुआ।
उस दिन जिसने मेरे सीने पर हाथ मारा था, वो कोई मर्द नहीं, बल्कि बमुश्किल 13-14 साल का एक लड़का था। औसत कद, दुबला-पतला शरीर। सूखी लकड़ी जैसे हाथ। देह पर जरा भी मांस नहीं। उसकी तो दाढ़ी-मूंछ भी ढंग से नहीं आई थी।
हमारे हाथ लगने से पहले ही वो काफी डरा हुआ था। उसकी सांसें तेज चल रही थीं। चेहरे पर घबराहट साफ दिख रही थी। वो अनुभवी और आदतन मॉलेस्टर नहीं था। शायद जिंदगी में पहली बार उसने किसी लड़की के सीने पर हाथ मारा था। शायद उसने पहले कभी किसी लड़की को किसी भी रूप में नहीं छुआ था। वह पहले से डरा हुआ था और हमारे इस तरह बीच सड़क चीखकर उसके पीछे दौड़ने से और डर गया था।
जब मेरे हाथ उसे मारने के लिए बढ़े, तभी मुझे समझ आ गया था कि वो किशोर लड़का है, लेकिन तब तक मेरे हाथ उठ चुके थे।
मेरी भी उम्र कम थी। इस तरह सड़क चलते बार-बार छेड़े जाने, छुए जाने को लेकर गुस्सा ज्यादा था और यह समझने का विवेक कम कि मर्द ऐसा करते क्यों हैं।
अच्छे-खासे भले लड़के मॉलेस्टर मर्दों में कैसे बदल जाते हैं।
उस दिन उस लड़के ने जो किया, सवाल ये नहीं कि उसे इसकी सजा मिली या नहीं, सवाल ये है कि उसने ऐसा किया क्यों।
सवाल ये है कि उसने ये करना कहां से सीखा। कैसे सीखा। वो मर्द बनने की राह पर बढ़ रहा एक किशोर था। सवाल ये है कि वो किशोर लड़का इस तरह से मर्द क्यों बन रहा था। ऐसा मर्द होना उसे कौन सिखा रहा था। उसके आसपास की दुनिया कैसी थी।
उस लड़के से तो मैं दोबारा कभी नहीं मिली, लेकिन अमित की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।
अमित उत्तर प्रदेश के बलिया शहर में चार बहनों के बीच पला इकलौता लड़का था। पिता मामूली ठेकेदार थे और मां का काम था चूल्हा-चौका करना और पिता की गालियां खाना। पिता का एक दूसरी औरत से भी संबंध था, जो उनके साथ उसी घर में रहती थी। ऐसा नहीं कि पिता मां से प्यार नहीं करते थे तो शायद उस दूसरी महिला से करते हों। पिता दोनों औरतों पर कभी भी सबके सामने हाथ उठा सकते थे। सबसे हुड़ककर, डांटकर बात करना तो उनका रोज का मामूल था। लड़कियों की भी घर में दो कौड़ी की इज्जत नहीं थी। उनके घर में कदम रखते ही सारे बच्चे छछुंदरों की तरह आंख से ओझल हो जाते।
अमित यही देखते बड़ा हुआ कि औरत का काम रोटी पकाना और मर्द को खुश रखना है। पिता के कमरे में एक बार अमित को अश्लील मैगजीन और किताबें मिल गईं। बाप ने बेटे को वो देखते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया। फिर क्या था, खुद शर्मिंदा होने की बजाय बाप ने आंगन में सबके सामने बेटे को जूते से पीटा।
उसके बाद अमित ने बाप की मैगजीन्स को हाथ नहीं लगाया, लेकिन तब तक मुहल्ले की लड़कों की संगत में मस्तराम की किताबों, डेबॉनियर और शहर के सिनेमा हॉल में सुबह लगने वाली इटैलियन कामसूत्र टाइप की फिल्मों से उसका परिचय हो चुका था।
साथ के जो लड़के उम्र में बड़े थे, वो अकसर शहर के भीड़भरे बाजार, मेले या सुनसान गली में मौका देखकर लड़कियों को छेड़ते और ऐसी हर घटना को मेडल की तरह अपनी छाती पर टांगकर घूमते।
अमित का अंत अपने पिता की तरह होता, लेकिन एक आपसी रंजिश में पिता की हत्या होने के बाद जब अचानक घर की सारी जिम्मेदारी उस पर आ पड़ी और उसकी पुरानी संगत छूट गई। फिर वह एक एनजीओ के संपर्क में आया, जो सड़क पर आवारा फिरने वाले बेघर लड़कों के साथ काम करता था। उस समूह से जुड़ने के बाद अमित की जिंदगी बदल गई।
जब पहली बार अमित ने अपने दोस्तों के उकसाने पर और खुद को मर्द साबित करने के लिए किसी लड़की को छेड़ा था, तब उसकी उम्र भी 14 साल थी। दशहरे के मेले में मौका पाकर उसने एक लड़की की छाती दबोच ली। लड़की की उम्र 11-12 साल रही होगी, जो अपनी फैमिली के साथ मेला घूमने आई थी।
जेंडर सेंसटाइजेशन के सेशन में एक दिन अमित ने ये कहानी सुनाई। सुनाने के बाद वो एकदम चुप हो गया। कुछ मिनट तक कमरे में बिलकुल सन्नाटा। कुछ देर बाद उसके रोने की आवाज से सन्नाटा टूटा।
सेशन हेड कर रही महिला ने उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “तुम्हें उस लड़की का चेहरा याद है।”
उसने नजरें झुकाए हुए ही सिर हिलाकर कहा, “हां।”
“वो बहुत छोटी थी न?”
लड़के ने कहा, “हां।”
“तुम्हें क्या लगता है, उस लड़की को कैसा महसूस हुआ होगा?”
“वो बिलकुल डर गई थी।”
“तुम भी तो डर गए थे।”
“हां।”
“तुम्हें पता है, तुमने ऐसा क्यों किया था।”
“अपने दोस्तों को दिखाने के लिए।”
“खुद को मर्द साबित करने के लिए?”
“हां।”
“दोस्त तब साथ थे।”
“हां।”
“उन्होंने देखा, तुमने क्या किया था।”
“हां।”
“फिर क्या हुआ?”
“उस रात उन्होंने सेलिब्रेट किया। मुझे बीयर पिलाई। वो लड़का अब भी सुबक रहा था।”
“अब तुम उस घटना के बारे में क्या सोचते हो।”
“मुझे शर्म आती है।”
उस वक्त कमरे में मौजूद किसी भी महिला या पुरुष के चेहरे पर नाराजगी नहीं थी। सबकी आंखों में करुणा का भाव था। सबने उसे यकीन दिलाया कि ये सच बोलना कितने साहस का काम है।
इस स्वीकार्यता, सच कहने की हिम्मत, गलती मानने के साहस और पश्चाताप के भाव ने उसके मन का बोझ हल्का कर दिया था।
इस देश में सैकड़ों ऐसे अमित हैं, जो टॉक्सिक मर्द इसलिए हुए क्योंकि उनके आसपास की दुनिया ने उन्हें कुछ और होना सिखाया ही नहीं। उनके पास मैस्क्यूलिनिटी का कोई और रोल मॉडल था ही नहीं। उन्होंने घर में मां को अपमानित होते और पिता को रौब जमाते देखा, सिनेमा में हीरोइनों को अधनंगे कपड़ों में देह दिखाते नाचते देखा, हीरो को हीरोइन का पीछा करते-छेड़ते देखा, अखबारों-पत्रिकाओं में नंगी औरतों की तस्वीरें देखी, पोर्न में औरत को मांस के निर्जीव लोथड़े की तरह इस्तेमाल किए जाते हुए देखा, अपने दोस्तों को लड़कियों को छेड़ते और उस पर इतराते देखा।
वो किशोर बच्चे वही हुए, जो उन्होंने देखा। जो उन्हें दिखाया और सिखाया गया। वो ऐसे पैदा नहीं हुए थे। दुनिया का कोई टॉक्सिक मर्द टॉक्सिक बनकर पैदा नहीं हुआ। उसे टॉक्सिक बनाने का काम किया है इस दुनिया ने। हमारी कलेक्टिव पैट्रीआर्कल कल्चर ने।
और ये कल्चर बदलेगी कैसे? सबकी साझी कोशिशों से। औरत-आदमी सबकी कोशिशों से। ये समझने से कि मर्द ऐसे इसलिए बन रहे हैं क्योंकि उन्हें बेहतर बनाने का कोई स्कूल, एजेंसी, कल्चर हमारे पास है ही नहीं।
जो हमने सिखाया ही नहीं, बताया ही नहीं, वो होगा कैसे। बीज बोए ही नहीं तो पेड़ उगेगा कैसे।
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