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रूस और यूक्रेन के युद्ध से भारत के छात्रों के भविष्य पर लगा प्रश्नचिन्ह, क्या हल निकालेगी भारत सरकार ?

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डॉ मुदिता पोपली
रूस-यूक्रेन समस्या ने विदेश में अध्ययनरत मेडिकल विषय की शिक्षा पा रहे विद्यार्थियों को लेकर नई चर्चा को जन्म दे दिया है। हर साल हजारों भारतीय छात्र मेडिकल की डिग्री लेने यूक्रेन जैसे देशों में जाते हैं।
सोशल मीडिया पर तो जैसे सुझावों की बाढ़ आ गई है। किसी ने आरक्षण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया, किसी ने प्राइवेट कॉलेजों की मोटी फीस को, किसी ने छात्रों की योग्यता को तो किसी ने सरकारी नीतियों को।
मेरे ख्याल से ये सारे कारण सही हैं, लेकिन समस्या की जड़ हमारी बेसिक शिक्षा प्रणाली है। हमारे यहां के छात्र पहली से बारहवीं कक्षा तक ढेरों विषय पढ़ते हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश को नहीं पता होता कि यह विषय क्यों पढ़ रहे हैं और जीवन में इसका क्या उपयोग है। हमारे यहां छात्र को बहुत लंबे समय तक यही नहीं पता होता कि उसे जीवन में बनना क्या है , किस क्षेत्र में अपना करियर बनाना है, वह केवल माता पिता के लिए निर्णय के आधार पर अपने करियर का चुनाव करता है। कभी-कभी तो माता-पिता अपने करियर की तुष्टि भी बालक से करते प्रतीत होते हैं। अर्थात हर किसी का ध्यान केवल इस बात पर रहता है कि उसे क्या बनना चाहिए, न कि इस बात पर कि वह क्या बनना चाहता है? या क्या बनने योग्य है।
हिंदुस्तान में सरकारी नौकरियों के पीछे भागने वाले अधिकांश लोगों की सोच यह है कि उन्हें आर्थिक सुरक्षा मिले ऊपरी कमाई के अवसर मिले और कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मिले । बहुत कम लोग होते हैं जो किसी विशेष कारण से सरकारी नौकरी की ओर आना चाहते हैं। यही कारण है कि सरकारी नौकरी चाहने वाले बेरोजगार लोग बैंक के फॉर्म भी भरते हैं, रेलवे के भी, पुलिस भर्ती के भी और सिविल सेवा के भी, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि उन्हें वास्तव में करना क्या है । वे बस सरकारी नौकरी की ओर भागना चाहते हैं।
अधिकांश अभिभावक भी बच्चे को या तो डॉक्टर बनना चाहते हैं या इंजीनियर। हिंदुस्तान में जब आईटी का युग आया, तो सब कंप्यूटर इंजीनियर बनने दौड़े, उसके बाद एमबीए का क्रेज़ शुरू हुआ। यहां तक कि लोग इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद भी एमबीए करने लगे। हिंदुस्तान में सब भेड़ चाल में लगे हैं , और यही समस्या की जड़ है।
अपने अपने दिमाग के हिसाब से सरकारों पर आरोप लगाते हैं कि सरकारें अपने राजनैतिक लाभ-हानि का हिसाब लगाकर नीतियां बनाती हैं, जबकि खुद को एहसास नहीं कि हम कहां किस दिशा में जा रहे हैं।

आपने अपने स्कूल-कॉलेज में किन विषयों की पढ़ाई की, किन विषयों की पढ़ाई करना चाहते थे और करियर किस फील्ड में बना, इन तीनों बातों का दूर-दूर तक कोई भी संबंध ही नहीं है।
अभी यूक्रेन से लौट रहे छात्रों के मामले में लोग शिकायत कर रहे हैं कि आरक्षण के कारण कई योग्य छात्रों को एडमिशन नहीं मिल पाता है, या कॉलेजों में सीटें बहुत कम हैं और फीस बहुत ज्यादा है।आरक्षण, महंगी फीस, बेईमानी जैसे सारे कारण वाजिब हैं। उन पर सरकार और समाज दोनों को ध्यान देना चाहिए। लेकिन फिर भी समस्या पूरी तरह नहीं सुलझेगी, जब तक समस्या की जड़ तक नहीं जाएंगे।
समस्या की जड़ इस बात में है कि अधिकांश लोग पैसे को ही सफलता समझते हैं और यह मानकर चलते हैं कि अच्छे कॉलेज के अच्छे कोर्स में एडमिशन मिल जाने पर अच्छी नौकरी अपने आप मिल जाएगी और बाकी सब समस्याएं हमेशा के लिए सुलझ जाएंगी। लेकिन छात्रों को अपनी ऐसी सोच बदलनी चाहिए। लोग केवल इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि उन्हें कौन सी पढ़ाई करनी चाहिए और कौन सी नौकरी पानी चाहिए, लेकिन वास्तव में उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वे किस विषय की पढ़ाई करना चाहते हैं और किस फील्ड में करियर बनाना चाहते हैं। अन्यथा वे कभी सफल नहीं होंगे।

मेडिकल की सीटें बढ़ जाने से क्या वास्तव में छात्रों की योग्यताएं बढ़ जाएंगी, यह भी तो सोचना होगा कि नए कॉलेजों में पढ़ाने वाले अतिरिक्त लोग कहां से आएंगे? आज जिले जिले में इंजीनियरिंग और नर्सिंग कॉलेज खुले हुए हैं, गली गली में कंप्यूटर इंस्टीट्यूट हैं और हर मोहल्ले में अंग्रेजी मीडियम वाले कथित कॉन्वेंट स्कूल चल रहे हैं। लेकिन उनकी पढ़ाई का स्तर क्या है? इंजीनियरिंग और कंप्यूटर कॉलेजों की बात तो छोड़िए, अपने मोहल्ले के ऐसे किसी निजी प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा का स्तर ही देख लीजिए। मेडिकल कॉलेज हो या शिक्षा का कोई अन्य क्षेत्र हो, छात्रों को अपनी रुचि और क्षमता का सही आंकलन करके उसमें जाना चाहिए। केवल भेड़ चाल के कारण या हवाई सपनों के महल बनाकर नहीं।

बालक को अपनी रुचि और क्षमता को पहचानकर कैरियर का चुनाव करना चाहिए। होड़ लगाकर यहां किस फील्ड में पैसे ज्यादा मिलते हैं ऐसा सोचने से कैरियर नहीं बनते। सफलता का सूत्र इस बात में है कि आप अपनी योग्यताओं को समझें उनका आकलन करें तथा इस आधार पर प्रयास करें।इसके पश्चात आप पढ़ने अफगानिस्तान जाएं या अमरीका, उससे थोड़ा बहुत अंतर अवश्य पड़ेगा, लेकिन आपकी सफलता या असफलता उसी पर निर्भर नहीं है। वह इस पर निर्भर है कि आप अपने करियर का क्षेत्र इस आधार पर चुनें कि आपके लिए क्या सही है, न कि इस आधार पर कि सब लोग किस तरफ भाग रहे हैं।
मेरा ऐसा मानना है कि सरकार मेडिकल की सीटें बढ़ाए या न बढ़ाए, लेकिन सरकार को इस बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में ही छात्रों को ऐसा उचित मार्गदर्शन मिले कि वे अपनी रुचि और क्षमताओं का सही अनुमान लगा सकें। केवल मेडिकल या इंजीनियरिंग या किसी एक विषय की सीटें बढ़ाने से उसी क्षेत्र में बेरोजगारों की भीड़ भी बढ़ेगी।
वास्तविक समस्या केवल मेडिकल के क्षेत्र की नहीं है ये तो अभी यूक्रेन के घमासान से उपजी तात्कालिक समस्या है। यूक्रेन में युद्ध न हुआ होता, तो हजारों छात्र आगे भी सालों साल तक ऐसे देशों में जाते रहते। अब यूक्रेन का द्वार बंद हो गया है तो अगले साल से नए छात्र किसी और देश में जाएंगे। पर जाएंगे जरूर इसलिए वास्तविक समस्या सर्वव्यापी है। उसका उपाय भी दीर्घकालिक और व्यावहारिक होना चाहिए, नहीं तो ऐसी समस्याओं से हमें हमेशा दो-चार होना ही पड़ेगा।

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