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सारस 3 रेडियो टेलीस्कोप ने कॉस्मिक डॉन (ब्रह्माण्ड के उद्भव) से एक रेडियो तरंग सिग्नल की खोज के हालिया दावे का खंडन किया

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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय

सारस 3 रेडियो टेलीस्कोप ने कॉस्मिक डॉन (ब्रह्माण्ड के उद्भव) से एक रेडियो तरंग सिग्नल की खोज के हालिया दावे का खंडन किया

भारतीय शोधकर्ताओं ने कॉस्मिक डॉन (ब्रह्माण्ड का उद्भव) से एक रेडियो तरंग सिग्नल की खोज के हालिया दावे का निर्णायक रूप से खंडन किया है। कॉस्मिक डॉन का समय हमारे ब्रह्मांड की शुरुआती अवस्था का था, जब पहली बार तारे और आकाशगंगाएं अस्तित्व में आई थीं।

2018 में अमेरिका में एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी (एएसयू) और एमआईटी के शोधकर्ताओं की एक टीम ने ईडीजीईएस रेडियो टेलीस्कोप (दूरबीन) से डेटा का उपयोग करके प्रारंभिक ब्रह्मांड में उभरते तारों से एक सिग्नल का पता लगाया था। नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन से पूरे विश्व के खगोल वैज्ञानिकों के बीच काफी उत्‍साह पैदा किया था।

एएसयू/एमआईटी टीम ने पहले तारों के जन्म का संकेत देने वाली रेडियो तरंग की खोज का दावा किया था। इसे हार्वर्ड के तारा-खगोल वैज्ञानिक एवी लोएब ने भी दो नोबेल पुरस्कारों के योग्य माना था। हालांकि विश्व को स्वतंत्र शोधकर्ताओं से इसकी पुष्टि का इंतजार था।

रमन अनुसंधान संस्थान (आरआरआई) के शोधकर्ताओं ने स्वदेशी रूप से आविष्कार की गई और निर्मित सारस 3 रेडियो टेलीस्कोप का उपयोग करते हुए इस दावे का खंडन किया है। यह भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अधीन एक स्वायत्त संस्थान है। आरआरआई में खगोलविदों द्वारा आविष्कार की गई और निर्मित सारस 3 रेडियो टेलीस्कोप जरूरी सूक्ष्मग्राहिता तक पहुंचने वाला विश्व का पहला टेलीस्कोप है। एएसयू/एमआईटी टीम द्वारा जिस सिग्नल का पता लगाने का दावा किया गया था, उसे अनोखे और गैर-मानक भौतिकी की जरूरत थी और इसने पूरे विश्व के खगोल वैज्ञानिकों को नए सिद्धांतों का आविष्कार करने के लिए प्रेरित किया था, जो अब यह सब व्यर्थ है। रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट का यह शोध ब्रह्मांड के प्रचलित ब्रह्माण्ड संबंधी मॉडल को फिर से स्थापित करते हुए विकसित ब्रह्मांड की हमारी समझ में विश्वास को बहाल करता है। आरआरआई के इस निष्कर्ष को नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित किया गया है।

सारस: प्रयोग और विज्ञान

सारस, आरआरआई की ओर से शुरू किया गया एक आला उच्च जोखिम वाला उच्च-लाभ प्रायोगिक प्रयास है। इसका नेतृत्व प्रोफेसर एन. उदय शंकर के साथ प्रोफेसर रवि सुब्रह्मण्यन ने किया है। यह हमारे “कॉस्मिक डॉन”, जब शुरुआती ब्रह्मांड में पहली बार तारे और आकाशगंगाएं बनी थीं, के समय से अत्यंत धीमी रेडियो तरंग संकेतों का पता लगाने के लिए भारत में एक सटीक रेडियो टेलीस्कोप को डिजाइन, निर्माण और तैनात करने का एक साहसी प्रयास था।

आरआरआई में सीएमबी डिस्टॉर्शन (विरूपीकरण) प्रयोगशाला ने अत्याधुनिक रेडियो दूरबीनों के विकास की जिम्मेदारी उठाई है, जिन्हें ब्रह्माण्ड संबंधी धीमे सिग्नल, विशेष रूप से ब्रह्मांड की गहराई से उत्पन्न होने वाले 21-सेंटीमीटर तरंग दैर्ध्य (1.4 गीगाहर्ट्ज़) पर हाइड्रोजन परमाणुओं द्वारा उत्सर्जित विकिरण, का पता लगाने के लिए डिजाइन किया गया है। कॉस्मिक डॉन से सिग्नल के पृथ्वी पर आने की उम्मीद है जो तरंगदैर्ध्य में कई मीटर तक फैला हुआ है और रेडियो फ्रीक्वेंसी बैंड 50-200 मेगाहर्ट्ज में स्थित ब्रह्मांड के विस्तार से आवृत्ति में कमी आई है।

ब्रह्मांड की इतनी शुरुआती अवधि से एक धीमे सिग्नल का पता लगाना काफी मुश्किल है। खगोलीय सिग्नल असाधारण रूप से मंद हैं – ये आकाश रेडियो तरंगों में दबे हुए हैं, जो हमारी अपनी आकाशगंगा यानी मिल्की वे में गैस से हमारे पास आती हैं, जो 10 लाख गुना चमकदार हैं।

इसके अलावा यह ब्रह्मांडीय सिग्नल कई स्थलीय संचार उपकरणों और टीवी व एफएम रेडियो स्टेशनों द्वारा उपयोग किए जाने वाले रेडियो तरंगदैर्ध्य बैंड में मौजूद है, जो एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल सिग्नल का पता लगाना बेहद मुश्किल बना देता है।

हालांकि, आरआरआई के वैज्ञानिक और इंजीनियर इस चुनौती के लिए तैयार हो गए और कॉस्मिक डॉन से प्राप्त संकेतों को समझने के लिए सारस रेडियो टेलीस्कोप को डिजाइन कर इसमें शोधन किया। वर्तमान में यह अनुसंधान इस क्षेत्र में विश्व के सबसे सूक्ष्मग्राही उपकरणों में से एक है।

आरआरआई प्रयोगशालाओं में डिजाइन, निर्माण, प्रमाणित प्रदर्शन के बाद सारस रेडियो टेलीस्कोप को आरआरआई टीम ने प्रोफेसर सुब्रह्मण्यन के नेतृत्व में भारत के पृथक (आइसोलेटेड) स्थानों पर तैनात किया गया था, जिससे न्यूनतम स्थलीय मानव निर्मित रेडियो हस्तक्षेप के साथ आकाशीय रेडियो तरंगों को एकत्र किया जा सके। टेलिस्कोप (दूरबीन) को सबसे पहले अनंतपुर जिले के गांव टिम्बकटू कलेक्टिव में तैनात किया गया था। इसके बाद की तैनाती ट्रांस-हिमालयी लद्दाख के जंगल में हुई थी, जहां भारतीय ताराभौतिकी संस्थान द्वारा संचालित भारतीय खगोलीय वेधशाला ने लॉजिस्टिक्स की सहायता की थी। इन खोजों ने सूक्ष्मग्राही डेटा प्राप्त किया, जिसने सैद्धांतिक मॉडल के परिणामों को निर्णायक रूप से खारिज किया, जिस पर अब तक विश्वास किया जा रहा था और कॉस्मिक डॉन को लेकर हमारी समझ में काफी सुधार किया

जल पर नवीनतम अनूठी तैनाती

हाल ही में आरआरआई खगोल वैज्ञानिकों ने रेडियो टेलीस्कोप को जल के ऊपर एक बेड़े पर तैराने का विचार दिया। यह एक बुद्धिमत्तापूर्ण डिजाइन था, जिसने दूरबीन के प्रदर्शन में काफी बढ़ोतरी की और विश्व में कभी भी इसकी कल्पना नहीं की गई थी। यह एंटीना के नीचे हाई डिइलेक्ट्रिक स्थिरांक का एक समरूप माध्यम प्रदान करने में सहायता करता है, जिससे सूक्ष्मग्राहिता में सुधार होता है और रेडियो दूरबीनों के नीचे जमीन से उत्सर्जित भ्रामक रेडियो तरंगों को कम किया जाता है। 2020 में रेडियो टेलीस्कोप को उत्तरी कर्नाटक की झीलों में दांडीगनहल्ली झील और शरवती बैकवाटर पर लगाया गया था। सामाजिक कार्यकर्ता और पद्म श्री पुरस्कार विजेता अनीता रेड्डी के अलग-अलग ग्रामीण डीआरआईके विवेक परिसर में रहते हुए आआरई के खगोलविदों ने अब तक का सबसे सटीक माप प्राप्त किया है। इस परिनियोजन का केंद्रित लक्ष्य एएसयू/एमआईटी ईडीजीईएस प्रयोग द्वारा 21-सेंटीमीटर सिग्नल के दावा किए गए डिटेक्शन का फिर से सत्यापन करना था।

सैद्धांतिक भविष्यवाणियों की तुलना में कॉस्मिक डॉन से रिपोर्ट किए गए सिग्नल की मजबूती वास्तव में अनोखी थी। यह देखते हुए कि इनका माप कठिन था, ऐसे दावे की फिर से पुष्टि एक तत्काल प्राथमिकता बन गई थी, क्योंकि उपकरण मापांकन में गलतियों के परिणामस्वरूप भ्रामक कटौती हो सकती है।

निष्कर्ष

आरआरआई के एक शोध वैज्ञानिक डॉ. सौरभ सिंह के नेतृत्व में एक ठोस सांख्यिकीय विश्लेषण के बाद सारस 3 को ईडीजीईएस के प्रयोग के माध्यम से दावा किए गए सिग्नल का कोई प्रमाण नहीं मिला है। मापन की अनिश्चितताओं के सावधानीपूर्वक मूल्यांकन के बाद सिग्नल की उपस्थिति को निर्णायक रूप से खारिज किया जाता है।

इसे देखते हुए इस निष्कर्ष का तात्पर्य यह निकलता है कि ईडीजीईएस की खोज का मापन गलत हो सकता है और इसमें अंतरिक्ष व समय की गहराई से कोई सिग्नल नहीं था। वास्तव में सारस 3 जरूरी सूक्ष्मग्राहिता तक पहुंचने और सिग्नल का पता लगाने के दावे को क्रॉस-सत्यापित करने वाला पहला प्रयोग था।

हालांकि खगोल वैज्ञानिकों को अब तक यह नहीं पता है कि वास्तविक सिग्नल कैसा दिखता है। एएसयू/एमआईटी के इस दावे को खारिज करने के बाद सारस प्रयोग कॉस्मिक डॉन की वास्तविक प्रकृति की खोज के लिए तैयार है। आरआरआई में सारस 3 टीम भारत में सुदूर झीलों पर और अधिक अवलोकन की योजना बना रही है। इस तरह की खोज के माध्यम से यह टीम कॉस्मिक डॉन से 21-सेंटीमीटर सिग्नल का पता लगाने और हमारे ब्रह्मांड के इतिहास में इस अंतिम बाकी अंतर को सामने ला पाएगी।

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