धीरेंद्र शास्त्री बाेले- बिना सिंदूर, मंगलसूत्र वाली औरत खाली प्लॉट:धन्य हैं बाबा; इस देश में गइया माता और मां-बहन प्लॉट
प्रकृति ने जब स्त्री और पुरुष की रचना की तो दोनों को एक-दूसरे से अलहदा बनाया था। एक को कम और दूसरे को ज्यादा नहीं बनाया था। स्त्री को नए मनुष्य को अपने भीतर धारण कर सकने की सलाहियत दी तो पुरुष को मांसपेशियों में बल दिया। दोनों को अपनी-अपनी नेमतें बख्शीं। अलग-अलग शक्तियां दीं। और ऐसी शक्ति कि एक की शक्ति के बगैर दूसरे की शक्ति अधूरी है। दोनों को एक-दूसरे का पूरक बनाया। मनुष्य बनाया और मनुष्यों के बीच अपार संतुलन।
लेकिन ये तो प्रकृति की बनाई दुनिया थी। मांसपेशियों की ताकत के बल पर जब पुरुष ने सत्ता हासिल कर ली तो जैसे उसने जमीन पर कब्जा किया, राज्यों पर कब्जा किया, महलों, हीरे-जवाहरातों पर कब्जा किया, गाय-घोड़े-हाथियों पर कब्जा किया, ठीक उसी तरह उसने स्त्री पर भी कब्जा कर लिया। जैसे संसार की अचल संपदा पर पुरुष का मालिकाना हक हुआ, वैसे ही औरत पर भी उसका मालिकाना हक हो गया। अब पुरुष देवता हो गया और स्त्री उसकी दासी।
मर्द मालिक और औरत उसकी जमीन। यही कह रहे थे न बाबा धीरेंद्र शास्त्री, जब उन्होंने बिना सिंदूर, मंगलसूत्र वाली औरत को खाली प्लॉट कहा था। प्रवचन सुनाते हुए बोले कि जब कोई औरत सुहाग की निशानियां नहीं धारण करती, माथे पर सिंदूर नहीं लगाती, गले में मंगलसूत्र नहीं पहनती तो वो खाली प्लॉट की तरह होती है। खाली प्लॉट मतलब जिसका कोई मालिक नहीं। कचहरी के कागज पर जिसके नाम किसी का पट्टा नहीं।
औरत जमीन है। और जमीन का क्या है। उस पर हल चलाओ, उसे रौंदो, कुचलो, आग लगा दो, उस पर जंगल उगा दो, उसे उजाड़ दो, बंजर कर दो। जमीन थोड़े न शिकायत करने जाती है कि उसके साथ सही व्यवहार नहीं हो रहा है। वैसी ही ये औरतें हैं। इनके साथ मालिक जो चाहे करें, इनके मुंह से शब्द नहीं फूटना चाहिए।
औरतें प्लॉट जो ठहरीं।
मेरी दादी कहा करती थीं कि लेखपाल शुक्ला की बीवी बहुत पिटती है क्योंकि उसकी जबान बहुत तेज चलती है। उन्होंने अपनी बेटियों, बहुओं, पोतियों, नातिनों सबको यह शिक्षा दी कि ज्यादा बोलने वाली लड़कियां अपना घर बर्बाद कर देती हैं।
लड़कियां चुप ही भली क्यों लगती हैं, इस बात को समझाने के लिए उनके पास एक मेटाफर भी था। एक भगोने में पानी डालकर कहतीं, लड़कियों को पानी की तरह होना चाहिए। जिस बर्तन में डाल दो, बस उसी का आकार ले ले।
इस प्लॉट और बर्तन का आकार ले लेने वाली पानी जैसी औरत में कोई फर्क नहीं है। दोनों में एक ही चीज कॉमन है। उनके मुंह में जबान नहीं है और उनका मालिक सिर्फ एक है- मर्द। मर्द जैसा चाहे, जैसा कहे, औरत को बिल्कुल वैसा ही हो जाना चाहिए।
वैसे ही इस प्लॉट वाली थ्योरी में एक बात बहुत कमाल की है। आदमी को देखकर कोई नहीं बता सकता कि उसके प्लॉट की रजिस्ट्री हुई है या नहीं। आदमी तो शादी के पहले जैसा दिखता है, शादी के बाद भी वैसा ही दिखता रहता है। उसके बाहरी रूप-रंग-डिजाइन में कोई फर्क नहीं आता।
मर्द शादी के बाद भी खुद को कुंवारा बताकर तमाम लड़कियों को घुमाता रह सकता है। दूसरी-तीसरी शादी भी कर सकता है। अफेयर कर सकता है, झूठ बोल सकता है। कुल मिलाकर दुनिया का कोई ऐसा धत्कर्म नहीं है, जिसे करने का डायरेक्ट लाइसेंस उसके पास न हो, क्योंकि उसकी मांग में तो है नहीं प्लॉट रजिस्ट्री की निशानी। फिर उसे देखकर कोई कैसे ये पता लगाए कि उस प्लॉट के मालिकाना हक की क्या स्थिति है।
मर्द का कोई मालिक नहीं है। मर्द जमीन से लेकर औरत तक, हरेक चीज का मालिक है। कितनी अजीब सी बात है ये। हम ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां गइया माता है और मां-बहन प्लॉट हैं। और इस गलीजता पर किसी को कोई ऐतराज भी नहीं है। उस दिन बाबा के आश्रम में बैठी औरतें बाबा के इस वाक्य पर हंस रही थीं। मर्दों के चेहरे पर तो खैर अश्लील मुस्कुराहट थी ही, लेकिन औरतें भी इस बात से आहत महसूस नहीं दिखाई दीं।
औरतों ने भी ये मान ही लिया है कि वो मर्दों के लिए प्लॉट हैं। पतियों की दासी हैं। पुरुषों की गुलाम। उन्होंने मान लिया है कि वह मनुष्य नहीं हैं। इसलिए उन्हें किसी हक, अधिकार, बराबरी की कोई जरूरत नहीं है। यह गुलामी इतनी गहरी है कि गुलाम हो चुके मनुष्य ने अपनी स्वेच्छा से मनुष्य होने का अधिकार खो दिया।
और कई बार ऐसा होता भी है कि प्लॉट हिलने लगता है। भूकंप का नाम तो सुना ही होगा। मुंह में जबान रखने वाली और मनुष्य होने का अधिकार मांगने वाली औरतें तो भूकंप ही हैं। जब आता है तो अट्टालिकाएं जमीन पर लोटने लगती हैं। इसलिए औरतों को न बोलने की शिक्षा दी जाती है क्योंकि उनका बोलना भूकंप के समान है। जब वो बोलती हैं तो रिश्ते टूट जाते हैं। गुलामी पर टिकी हुई शादी की संस्था चरमराने लगती है। मर्दों के पांवों के नीचे से जमीन खिसक जाती है। मूंछों पर ताव देने वालों को सांप सूंघ जाता है।
औरतों के बोलने से आए भूकंप से जब घर गिरते हैं तो उसमें सबसे नीचे पितृसत्ता ही जमींदोज मिलती है। मालिक लोग अपना महल ढहता देख क्रोध से फुंफकारने लगते हैं। औरतों पर चरित्रहीन होने और घर तोड़ने की तोहमत देने लगते हैं। दुनिया के नरक में जाने की भविष्यवाणियां करने लगते हैं।
लेकिन पता है न, दुनिया के जिस-जिस हिस्से में जब-जब औरतों ने अपनी जबान खोली है, मनुष्य होने का पीछे छूट गया अधिकार वापस मांगा है, उन्होंने इस दुनिया को और बेहतर बनाया है। जिस सड़क पर औरतें चलती हैं, वो सड़क ज्यादा सुरक्षित और मानवीय होती है। वो जिस ट्रेन-बस में सुर करती हैं, वहां होना ज्यादा आसान हो जाता है। दफ्तर में औरतों की मौजूदगी के मायने समझने हों तो छह महीने किसी ऐसी जगह काम करके देख लीजिए, जहां सिर्फ मर्द हों, एक भी औरत नहीं। आपको खुद ब खुद समझ में आ जाएगा कि स्त्री की आसपास मौजूदगी ही कितनी इंसानियत से भरी होती है।
दुनिया को बेहतर बनाने की सारी लड़ाइयां औरतें अकेले ही लड़ रही हैं, लेकिन बेहतर हो रही दुनिया में वो मर्द भी रहते हैं, जो जानते ही नहीं हैं कि उनकी क्रूरता, अहंकार और मर्दानगी ने खुद उनसे कितनी सारी मनुष्यता छीन ली है। जहां-जहां भूकंप से पुरानी इमारतें गिरी हैं, वहां-वहां एक नई सभ्यता ने जन्म लिया है, जिसकी सृजनहार ये औरतें हैं।
इसलिए औरत के बोलने से अगली बार आपको भूकंप जैसा महसूस हो तो याद रखिएगा कि उसका ये बोलना एक नई बेहतर जमीन बनाने की शुरुआत है। औरत कोई जमीन नहीं है, लेकिन उसके पैरों की नीचे की जमीन बहुत ठोस है, जिस पर अंगद की तरह पांव टिकाकर खड़ी है औरत।
औरत जो प्लॉट नहीं है।
औरत जो किसी की दासी नहीं है।
औरत जिसका कोई मालिक नहीं है।
औरत जो आजाद है।
औरत जो मनुष्य है।
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