दिवस विशेष आलेख: डॉ. मनीषा शर्मा
संपादक: शिक्षा कौस्तुभ शोध पत्रिका जयपुर
ज्येष्ठमास के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘निर्जला एकादशी’ कहलाती है। अन्य महीनों की एकादशी को फलाहार किया जाता है, परंतु इस एकादशी को फल तो क्या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता। यह एकादशी ग्रीष्म ऋतु में बड़े कष्ट और तपस्या से की जाती है। अतः अन्य एकादशियों से इसका महत्त्व सर्वोपरि है। इस एकादशी के करने से आयु और आरोग्य की वृद्धि तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुसार अधिमाससहित एक वर्ष की छब्बीसों एकादशियां न की जा सकें तो केवल निर्जला एकादशी का ही व्रत कर लेने से पूरा फल प्राप्त हो जाता है-
निर्जला-व्रत करनेवाले को अपवित्र अवस्था में आचमन के सिवा बिन्दुमात्र भी जल ग्रहण नहीं करना चाहिये। यदि किसी प्रकार जल उपयोग में ले लिया जाय तो व्रत भंग हो जाता है।
निर्जला एकादशी को सम्पूर्ण दिन-रात निर्जल-व्रत रहकर द्वादशी को प्रातः स्नान करना चाहिये तथा सामर्थ्य के अनुसार सुवर्ण और जलयुक्त कलश का दान करना चाहिये। इसके अनन्तर व्रत का पारायण कर प्रसाद ग्रहण करना चाहिये।
कथा – पाण्डवों में भीमसेन शारीरिक शक्ति में सबसे बढ़-चढ़कर थे, उनके उदर में वृक नाम की अग्नि थी इसीलिये उन्हें वृकोदर भी कहा जाता है। वे जन्मजात
शक्तिशाली तो थे ही, नागलोक में जाकर वहाँ के दस कुण्डों का रस पी लेने से उनमें दस हजार हाथियों के समान शक्ति हो गयी थी। इस रसपान के प्रभाव से उनकी भोजन पचाने की क्षमता और भूख भी बढ़ गयी थी। सभी पाण्डव तथा द्रौपदी एकादशियों का व्रत करते थे, परंतु भीम के लिये एकादशीव्रत दुष्कर थे। अतः व्यासजी ने उनसे ज्येष्ठमास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत निर्जल रहते हुए करने को कहा तथा बताया कि इसके प्रभाव से तुम्हें वर्षभर की एकादशियों के बराबर फल प्राप्त होगा। व्यासजी के आदेशानुसार भीमसेन ने इस एकादशी का व्रत किया। इसलिये यह एकादशी ‘भीमसेनी एकादशी’ के नाम से भी जानी जाती है।
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