बागबांँ की शान ज़ख्मों को मिटाती बेटियांँ,
आज सूने बाग को भी खिलाती बेटियांँ।
ये नहीं कमज़ोर खुलने पंख इनके दो ज़रा,
अब कटे है पंख तो खुद ही लगातीं बेटियांँ।
खिलखिलाये बाग में ये बोझ होती है नहीं,
रौशनी है ये घरों की जगमगाती बेटियांँ।
आज जीने दो इन्हें भी हौंसला दे दो ज़रा,
बाद में बनती सहारा काम आती बेटियांँ।
ख्वाब इनके भी सजे मत रोकना इनको कभी,
खोलतीं है राह जन्नत की बनाती बेटियांँ।
मान इनका आज करना है जरूरी सीखना,
है यही आधार दुनिया को चलाती बेटियांँ।
खूब उड़ने दो इन्हें अब खोल इनके बेड़ियाँ,
ये ‘अना’ रौनक घरों की खिलखिलाती बेटियांँ।
स्वरचित अनामिका मिश्रा
झारखंड जमशेदपुर
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