भारतीय सेना में लगातार तीसरी बार कोई गोरखा भर्ती नहीं:200 सालों की कहानी और एक्सपर्ट्स से जानिए ये कितना महंगा पड़ेगा
‘अगर कोई व्यक्ति कहता है कि उसे मौत से डर नहीं लगता, तो वह झूठ बोल रहा है या फिर गोरखा है।’
यह बयान भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल जनरल मानेक शॉ का है। मौत का दूसरा नाम गोरखा रेजिमेंट। ‘जय महाकाली, आयो गोरखाली’ के नारे के साथ दुश्मनों पर टूट पड़ने वाली भारतीय सेना की सबसे खूंखार रेजिमेंट। अब ये रेजिमेंट जवानों की कमी से जूझ रही है।
अग्निपथ स्कीम आने के बाद लगातार तीसरी भर्ती में नेपाली गोरखा भारतीय सेना में शामिल होने नहीं आए। और दूसरी तरफ चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी PLA में उनकी भर्ती करने की कोशिश कर रही है।
भारतीय सेना में गोरखाओं का इतिहास, फिलहाल भर्ती न होने की वजह, इससे होने वाले नुकसान की पूरी कहानी…
अंग्रेजों की सेना पर भारी पड़े थे महज 600 गोरखा
साल 1814 की बात है। तारीख थी 31 अक्टूबर। जगह थी देहरादून शहर से 5 किलोमीटर दूर सहस्रधारा रोड पर नालापानी के पास स्थित खलंगा किला। अंग्रेजों के 3500 सैनिकों ने गोरखाओं के इसी किले पर हमला कर दिया।
एक ओर भारी भरकम अंग्रेजों की फौज थी, जिसके पास तोप और गोला बारूद जैसे आधुनिक हथियार थे। वहीं सामने थे गोरखा, जिनके हाथों में खुखरी, धनुष-बाण और पत्थरों से बने स्थानीय हथियार थे। सिर्फ 600 गोरखा सैनिकों ने नालापानी के पहाड़ पर अंग्रेज सेना के हमले को तीन बार नाकाम किया।
इस युद्ध में मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो गिलेस्पी सहित ब्रिटेन के 800 सैनिक मारे गए।
जब अंग्रेज गोरखाओं को हराने में नाकाम रहे तो उन्होंने खलंगा के किले की पानी की सप्लाई रोक दी। पानी बंद होने से लोगों की परेशानी बढ़ने लगी। करीब डेढ़ साल युद्ध चलता रहा। आखिरकार सुगौली की संधि हुई और युद्ध थमा।
इसके बाद नेपाली सेना के कमांडर बलभद्र कुंवर ने खुद अपनी इच्छा से नालापानी छोड़ दिया और अपने सैनिकों के साथ वहां से चले गए। नेपाली सेना के जाते ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने वहां दो स्मारक बनाए। एक पर ब्रिटिश आर्मी के जनरल गिलेस्पी का नाम लिखा था और दूसरे पर बलभद्र कुंवर का, जिन्हें अंग्रेजों ने ‘वीर दुश्मन’ कहकर संबोधित किया।
पूरे युद्ध में ब्रिटिश जनरल डेविड ओक्टलोनी गोरखा सैनिकों की बहादुरी से प्रभावित हुए। उन्होंने सोचा कि इतने बहादुर सैनिकों को क्यों न ब्रिटिश सेना में भर्ती किया जाए? नेपाल से समझौते के बाद 24 अप्रैल 1815 को नई रेजिमेंट बनाई गई जिसमें गोरखाओं को भर्ती किया गया। इसके बाद से गोरखा ब्रिटिश सेना में भर्ती होते रहे।
चीन और पाकिस्तान से जंग में बड़े काम आए गोरखा
साल 1947 में भारत ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हुआ। आजादी के वक्त तक ब्रिटिश सेना में 10 गोरखा रेजिमेंट थीं। अंग्रेजों ने फैसला किया कि 10 में 6 रेजिमेंट भारत को दे दी जाएंगी और बाकी 4 अंग्रेज अपने साथ ले जाएंगे। उन 4 रेजिमेंट के गोरखाओं ने अंग्रेजों के साथ जाने से इनकार कर दिया।
भारत ने 11वीं रेजिमेंट बनाई। 1950 में भारत गणराज्य बन गया, तब इसका नाम गोरखा राइफल्स रखा गया। भारत, नेपाल और अंग्रेजों के बीच एक समझौता हुआ जिसके मुताबिक भारत की सेना में गोरखाओं की भर्ती होती रहेगी। माना जाता है कि आज जो टोपी गोरखाओं की निशानी है वह बलभद्र कुंवर ने ही सबसे पहले पहनी थी।
भारत के लिए गोरखा जवानों ने पाकिस्तान और चीन के खिलाफ हुई सभी जंग में शत्रु को अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया। गोरखा रेजिमेंट को इन युद्धों में कई परम वीर चक्र और महावीर चक्र मिले। गोरखा सैनिकों ने भारतीय शांति सेना के रूप में भी विभिन्न देशों में अपनी बहादुरी का परिचय दिया। इस रेजिमेंट का आदर्श वाक्य है ‘कायर हुनु भन्दा मर्नु राम्रो’ यानी ‘कायर होने से मरना बेहतर है।’
अग्निपथ स्कीम आने के बाद नेपाल ने भर्ती की इजाजत नहीं दी
भारत सरकार ने 14 जून 2022 को तीनों सेनाओं के लिए अग्निपथ स्कीम लॉन्च की। इसके बाद से ही नेपाली गोरखाओं की भर्ती को लेकर भारत ओर नेपाल के बीच मतभेद हैं।
यह योजना जवानों को सेना, नौसेना और वायुसेना में चार साल की अवधि के लिए भर्ती करती है। इसके बाद अधिकांश को बिना ग्रेच्युटी और पेंशन लाभ के अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी जाती है।
दरअसल, आजादी के बाद से ही नेपाल, भारत और ब्रिटेन के बीच एक त्रिपक्षीय समझौते के तहत भारतीय सेना नेपाली गोरखाओं की भर्ती करती आ रही है।
नेपाल अग्निपथ स्कीम आने के बाद नेपाली गोरखाओं पर उसके असर को लेकर और अधिक स्पष्टता चाह रहा है।
पिछले साल जब अग्निवीरों की भर्ती हुई, तो भारतीय सेना ने नेपाल में भी गोरखाओं के लिए जुलाई 2022 में भर्ती रैली के आयोजन की तारीख तय की। हालांकि, नेपाल सरकार की इजाजत न मिलने की वजह से भर्ती रैली नहीं हो पाई। उस वक्त नेपाल में सियासी उथल-पुथल भी मची थी। वहां के प्रशासन ने कहा कि नेपाली नौजवान अग्निपथ स्कीम में आएंगे या नहीं, इसका फैसला नई सरकार लेगी।
इसके बाद भारत ने नवंबर 2022 के चुनावों से पहले नेपाल सरकार के अनुरोध पर 24 अगस्त को भर्ती रोक दी थी।
नेपाल में पुष्पकमल दहल प्रचंड की अगुआई में नई सरकार बनी। हालांकि, उन्होंने भी कुछ स्पष्ट नहीं किया। यानी नेपाल के गोरखा भारतीय सेना में भर्ती होंगे या नहीं। फिलहाल तो नेपाल में इस मामले को लेकर कोई चर्चा भी नहीं हो रही।
अब एक बार फिर से मामला अनसुलझा रहने की वजह से नेपाली गोरखाओं की भर्ती नहीं की गई है।
काठमांडू में सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के डायरेक्टर निश्चल नाथ पांडे ने न्यूज वेबसाइट फॉरेन पॉलिसी को बताया कि चिंता की बात यह है कि ये युवा लड़के कुछ सालों में वापस आ जाएंगे। उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि आगे उन्हें क्या करना है।
वे शराब, नशीली दवाओं का सेवन कर सकते हैं और यहां तक कि किसी प्रकार के विद्रोह में भी शामिल हो सकते हैं क्योंकि उन्हें युद्ध की ट्रेनिंग मिली हुई है।
भारत से खाली हुए स्पेस को चीन भुनाने की तैयारी में
कई मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि चीन भी नेपाली गोरखाओं को अपनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी PLA में भर्ती करना चाहता है। न्यूज वेबसाइट द वायर के अनुसार, कई दशकों से चीन ऐसा करने का प्रयास कर रहा है। हालांकि, नेपाल ने इसे अस्वीकार कर दिया है।
लेकिन अग्निपथ स्कीम ने चीन को एक रास्ता प्रदान किया है। डिफेंस वेबसाइट यूरेशियन टाइम्स लिखता है कि चीन और भारत के बीच चल रहे विवाद और नेपाल से चीन की नजदीकी के चलते 200 सालों की वीरता के इतिहास वाले गोरखा सैनिकों के लिए PLA में जाने का रास्ता बन रहा है।
यूरेशियन टाइम्स ने मई के पहले हफ्ते में एक रिपोर्ट में दावा किया था कि गोरखाओं को PLA में शामिल होने की अनुमति देने के लिए चीन सक्रिय रूप से नेपाली कम्युनिस्ट सरकार की मंजूरी मांग सकता है।
टेरिटोरियल आर्मी के पूर्व प्रमुख और मेजर जनरल एके सिवाच ने चेतावनी दी है कि चीन पलटवार करने के लिए तैयार है। उन्होंने कहा कि गोरखा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लड़ाकों में से हैं और यदि भारत उन्हें नहीं लेता है, तो कोई और ले लेगा।
यही वजह है कि गोरखा ब्रिटिश सेना और सिंगापुर पुलिस फोर्स में भी कार्यरत हैं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीन, जिसके पास सैनिक सेना है, ऐसी किसी घटना का इंतजार कर रहा है। सिवाच ने कहा कि भारतीय सेना पूर्वी लद्दाख में चीन को रोकने में सक्षम थी क्योंकि वह चीन के सैनिकों की तुलना में अच्छी तरह से ट्रेंड है।
गोरखा चीन की सेना में गए तो LAC पर भारी कीमत चुकानी होगी
तीसरी गोरखा राइफल्स बटालियन की कमान संभाल चुके रिटायर कर्नल रज्जाक आदिल कहते हैं कि वर्तमान में एक बैकलॉग है जिसने इसे स्टेबल रखने में मदद की है। हालांकि, यह भविष्य के लिए सही नहीं हो सकता।
उन्होंने आगे कहा कि जैसा कि मैं देख रहा हूं, नेपाल सरकार इस बात को लेकर चिंतित है कि अधिकांश सैनिक भारतीय सेना छोड़ देंगे और बेरोजगार हो जाएंगे। इनमें से केवल 25% को ही चार साल बाद फिर से सेना में शामिल किया जाएगा। हालांकि, यह भारत में भी एक चिंता का विषय है, मुझे लगता है कि यह कम से कम कुछ न होने से तो बेहतर है।
वहीं गोरखा रेजिमेंट के अनुभवी रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान कहते हैं कि प्रकृति वैक्यूम यानी खालीपन से नफरत करती है। ऐसे में यदि भारत नेपाल में स्पेस देता है, तो जाहिर तौर पर चीन जैसा कोई देश इसमें कदम रखने की कोशिश करेगा।
उन्होंने कहा कि भारत को वह स्पेस नहीं देना चाहिए। भारत और नेपाल दो देश हैं, लेकिन लोग एक हैं। हमें एक-दूसरे की रक्षा करने की शपथ लेनी चाहिए। उन्होंने चेतावनी दी कि यह आसान नहीं होगा। फर्नीचर से लेकर ताले और मोबाइल फोन तक, सब कुछ आजकल चीन से आता है।
उन्होंने कहा कि यदि हम अपने व्यापारियों को चीन से सामान खरीदने से नहीं रोक सकते, तो हम गोरखाओं को चीन के प्रपोजल का लाभ उठाने से कैसे रोक सकते हैं? अगर उन्हें ज्यादा पैसा मिल रहा है तो हम उन्हें क्यों रोकें? और हम कैसे कर सकते हैं?
उन्होंने कहा कि अगर नेपाल ने पक्ष बदला तो भारत को हिमालयी राष्ट्र के साथ अपनी 1,770 किमी लंबी LAC पर बाड़ लगाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जिसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
हालांकि कुछ लोगों का दावा है कि ऐसी आशंकाएं निराधार हैं। काठमांडू पोस्ट ने डेनमार्क में पूर्व नेपाली राजदूत विजय कांत कर्ण के हवाले से कहा है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में नेपाल चीन सहित किसी भी देश के साथ नई गोरखा भर्ती संधि पर हस्ताक्षर नहीं कर सकता है।
विजय कांत कहते हैं कि इस तरह के समझौते के लिए संसद के दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होगी जो असंभव है। भारतीय सेना में गोरखा भर्ती के लिए अग्निपथ स्कीम के संबंध में नेपाल और भारत को बातचीत के जरिए इसका समाधान निकालना चाहिए। ऐसा करना दोनों देशों के हित में है।
हालांकि पूर्व इंडियन आर्मी कमांडर हरचरणजीत सिंह पनाग ने फॉरेन पॉलिसी से बातचीत में कहा कि नई दिल्ली ने अपने फैसले में गलती की है।
उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर कोई बहस नहीं होनी चाहिए थी। भारत को अपवाद बनाना चाहिए था। अगर भारत वास्तव में एक महान शक्ति की तरह सोचता है, तो उसे नेपाल के साथ अपने विशेष संबंध बनाए रखने चाहिए।
पिछले महीने एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया था कि नागरिकता के लालच में नेपाली गोरखा रूसी सेना में शामिल हो रहे हैं। वहीं कई अन्य फ्रांसीसी सेना में शामिल हो गए हैं।
न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट ने अपने एक आर्टिकल में लिखा- यह सब अग्निवीर की अनाकर्षक शर्तों की वजह से हैं, जो भारतीय गोरखा ब्रिगेड को नुकसान पहुंचा रही है। डोभाल जो भारत की नेपाल नीति में दखल रखते हैं, इस स्थिति को सुधार सकते हैं। शौकीन चौहान नेपाल के गोरखाओं के लिए विशेष व्यवस्था करने का भी सुझाव देते हैं।
चौहान ने न्यूज वेबसाइट द वीक को बताया कि हर साल भारतीय सेना में शामिल होने वाले लगभग 1000 गोरखा युवाओं के लिए एक विशेष व्यवस्था की जा सकती है। ब्रिटिश सेना में सैनिक 4, 7, 8, 11, 14 और 20 साल की सेवा के बाद रिटायर हो जाते हैं। हालांकि, उनके पास उन गोरखा सैनिकों के लिए विशेष व्यवस्था है जो 20 साल बाद ही रिटायर हो जाते हैं।
हर साल ब्रिटिश सेना 100 गोरखा सैनिकों को भर्ती करती है। हालांकि, नेपाल में ब्रिटेन के प्रति जो सद्भावना और जुड़ाव पैदा होता है, उसे इस फैसले से देखा जा सकता है। नेपाली गोरखा जब 65 साल का हो जाता है तो उसे पेंशन मिलती है। रिटायर होने के बाद उसे UK में काम करने की अनुमति दी जाती है। चौहान कहते हैं कि ऐसे में भारत भारी रणनीतिक लाभ के बदले में क्या एक हजार सैनिकों को रोजगार नहीं दे सकता?
चौहान कहते हैं कि इसमें क्या शामिल है? कुछ नौकरियां? उन्होंने कहा कि ऐसा भारत भी कर सकता है। 13 लाख मजबूत सेना वाले देश के लिए हर साल एक हजार सैनिक क्या हैं? खासकर तब जब इससे भारी रणनीतिक लाभ और सद्भावना पाने की संभावना हो।
वहीं पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक ने न्यूज वेबसाइट फाइनेंशियल एक्सप्रेस को बताया कि भारत एक बड़ा देश है। हमारा देश घोषणा के अनुरूप इस योजना पर आगे बढ़ा और भारत के लोगों ने इसे स्वीकार किया है और वे इसके साथ आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में यह नेपाली सरकार के लिए सिर्फ एक बहाना बन जाता है। हम इन नियमों को केवल नेपाली गोरखाओं के लिए नहीं बदलने जा रहे हैं।
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