अफगानिस्तान में हिंदू आबादी खत्म:सिख सिर्फ 50 बचे, मूर्तियां तहखाने में छुपाई गईं; काबुल के सबसे बड़े मंदिर-गुरुद्वारे से आंखों-देखी
काबुल
काबुल के करते परवान गुरुद्वारे के सेवक मनमुन सिंह निशान साहिब फहराते हुए और आसामाई मंदिर में रखी सदियों पुरानी शालिग्राम की मूर्ति।
अफगानिस्तान में तालिबान का राज लौटे दो बरस से ज्यादा हो गए हैं। इस पर रिपोर्ट करने के लिए मुझे काबुल जाना था। वीजा के लिए जब दिल्ली में अफगानिस्तान दूतावास पहुंची, तो वीजा ऑफिसर ने मुझसे लिखित बयान लिया कि मैं अपने रिस्क पर वहां जा रही हूं।
काबुल के लिए उड़ान भरने से कुछ ही देर पहले तालिबान ने मेल के जरिए मुझसे रिपोर्टिंग प्लान मांगा। साथ ही हिदायत भी दी कि जब तक मंजूरी नहीं मिले, मत आइएगा।
नई दिल्ली एयरपोर्ट के वेटिंग हॉल में बैठी मैं मन ही मन सोच रही थी कि मंजूरी नहीं मिली तो क्या करूंगी… इसी बीच एक बुजुर्ग सिख मेरी तरफ बढ़े और कहा, ‘बेटा चुन्नी तो डाल लेते, पता है ना कहां जा रहे हो?’ मैंने मुस्कुराकर जवाब दिया- हां, मेरे बैग में चुन्नी है। इसके बाद हमारे बीच बातचीत शुरू हो गई।
वे बोले, ‘मैं भी काबुल जा रहा हूं। वहां दवा का कारोबार है। बड़ा घर और जमीन भी है। हालांकि काम मुस्लिम पार्टनर्स को दे दिया है। उसी का हिसाब करना है।’
मैंने पूछा- काबुल का घर-बार छोड़कर दिल्ली क्यों रहते हैं? जवाब मिला- ‘मौका मिले तो काबुल के गुरुद्वारे-मंदिर में जाना, वहां सिख और हिंदू किस हाल में हैं और वे क्यों अफगानिस्तान छोड़कर भाग रहे, पता चल जाएगा।’
करीब दो घंटे बाद मैं काबुल पहुंच गई। एयरपोर्ट पर तालिबान के अधिकारियों ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘आपके हर मूवमेंट पर हमारी नजर है। जब तक सरकार से मंजूरी नहीं मिले, कुछ भी रिपोर्ट मत करिएगा।’
काबुल एयरपोर्ट पहुंचने के बाद रिपोर्टर ने छुपते-छुपाते कुछ फोटोज और वीडियो लिए। यहां दुनिया के दूसरे एयरपोर्ट्स की तरह चमक-धमक नहीं थी। कुछेक लोग ही दिख रहे थे।
मैं रिपोर्टिंग के लिए चार दिनों तक अलग-अलग दफ्तरों के चक्कर काटती रही। आखिरकार पांचवें दिन रिपोर्टिंग की इजाजत मिली, लेकिन हिदायतों की बड़ी फेहरिस्त के साथ।
मैं जिस होटल में ठहरी थी, वहां से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर ‘करते परवान गुरुद्वारा’ है। यह काबुल का सबसे बड़ा गुरुद्वारा है। मुझे जिन विषयों पर रिपोर्टिंग करनी थी, उसमें काबुल के गुरुद्वारे और मंदिर भी शामिल थे। दूसरी तरफ मेरे मन में दिल्ली एयरपोर्ट पर मिले बुजुर्ग सिख की बात गूंज रही थी। इसलिए मैंने तालिबान से मंजूरी मिलने के बाद सबसे पहले करते परवान गुरुद्वारे का रुख किया।
कुछ ही मिनटों में मैं गुरुद्वारे के गेट पर खड़ी थी। ऊंची, मजबूत दीवारें और बंद दरवाजा। मेरे लिए यह हैरान करने वाली बात थी। मैंने कभी ऐसा गुरुद्वारा नहीं देखा था, जो बंद हो। काफी देर तक दरवाजा खटखटाती रही, लेकिन दरवाजा नहीं खुला।
मैंने गुरुद्वारा प्रबंधन से जुड़े एक शख्स को फोन किया। कुछ देर बाद ऑटोमेटिक राइफल लिए अफगान सिक्योरिटी गार्ड के साथ एक सरदार जी बाहर निकले। पगड़ी को छोड़ दें, तो उनका पहनावा इस्लामिक था। पूछताछ के बाद उन्होंने कहा, ‘हम हर किसी पर भरोसा नहीं कर सकते। आप भारत से आई हैं, इसलिए अंदर आने दे रहे हैं।’
यह करते परवान गुरुद्वारे का मेन गेट है, जो हमेशा बंद रहता है। लंबी पूछताछ के बाद ही इसके भीतर जाने की इजाजत मिलती है।
स्लेटी रंग का पठानी सूट, काबुली बंडी, सिर पर काली पगड़ी बांधे मनमुन सिंह इस गुरुद्वारे के सेवक हैं। वे गर्मजोशी से स्वागत करते हुए मुझे गुरुद्वारे के मुख्य हॉल तक ले जाते हैं। भीतर दो सुरक्षा गार्ड, एक कर्मचारी और सिख संगत के तीन लोग हैं। ये अफगानिस्तान के आखिरी पीढ़ी के सिख हैं, जो अपनी परंपरा को बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं।
इस गुरुद्वारे के नाम पर ही काबुल का यह इलाका भी करते परवान कहलाता है। पहले यह सिखों का गढ़ हुआ करता था।
गुरुद्वारा काफी बड़ा है, लेकिन फिलहाल वीरान नजर आता है। जून 2022 में इस गुरुद्वारे पर आतंकी हमला हुआ था, जिसमें दो सिख मारे गए थे। गुरुद्वारे का ज्यादातर हिस्सा जल गया था। हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (ISKP) ने ली थी। यह एक चरमपंथी संगठन है, जो सत्ता में तालिबान की वापसी से खुश नहीं है। खुरासान से जुड़े चरमपंथी और तालिबान सरकार के बीच अक्सर झड़प होती रहती है। खुरासान काबुल में कई बार बम ब्लास्ट करा चुका है।
अफगानिस्तान में अब 50 से भी कम सिख बचे हैं। ज्यादातर सिखों ने अफगानिस्तान से भागकर भारत और कनाडा में पलायन किया है।
अब तालिबान सरकार की मदद से इस हॉल को बनाया गया है। हॉल को देखने से लगता है कि पहले यहां सैकड़ों लोग आते होंगे, लेकिन अब गुरुग्रंथ साहिब के पाठ और प्रकाश रस्म ही पूरी हो पा रही है।
1980 के दशक में अफगानिस्तान में करीब 5 लाख सिख थे, लेकिन बीते 40 सालों की हिंसा ने सिखों को यहां से भागने के लिए मजबूर कर दिया। अब अफगानिस्तान में 50 से भी कम सिख बचे हैं।
मैंने मनमुन सिंह से पूछा- गुरुद्वारों के दरवाजे तो खुले रहते हैं, यहां बंद क्यों हैं?
मनमुन सिंह फफक-फफक कर रोने लगे। भर्राई आवाज में बोले, ’गुरुनानक साहब ने गुरुद्वारों के चार दरवाजे इसलिए रखे थे, ताकि हर तरफ से लोग आ सकें। सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा, जब दरवाजे बंद करने पड़ेंगे।’
काबुल में आठ गुरुद्वारे हैं, लेकिन करते परवान गुरुद्वारे को छोड़कर सभी बंद हैं। इस गुरुद्वारे में भी सिर्फ परंपरा ही निभाई जाती है।
मनमुन सिंह पुराने दिनों को याद करते हैं, ‘ये पूरा इलाका सरदारों का था। बड़े-बड़े बैरागी यहां कीर्तन करते थे। बैसाखी पर पांव रखने की जगह नहीं होती थी।
मुसलमान दोस्त कहते थे कि हमें भी पर्व में ले चलो, लेकिन अब तीन-चार परिवार ही बचे हैं। लोगों को मकान बेचकर भागना पड़ा। कुछ मकानों पर कब्जे हो गए। कुछ सिखों ने आखिरी निशानी के रूप में अपने घरों को सहेज रखा है, लेकिन उनमें कोई रहता नहीं।’
गुरुद्वारे के आंगन में एक ऊंचे पोल पर सिख धर्म की निशानी यानी निशान साहिब लगे हैं। जिसे देखकर वे भावुक हो जाते हैं। उनकी आंखों से आंसू निकलने लगते हैं। इसके बाद वे मुझे गुरुद्वारे की छत पर ले गए। चारों तरफ हाथ का इशारा करते हुए बोले- ‘एक जमाना था जब ये सभी घर सिखों के थे।’
मनमुन का परिवार दिल्ली में रहता है। वे अक्सर दिल्ली जाते रहते हैं। परिवार चाहता है कि मनमुन भारत में ही रहें, लेकिन वे नहीं मानते। कहते हैं- ‘मैं काबुल में नहीं रहता हूं, काबुल मुझमें रहता है। मरने के बाद ही यह शहर छूटेगा।’
गुरुद्वारे में माथा टेकते हुए मनमुन सिंह। वे करते परवान गुरुद्वारे के सेवक हैं। ज्यादातर समय गुरुद्वारे में ही रहते हैं।
मनमुन सिंह के साथ मनजीत सिंह लांबा भी इस गुरुद्वारे में रहते हैं। 2018 में जलालाबाद (काबुल से करीब 150 किलोमीटर दूर) में हुए एक हमले में उनके पिता मारे गए थे। चौड़ी कद-काठी के मनजीत ने स्लेटी पठानी सूट और इसी रंग की काबुली बंडी पहनी है। 2022 में जब इस गुरद्वारे पर चरमपंथियों ने हमला किया था, तब मनजीत यहीं थे। उन्होंने ही गुरुग्रंथ साहिब को यहां से निकालकर एक सिख के घर रखा था।
उस दिन को याद करते हुए मनजीत बताते हैं, ‘हमला सुबह पांच बजे शुरू हुआ और दोपहर 12 बजे तक चला। हमलावरों ने पहले गेट पर तैनात मुसलमान सुरक्षा गार्ड को मारा। फिर वॉशरूम में एक सिख नौजवान की हत्या की। कई लोग ऊपर फंस गए थे। हमले के बाद तालिबान की मदद से उन्हें निकाला गया था।’
मनजीत सिंह कहते हैं- ‘भारत सरकार बस इतना रहम कर दे कि पहले की तरह हमें मल्टीपल वीजा मिले, ताकि हम भारत आ-जा सकें।’
करते परवान में मनमुन सिंह का बड़ा मकान है, लेकिन वे एक छोटे से कमरे में अकेले रहते हैं। गुरुद्वारे से निकलने के बाद मैं उनके घर पहुंची। आंगन में तरह-तरह की सब्जियां और फल के पौधे लगे हैं।
अंगूर की बेल को छूते हुए वे कहते हैं- परिवार दिल्ली में तंगहाली में जी रहा। इसलिए मैं भी एक कमरे में ही रहता हूं। बाकी कमरे बेघर मुसलमानों को बिना किराए के दे दिया है, ताकि इंसानों को देखकर मेरा मन बहल सके।
उनके इसी घर पर 1990 के दशक में मोर्टार से हमला हुआ था। मनमुन सिंह तब युवा थे और घर के उसी हिस्से में बैठे थे जहां मोर्टार गिरा था। वे कहते हैं, ‘हमले के बाद भी उस वक्त हमने घर नहीं छोड़ा, पर अब देखिए मैं अकेला रह गया हूं।’
खुद को संभालते हुए वे कहते हैं, ‘जैसे पानी गुजरता है और फिर नहीं लौटता, वैसे ही हमारे जो लोग यहां से चले गए हैं, अब नहीं लौटेंगे।’
मैं उनसे आखिरी सवाल पूछती हूं- क्या आपको यहां डर नहीं लगता? वे मुस्कुराते हुए जवाब देते हैं- डर तो लगता है, लेकिन जान का नहीं बल्कि गुरुद्वारों का। हम नहीं रहेंगे, तो इन पवित्र स्थानों की देखभाल कौन करेगा। निशान साहिब को कौन फहराएगा?’
काबुल में करते परवान गुरुद्वारे के सेवक मनमुन सिंह की बड़ी हवेली है, लेकिन वे बस इसी कमरे में रहते हैं।
गुरुद्वारे से निकलते वक्त मुझे बताया गया कि यहां के हिंदुओं के हालत तो इससे भी खराब हैं, सो अगले दिन मैं काबुल के सबसे बड़े मंदिर पहुंच गई…
काबुल के कोह-ए-आसामाई यानी आसा माई पर्वत की तलहटी में बना आसामाई मंदिर। चारों तरफ सफेद रंग की मजबूत दीवारें, लोहे का बड़ा सा दरवाजा, जिसे खोलने से पहले अफगान सुरक्षाकर्मी भीतर से झांककर देखता है। पूछताछ के बाद ही मुझे मंदिर के भीतर आने दिया गया।
आशा यानी उम्मीद। हिंदू देवी आशा के नाम पर बने इस मंदिर को उम्मीद का मंदिर भी कहा जाता है। भारतीय मंदिरों की तरह न गोल गुंबदनुमा मंडप, न दरवाजे पर मंदिर का नाम। एक आम घर जैसा दिखता है। भीतर बड़ा हॉल है, जहां किसी गुरुद्वारे की तरह चौकी रखी है। उसके ऊपर हिंदू देवताओं की तस्वीरें रखी हैं।
दीवार पर हनुमान और भगवान शिव की टाइलों से बनी पेटिंग। श्रीकृष्ण के अलग-अलग रूप में कई तस्वीरें और एक छोटा शिवलिंग। मैं इधर-उधर नजर घुमाती हूं, लेकिन कोई मूर्ति नजर नहीं आती।
फर्श पर रंग-बिरंगी कालीन बिछी हैं। सेंट्रल हॉल में सैकड़ों लोग आराम से बैठ सकते हैं, लेकिन अभी यहां कोई नहीं है। पहली मंजिल पर सदियों पुरानी शालिग्राम ठाकुर जी की एक प्रतिमा है, जिसे लाल रंग का बड़ा तिलक लगाया गया है। ठाकुर जी को रोज स्नान कराने के बाद भोग लगाया जाता है। इन्हें पंजशीर से लाया गया था। काबुल से उत्तर दिशा में करीब 50 किलोमीटर दूर बसा पंजशीर, अफगानिस्तान का एक छोटा प्रांत है। लंबी, गहरी और धूल भरी इस घाटी के चारों ओर तीन हजार मीटर ऊंचे पहाड़ हैं।
अफगानिस्तान के पूर्वी प्रांत पंजशीर से लाई गई ठाकुर जी की प्रतिमा। यह इकलौती प्रतिमा है जो मंदिर में मौजूद है। बाकी मूर्तियां तहखाने में छुपा दी गई हैं।
मैं जब मंदिर पहुंची, तो यहां कुल पांच लोग थे। एक मंदिर के पुजारी, दो हिंदू सेवादार और दो अफगान सुरक्षा गार्ड, जिन्हें मंदिर प्रशासन ने तैनात किया है। तालिबान ने इस मंदिर को सुरक्षा नहीं दी है। हालांकि पुजारी बताते हैं कि तालिबान ने कहा है कि जरूरत पड़ने पर वे मदद मांग सकते हैं।
30 साल के राम सिंह 5 साल से इस मंदिर के अकेले पुजारी हैं। स्लेटी रंग का पठानी सूट और सिर पर लाल रंग का रूमाल बांधे राम सिंह के चेहरे पर हल्की दाढ़ी है और हाथ में कलावा बांधा हुआ है। उनकी हिंदू पहचान पर इस्लाम का असर साफ दिखता है।
मंदिर के पुजारी को हिंदी-संस्कृत नहीं आती, उर्दू में कराते हैं पूजा
राम सिंह को हिंदी या संस्कृत पढ़नी नहीं आती। उनके पास पूजा, भजन और कीर्तन की जो किताबें हैं, वो उर्दू में हैं। ये किताबें पाकिस्तान के पेशावर से मंगाई गई हैं। हालांकि कुछ हिंदी किताबें भी मंदिर में रखी हैं, ताकि कभी कोई हिंदी जानने वाला भक्त यहां आए, तो वह इन्हें पढ़कर पूजा कर सके।
आसामाई मंदिर के पुजारी राम सिंह। राम सिंह काबुल में ही पैदा हुए। जब वे छोटे थे, तब उनका परिवार जलालाबाद चला गया था।
राम सिंह से मैं पूछती हूं- इस मंदिर में कोई मूर्ति नजर नहीं आती?
राम सिंह उदास मन से बताते हैं- पहले यहां कई मूर्तियां थीं, लेकिन तालिबान के आने बाद सभी मूर्तियां तहखाने में रख दी गईं। आगे हालात ठीक होंगे, तो उन्हें फिर से बाहर निकाला जाएगा।’
मैं तहखाना देखना चाहती हूं, लेकिन वे मना कर देते हैं।
मंदिर में एक अखंड ज्योति जल रही है। मुझे बताया गया कि आठवीं सदी में हिंदू शाही शासन से लेकर मौजूदा तालिबान तक, कई उतार-चढ़ाव और सत्ता परिवर्तन के दौर से गुजरने के बावजूद यह कभी बुझी नहीं।
माना जाता है कि यह ज्योति करीब 2500 सालों से अनवरत जल रही है। यहां आने वाले श्रद्धालु इसके लिए तेल लेकर आते हैं।
मंदिर में चहल-पहल नहीं दिख रही?
ये सवाल सुनकर पुजारी उदास हो जाते हैं। वे बताते हैं, ‘एक जमाना था जब यहां अच्छी-खासी संगत होती थी। भक्तों से मंदिर परिसर पटा रहता था। लाउडस्पीकर पर आरती होती थी, लेकिन अब लोग ही नहीं बचे तो स्पीकर पर कौन आरती करेगा, ऊपर से सुरक्षा का डर।
मंगलवार और शुक्रवार को विशेष पूजा होती है, लंगर लगता है, लेकिन प्रसाद खाने के लिए लोग ही नहीं होते, फिर भी परंपरा निभाई जाती है।’
राम सिंह बताते हैं, ‘पहले यहां अच्छी-खासी संख्या में हिंदू थे। पांच-सात हजार हिंदू तो अकेले काबुल में थे, लेकिन तालिबान के पहले शासन में बड़े लेवल पर हिंदू पलायन कर गए। जो गिने-चुने परिवार बचे, उन्होंने 2021 में तालिबान के दोबारा लौटने के बाद जर्मनी, कनाडा और भारत जैसे देशों में पलायन कर लिया। फिलहाल अफगानिस्तान में 20 हिंदू बचे हैं, पर ये भी स्थायी नहीं हैं।’
पहले आसामाई मंदिर में बड़ा शिवलिंग था, लेकिन अब उसे तहखाने में रख दिया गया है। उसकी जगह प्रतीकात्मक रूप से छोटा शिवलिंग रखा गया है।
बातचीत के दौरान राम सिंह बताते हैं कि दो दिन बाद पाकिस्तान के पेशावर से एक हिंदू परिवार यहां पूजा के लिए आ रहा है। उस दिन आपको अच्छी संगत देखने को मिलेगी। भंडारा भी होगा। मैं उनसे दो दिन बाद आने की बात कहकर विदा लेती हूं।
मैं जिस कार से यहां आई थी, वो 80 साल के आगेराम चोपड़ा की है। उनकी यहां दवा की दुकान है, जिसे मुस्लिम पार्टनर संभालते हैं। वे दिल्ली में रहते हैं और उनके बच्चे लंदन में।
कार में पांच लोग हैं। सभी हिंदू। मैंने बुर्का पहना है, बाकी लोग पठानी सूट में हैं। कार में लोकगीत बज रहा है, जो कभी यहां के हिंदू गाया करते थे। अब ये बस कैसेट में सिमट कर रह गया है। कार में एक तस्बीह लटक रही है, जिस पर ‘माशा अल्लाह लिखा है।’
दो दिन बाद मैं दोबारा आसामाई मंदिर पहुंची। आज पेशावर से एक हिंदू परिवार यहां आया है। मंदिर में आरती हो रही है। लोग गा रहे हैं- सुबह शाम करूं मैं तेरी पूजा, सिवा तेरे ना मालिक है दूजा… मेरे होठों पर तेरी कहानी रहे। मैया ओ गंगा मैया।
श्रद्धालु वीडियो कॉल पर परिवार के लोगों और रिश्तेदारों को मंदिर के दर्शन भी करा रहे हैं।
पाकिस्तान के पेशावर से आया हिंदू परिवार आसामाई मंदिर में भजन-कीर्तन करते हुए। इसमें बच्चे भी शामिल हैं।
श्रद्धालुओं के जत्थे में तीन महिलाएं, दो पुरुष और पांच बच्चे हैं। सभी पुरुष पठानी सूट पहने हैं। कुछ के सिर पर रुमाल तो कुछ ने टोपी से सिर को ढंका है। महिलाएं सूट पहने हुए हैं। सुरक्षा कारणों से ये लोग कैमरे पर बात करने से मना कर देते हैं।
आज पुजारी के चेहरे पर खुशी साफ दिखती है। लंबे समय बाद इस तरह का माहौल यहां देखने को मिल रहा है। अरसे बाद एक दर्जन से ज्यादा हिंदू एक साथ पंगत में बैठकर प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं। प्रसाद में चावल और दही है। साथ में छोले और आलू की सूखी सब्जी, अफगानी रोटी, सलाद और पूजा में चढ़ाए गए फल।
मंदिर में आए श्रद्धालु पंगत में बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हुए। इसमें पाकिस्तान से आए श्रद्धालु भी शामिल हैं।
बातचीत के दौरान यह परिवार रतन नाथ दरगाह का जिक्र करता है। ये लोग जब भी अफगानिस्तान आते हैं, उस दरगाह पर जरूर जाते हैं। दरअसल रतन नाथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान में नाथ संप्रदाय की नींव रखने वाले गुरु गोरखनाथ के अनुयायी थे।
मुझे बताया गया कि पुराने बाजार में रतन नाथ का सदियों पुराना मंदिर है। इसे यहां दरगाह कहा जाता है। पुराने बाजार की भीड़-भाड़ भरी गलियां और रास्ते में मीट की दुकानों पर लटकते मांस के टुकड़े। जब मैं दरगाह पहुंची, तो दरवाजा बंद मिला। मुझे बताया गया कि अंदर किसी को जाने की इजाजत नहीं है।
बहुत गुजारिश के बाद दरगाह के पुजारी ने मुझे अंदर आने की इजाजत दी, लेकिन एक शर्त भी रख दी। शर्त ये कि मैं कोई फोटो-वीडियो क्लिक नहीं करूंगी।
रतन नाथ पीर दरगाह का दरवाजा बंद है। मैंने अंदर आने की परमिशन ली थी, लेकिन फोटो लेने की इजाजत नहीं मिली थी। इसलिए दरवाजे के अंदर की तस्वीरें नहीं क्लिक कर पाई।
चूंकि तालिबान का हुक्म है कि सभी औरतें हिजाब पहनेंगी, इसलिए मैंने भी बुर्का पहना हुआ था, लेकिन मंदिर में इस वेश में एंट्री नहीं हो सकती। पुजारी मुझसे ये कहते हुए बुर्का उतरवा देते हैं कि मंदिर में काला कपड़ा पहनकर जाना मना है।
यहां एक पुरोहित, दो सेवादार और दो अफगान सुरक्षाकर्मी हैं। मुख्य हॉल में कोई गर्भगृह नहीं है। दीवारों पर श्रीकृष्ण, शिव और विष्णु की तस्वीरें लगी हैं। गीता, रामायण और महाभारत की किताबें रखी हैं।
यह दरगाह, पीर मंदिर गरदेज से लाई गई गणेश जी की मूर्ति के लिए भी चर्चित है। पांचवीं सदी की ये मूर्ति इस मंदिर का अभिन्न अंग रही है। दो साल पहले तक इसे देखा जा सकता था, लेकिन अब इनका दर्शन मुमकिन नहीं है। आसामाई मंदिर की तरह ही यहां भी मूर्तियां तहखाने में रख दी गईं हैं।
ये गरदेज गणेश जी हैं। ऐसी मान्यता है कि हेफ्थलाइट वंश के शासक खिंगल ने इसकी स्थापना की थी। फिलहाल मूर्ति तहखाने में रखी है।
मैं ये इच्छा लेकर मंदिर में आई थी कि गरदेज गणेश को प्रणाम करूंगी। मन ही मन ऐसा सोच भी रही थी। तभी पुरोहित मुझे एक दीवार के सामने ले गए। उन्होंने नई बनाई हुई एक दीवार की तरफ इशारा किया। उनके इशारे का मतलब है कि मूर्ति के आगे दीवार खड़ी कर दी गई है, ताकि उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचाए।
काबुल में जितने भी हिंदुओं से मेरी बात हुई, कोई भी यहां के हालात पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं हुआ। काबुल के मुख्य इलाके में इल्हाम फिरदौस मेडिकल मार्केट को इंडिया बाजार भी कहा जाता है। ये अफगानिस्तान का सबसे बड़ा मेडिकल मार्केट है।
फिरदौस मेडिकल मार्केट में फिलहाल हिंदू मालिकों की 15 दुकानें ही बची हैं। ज्यादातर कारोबारी मुस्लिम पार्टनर्स के भरोसे दुकान छोड़कर चले गए हैं।
यहां एक हिंदू दवा कारोबारी सूरज से मेरी मुलाकात हुई। वे बताते हैं, ‘1992 में हमारा परिवार अफगानिस्तान छोड़कर चला गया। मैंने भारत में रहकर पढ़ाई की। माहौल ठीक हुआ, तो यहां आकर दुकान खोली, लेकिन तालिबान की वापसी के बाद मुझे फिर भारत लौटना पड़ा। अभी अगस्त में ही यहां आया हूं, कुछ महीने बाद फिर भारत चला जाऊंगा।’
बार-बार अफगानिस्तान लौटना और फिर भारत चले जाना… कभी डर नहीं लगता? वे बताते हैं, ‘देखिए भारत में हमारे लिए कारोबार शुरू करना मुश्किल है। इसलिए हम यहां दुकान संभालने की कोशिश कर रहे हैं। आखिर परिवार भी तो पालना है ना।’
मैं दुकान में बैठे एक बुजुर्ग से पूछती हूं कि क्या आपके पोते-पोतियां अफगानिस्तान लौटेंगे?
वे गहरी सांस लेकर कहते हैं- बच्चे बाहर पले-बढ़े हैं। उन्हें ना तो यहां की भाषा समझ आती है ना संस्कृति। शायद ही वे यहां वापस आएं। हमने पीढ़ियों से इस दुकान को संभाला है, पर अब लगता है कि इसे बेचना पड़ेगा।’
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