जयपुर
राजस्थान में नए सीएम भजनलाल शर्मा का नाम तय होते ही, सभी के मन में सबसे पहला सवाल दो बार मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे को लेकर उठ रहा है। सवाल यह है कि पिछले वसुंधरा राजे का पार्टी में अब क्या भविष्य होगा?
वसुंधरा राजे, भाजपा व आरएसएस से जुड़े सूत्रों से बात की और उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर एनालिसिस किया। साथ ही यह भी पड़ताल की कि राजे सीएम की रेस से बाहर कैसे हो गईं?
सामने आया कि राजे को सीएम पद से दूर रखने के पिछले 8 महीने में 4 बड़े संकेत दिए जा चुके थे, लेकिन वे अपने रवैये पर लगातार अड़ी रहीं और आलाकमान के सामने नाराजगी जताती रहीं। आलाकमान ने अपने फैसलों में राजे को शामिल करने के बजाय दूर ही रखा। पढ़िए- पूरी रिपोर्ट….
सबसे पहले जान लेते हैं वो 4 सियासी घटनाएं कौनसी हैं, जब राजे को बैकफुट पर धकेलने के संकेत मिले
विधायक दल की बैठक के दौरान आलाकमान की भेजी पर्ची खोलकर मुख्यमंत्री का नाम देखते हुए वसुंधरा राजे।
1. प्रदेशाध्यक्ष की नियुक्ति : पूनिया को तो हटाया, लेकिन पसंद का नहीं बनाया प्रदेश अध्यक्ष
राजे के बतौर सीएम पहले कार्यकाल के समय ओम माथुर प्रदेशाध्यक्ष थे, लेकिन उनके बाद और सतीश पूनिया की नियुक्ति से पहले तक, राजे की राय से ही प्रदेश अध्यक्ष पद नियुक्त होते आए थे। 2009 में ओम माथुर के हटने के बाद अरुण चतुर्वेदी हो या अशोक परनामी, हमेशा वसुंधरा की ही चली। लेकिन वर्ष 2019 में राजे की बिना राय लिए आलाकमान ने सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाया।
यह पहली घटना थी जब किसी राजनीतिक नियुक्ति में राजे की नहीं चली। पूनिया के अध्यक्ष बनने के बाद राजे सहित उनका गुट नाराज रहा। इसके बाद पूनिया को कार्यकाल पूरा करने के बाद ही हटाया गया। लेकिन चुनाव से चंद महीने पहले बिना राजे की राय लिए सीपी जोशी को अध्यक्ष बना दिया गया। यहीं से वसुंधरा राजे को साइडलाइन करने की स्क्रिप्ट लिखी गई थी।
2. चुनावी कैंपेन : बिना राजे को शामिल किए ही तैयार हुई चुनाव प्रचार रणनीति
राजे आलाकमान से जुलाई-अगस्त से ही चुनाव के दौरान खुद की भूमिका को लेकर लगातार सवाल पूछ रही थीं। उन्होंने कई बार दिल्ली में डेरे डाले और अपनी बात भी पहुंचाई। लेकिन अंत तक आलाकमान ने राजे को चुनाव प्रचार की रणनीति से दूर रखा।
राजे ने पिछले 4 विधानसभा चुनावों में निकाली गई सभी चुनावी यात्राओं का नेतृत्व किया था। लेकिन भाजपा आलाकमान ने इस चुनाव में राजे को शामिल किए बगैर अपने स्तर पर परिवर्तन यात्रा का रोड मैप तैयार किया।
चुनाव प्रचार के आखिरी दिनों में 21 नवंबर को बारां के अंता में सभा के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और पीएम मोदी।
राजे ने यात्रा शुरू होने से पहले फिर एक बार खुद की भूमिका को लेकर सवाल पूछे। सितंबर में शुरू हुई ये यात्रा 18 दिन चली, लेकिन अंत तक उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। यात्रा के दौरान करीब 75 सभाएं हुईं, लेकिन शुरुआत के बाद राजे दिखाई नहीं दीं।
3. टिकट वितरण : राय ली, जिताऊ के आलावा खास समर्थकों के टिकट काटे
टिकट वितरण को लेकर बैठकों में राजे को शामिल रखा गया। राजे ने अपनी राय भी दी और खुद की सूचियां लेकर जयपुर और दिल्ली की बैठकों में शामिल हुईं। खुद की सूचियों के आधार पर आलाकमान ने उनकी बात भी सुनी, लेकिन किया वहीं जो सर्वे में सामने आया था। यहां भी आलाकमान ने खुद की रणनीति से ही टिकट बांटे।
सर्वे में राजे समर्थक जिताऊ उम्मीदवारों कालीचरण सराफ, श्रीचंद कृपलानी जैसे नेताओं को टिकट दिया गया। वहीं, राजे के कट्टर समर्थकों में गिने जाने वाले अशोक परनामी, यूनुस खान जैसे चेहरों को चुनाव मैदान से दूर रखा। राजे अंत तक इनकी टिकट के लिए मांग करती रहीं।
हाल ही में समर्थक विधायकों को जुटाने के बाद वसुंधरा राजे को आलाकमान ने दिल्ली तलब कर लिया था।
4. समर्थक विधायकों की लॉबिंग करना: रिजल्ट से पहले और बाद में नाराज ही रहीं राजे
सूत्रों के अनुसार इस चुनाव से पहले और रिजल्ट आने के बाद भी तवज्जो नहीं मिलने से वसुंधरा राजे लगातार नाराज चल रहीं थी। उन्हें भी पहले से अंदाजा था कि चुनाव में जिस तरह से उन्हें दूर रखा गया, मुख्यमंत्री चयन के समय कहीं ऐसा नहीं हो। यही कारण है कि वसुंधरा राजे ने नतीजे आने के बाद समर्थक विधायकों को बुलाया और अपने समर्थन को लेकर नब्ज टटोली। उल्टा आलाकमान इससे नाराज हुआ। राजे को उनके बेटे सांसद दुष्यंत सिंह को दिल्ली तलब किया गया था।
सूत्रों के अनुसार दिल्ली में राजे को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने स्पष्ट समझाया था कि वे CM के लिए प्रयास न करें, कोई लाभ नहीं मिलने वाला। बावजूद इसके दिल्ली से लौटकर उन्होंने विधायकों को खुद के समर्थन करने के लिए जुटाया। आलाकमान ने राजे पर चुनाव के दौरान और सीएम की घोषणा तक राजे की हर गतिविधि पर बारीकी से नजरें बनाए रखीं।
वसुंधरा राजे ने चुनाव से पहले ही अपने समर्थकों को जुटाने के प्रयास किए थे।
रिजल्ट से पहले…
चुनाव से पहले और परिणाम के बाद दो बार वसुंधरा राजे ने समर्थक विधायकों को अपने पक्ष में खड़ा करने का प्रयास किया। लेकिन उन्हें न तो चुनाव से पहले और न चुनाव परिणाम के बाद पर्याप्त विधायकों का साथ मिला। उल्टा, राजे ने इन गतिविधियों के चलते आलाकमान को नाराज कर दिया।
राजे के पक्ष में केवल दो विधायक रहे, जिन्होंने साफ तौर पर कहा कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाना चाहिए, लेकिन अधिकतर ने आलाकमान के साथ जाने की बात की। इन स्थितियों में राजे के पास आलाकमान के साथ जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहा।
राजे से जुड़े एक करीबी सूत्र ने हताश होते हुए यह बताया कि चुनाव से पहले ही यह हालात थे कि जिनके लिए ‘मैडम’ ने बहुत कुछ किया वे भी साथ नहीं दे रहे थे। मतलब साफ था कि तब चुनाव लड़ने के इच्छुक नेताओं को टिकट कटने का भी डर था। नेताओं ने तब भी राजे से दूरी बनाई थी। यूनुस खान, अशोक परनामी जैसे समर्थकों के टिकट तक काटे गए थे।
वसुंधरा राजे के 13 सिविल लाइंस आवास पर लगातार समर्थकों की भीड़ जुटती रही है।
रिजल्ट के बाद…
चुनाव परिणाम के बाद वसुंधरा राजे के सिविल लाइंस स्थित सरकारी बंगले में करीब 47 विधायक उनसे मिलने पहुंचे। वहीं, राजे और उनके बेटे दुष्यंत पर जयपुर के एक रिसोर्ट में रुकवाने के प्रयास के आरोप लगे। इन विधायकों में ललित के अलावा, अंता से कंवरलाल, बारां अटरू से राधेश्याम बैरवा, डग से कालूराम और मनोहर थाना से गोविंद प्रसाद शामिल थे।
किशनगंज से विधायक ललित मीणा के पिता हेमराज मीणा ने आरोप लगाया कि 4 दिसंबर को दुष्यंत सिंह उनके बेटे को वसुंधरा राजे से मिलने के लिए लाए थे, लेकिन मुलाकात के बाद उन्हें जयपुर के पास एक रिसॉर्ट में ले गए। सूत्रों ने बताया कि प्रदेश नेतृत्व की ओर से इस संबंध में आलाकमान को सूचना भी दी गई। आलाकमान ने राजे और उनके बेटे को तलब भी किया।
इस बीच विधायक कंवरलाल ने दावा किया कि यह राजे व दुष्यंत सिंह का नाम बदनाम करने की साजिश थी। बाड़ाबंदी के प्रयास नहीं थे विधायक केवल एक साथ रुके हुए थे। दिल्ली से वापस लौटकर राजे से एक दिन पूर्व भी आधा दर्जन से अधिक विधायकों और नेताओं ने मुलाकात की।
वसुंधरा राजे अगर आलाकमान के निर्णयों का समर्थन करती हैं तो उन्हें आगे चलकर इसका फायदा मिल सकता है।
3 महीने बाद तय हो जाएगा राजे का भविष्य, लेकिन एक शर्त भी…
पार्टी सूत्रों के अनुसार राजे तीसरी मुख्यमंत्री बनने के लिए प्रयासरत थीं, लेकिन उनकी चली नहीं। यदि वे आलाकमान के निर्णयों का समर्थन करती हैं, तो राजनीति में लम्बे अनुभव का लाभ लेने के लिए भाजपा आलाकमान उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकता। उनका राजनीतिक भविष्य सुरक्षित रहेगा।
उनके अनुसार आलाकमान की राजे पर नजर रहेगी। उनके नुकसान की आशंका तब ही है, जबतक राजे कोई गलती नहीं कर बैठें। यदि राजे ने ताकत दिखाने का प्रयास किया, तो मोदी-शाह की नाराजगी से नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।
अब सामने लोकसभा चुनाव हैं और भाजपा अभी से ही इन चुनावों की तैयारी में जुटी हुई है। उनके बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़-बारां सीट से 4 बार लगातार लोकसभा चुनाव जीते हैं। माना जाता है कि राजे के प्रभाव के कारण ही उनके बेटे को इस सीट पर जीत मिलती है।
सूत्रों के अनुसार अब आलाकमान की ओर से राजे को लोकसभा चुनाव में टिकट ऑफर की जाएगी। यदि राजे मान जाती हैं, तो केंद्र सरकार में उन्हें कोई मंत्रालय दिया जाएगा। राजे के कारण ये सीट भाजपा की मजबूत सीट मानी जाती है और यहां से राजे को हरा पाना भी मुश्किल है।
वसुंधरा राजे की सीट पर उनके बेटे को उपचुनाव में उतारा जा सकता है।
दुष्यंत सिंह को मिल सकता है उपचुनाव में मौका
भाजपा की ओर से राजे को विधानसभा और उनके बेटे दुष्यंत को लोकसभा चुनाव के लिए लगातार टिकट दिया जाता रहा है। दोनों ही विनिंग कैंडिडेट हैं, इस कारण पार्टी एक ही परिवार के दो सदस्यों को टिकट देती भी आई है। पार्टी कई बार तय कर चुकी है कि ‘एक परिवार से एक टिकट’ के नियम की पालना की जाएगी।
राजे को यदि लोकसभा चुनाव में मौका दिया गया, तो उनकी झालरापाटन सीट खाली हो जाएगी। वसुंधरा राजे आलाकमान के कहे अनुसार ही अनुशासन में रहती हैं, तो उनके बेटे दुष्यंत सिंह को विधानसभा उपचुनाव में झालरापाटन सीट से विधायक पद का उम्मीदवार बनाया जा सकता है।
लेकिन भविष्य के सभी विकल्प राजे और दुष्यंत के आचरण पर ही निर्भर करेंगे। भाजपा ने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री के नाम घोषित किए, तो रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान ने किसी तरह से माहौल को प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया।
आलाकमान भी वसुंधरा राजे ने यही उम्मीद रखता है। वे प्रदेश सरकार में सहयोगी और मार्गदर्शक के रूप में भूमिका निभाएं। इसी तरह से वे संगठन में भी अपनी योग्यता के अनुसार मजबूत करें। राजे ऐसा कुछ भी नहीं करें कि सरकार या संगठन को मुश्किलों का सामना करना पड़े।
नए चेहरे के तौर पर मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की नियुक्ति से साफ है बीजेपी राजस्थान में रिवाज बदलने की अगली तैयारी में जुटेगी।
अब राजस्थान में रिवाज बदलने की मशक्कत करेगी बीजेपी
राजस्थान की मास लीडर और भाजपा का फेस रहीं राजे की राजनीतिक करियर में सबसे बड़ी विफलता यही है कि वे राजस्थान में दो बार मौका मिलने पर भी भाजपा की सरकार को रिपीट नहीं करवा पाईं। वर्ष 2003 में पहली बार सीएम बनने के बाद ललित मोदी विवाद और भ्रष्टाचार के आरोप लगे। एंटी इनकम्बेंसी के कारण 2008 का विधानसभा चुनाव पार्टी हार गई। पार्टी की करीब 78 सीटों पर ही जीत मिल पाई।
इसके बाद भाजपा को 2013 में 163 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला और राजे दूसरी बार सीएम बनीं। लेकिन सरकार इस कदर बहुमत पाने के बाद भी राजस्थान के विकास, बेरोजगारी जैसे मुद्दों को दूर करने के लिए प्रभावी तौर पर सरकार नहीं चला पाईं।
वर्ष 2018 के चुनाव में ‘मोदी तुझसे बैर नहीं और राजे तेरी खैर नहीं’ के नारों की गूंज के बावजूद आलाकमान ने राजे को ही आगे किया। पार्टी ने राजे को लेकर पूरा जोखिम उठाया, लेकिन चुनाव हार गई। पार्टी को इस चुनाव में 90 सीटों का नुकसान हुआ।
पार्टी सूत्रों के अनुसार अब पार्टी नए नेतृत्व के साथ राजस्थान में प्रयोग करना चाहती है, जिससे भाजपा अगले चुनाव में फिर इस बड़े स्टेट को न खो बैठे। इस बार भाजपा हर पांच साल में सरकार बदलने का रिवाज पटलने को योजना से चलेगी। इस सरकार के काम पर आलाकमान बराबर नजरें बनाए रखेगा।
जेपी नड्डा ने पहले ही वसुंधरा राजे को कह दिया था कि वे मुख्यमंत्री पद के लिए प्रयास न करें।
आलाकमान ने ताकत दिखाई, नहीं बनने दी गहलोत-पायलट जैसी स्थिति
कांग्रेस की गहलोत सरकार बनने से पहले और इस चुनाव तक गहलोत और पायलट के गुटों के बीच बंटी हुई दिखाई दी। लेकिन भाजपा आलाकमान ने पूरे प्रचार के दौरान खेमेबंदियों से पार्टी को दूर रखा। बिना सीएम चेहरे के चुनाव लड़ने के पीछे यही रणनीति थी। तमाम फ्री योजनाओं और कर्मचारियों को पुरानी पेंशन का लाभ देने के बाद भी कांग्रेस अपनी सरकार रिपीट नहीं करवा सकीं।
यदि वसुंधरा राजे को ही आगे किया जाता, तो राजे समर्थकों के अलावा भाजपा का एक धड़ा और संघ, तीन तरह से गुटबंदी होने की आशंका बन जाती। संघ भी हमेशा आरोप लगाते आया है कि राजे ने चुनाव के मौके पर ही याद करती हैं।
अपनी रणनीति के तहत आलाकमान ने आपने कंधों पर प्रचार की कमान संभाली और प्रदेश के नेताओं को बराबर तवज्जो दी। चुनाव के दौरान आलाकमान इतना हावी रहा कि प्रदेश में गुटबाजी होने की आशंका खत्म सी हो गई। सबसे प्रभावी नेता वसुंधरा राजे व उनके समर्थक भी हावी नहीं हो सके। मोदी ने अपने रोड शो के दौरान या सभा स्थल पर आने के दौरान अपने साथ प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते केवल सीपी जोशी को रखा। पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में भाजपा की ये रणनीति काम आई।
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