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ऊन अपशिष्टों से तैयार खाद से गोबर खाद की तुलना में 72 प्रतिशत तक बढ़ी प्याज की पैदावार

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एसकेआरएयू के कृषि अनुसंधान केंद्र बीछवाल द्वारा किए गए रिसर्च से निकला सुखद परिणाम

मृदा के स्वास्थ्य में भी हुआ प्रभावी सुधार

बीकानेर, 26 अप्रैल। खेती में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के बीच स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय में ऊन अपशिष्टों तथा मूंगफली के छिलके से तैयार खाद का प्रयोग करते हुए प्याज की पैदावार में गोबर खाद की तुलना में 72 प्रतिशत की तक बढ़ोतरी प्राप्त की गई है।
विश्वविद्यालय के कृषि अनुसंधान केंद्र बीछवाल में गत दो वर्षों से प्रायोगिक तौर पर यह अनुसंधान किया गया है। कुलपति डॉ अरुण कुमार ने बताया कि अनुसंधान के उत्साहजनक परिणाम बीकानेर की लगभग 245 ऊन औद्योगिक इकाइयों द्वारा उत्सर्जित 8400 टन ऊन अपशिष्ट और 4.83 लाख टन मूंगफली छिलके का वैज्ञानिक तरीके से उपयोग कर उर्वरकों की खपत को कम करते हुए गुणवत्तायुक्त सब्जियों के उत्पादन की दिशा में महत्वपूर्ण साबित होंगे।
इस विषय पर अनुसंधानरत केंद्र के वैज्ञानिक डॉ एस आर यादव ने बताया कि अनुसंधान में कृषि अपशिष्टों से तैयार खाद द्वारा उत्पादन में बढ़ोतरी के साथ मृदा स्वास्थ्य में प्रभावी सुधार जैसी महत्वपूर्ण उपलब्धि भी हासिल की गई है।

ये रहे परिणाम
अनुसंधान के तुलनात्मक अध्ययन बताते हैं कि गोबर खाद की तुलना में ऊन के अपशिष्टों द्वारा निर्मित खाद से 395.10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्याज का उत्पादन किया जा सका, जबकि गोबर की खाद का उपयोग करते हुए यह उत्पादन 228.98 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रहा। ऊन के अपशिष्ट से तैयार खाद का प्रयोग करने से गोबर खाद की तुलना में जैविक कार्बन में भी 14.22 प्रतिशत तक सुधार पाया गया तथा मृदा का पीएच लेवल 8.12 से घटकर 7.99 हो गया जो कि मृदा स्वास्थ्य की दिशा में महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
अनुसंधान केंद्र द्वारा गोबर खाद और ऊन अपशिष्टों की खाद को मिलाकर 280.35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्याज की उपज प्राप्त की गई। इस खाद से उत्पादन में गोबर खाद की तुलना में करीब 23 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। जबकि मूंगफली के छिलके और गोबर की खाद के साथ ऊन के अपशिष्टों की खाद को मिलाकर भी 9 प्रतिशत से अधिक पैदावार हासिल की गई।
डॉ यादव ने बताया कि ऊन अपशिष्टों में 2.2 प्रतिशत गंधक पाया जाता है। इसके अतिरिक्त नाइट्रोजन व जिंक भी अधिक मात्रा में होता है। इनसे निर्मित जैविक खाद का पैदावार पर सीधा असर हुआ।

ऊन अपशिष्टों से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण तथा स्वास्थ्य को हो रहे नुकसान से हो सकेगा बचाव

कुलपति डॉ अरुण कुमार ने बताया कि कृषि औद्योगिक अपशिष्टों के कारण वायु प्रदूषण तथा स्वास्थ्य को नुकसान जैसी चुनौतियों के बीच इन अपशिष्टों से तैयार खाद द्वारा उत्पादन में बढ़ोतरी एक सुखद परिणाम है। जिसके माध्यम से कृषि औद्योगिक अपशिष्टों का वैज्ञानिक तरीके से प्रयोग कर न केवल उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकेगी बल्कि खाद्य गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य में सुधार तथा वायु प्रदूषण में कमी जैसे परिणाम भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इसके जरिए प्राकृतिक खेती को बढ़ावा तो मिलेगा । अस्थमा, एलर्जी तथा सांस की बीमारियों का खतरा भी कम होगा। इस अपनाने से किसान जैविक खेती के लिए खाद के स्तोत्र अपने खेत से प्राप्त कर सकेगा । रासायनिक उर्वरकों में लगने वाले खर्च में भी कमी आएगी जिससे किसाने को आय में बढ़ोतरी का अवसर मिलेगा।
कुलसचिव देवाराम सैनी ने बताया कि राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत कृषि अनुसंधान केंद्र में दो वर्षों से प्रायोगिक तौर पर एक अनुसंधान में ये परिणाम प्राप्त किए गए। जैविक खेती में रुचि रखने वाले किसान इसे अपना कर न केवल गुणवत्तापूर्ण उपज बढ़ोतरी कर सकेंगे बल्कि खेत की मृदा स्वास्थ्य सुधार में भी यह तकनीक किसान के लिए लाभदायक साबित होगी।

प्रशिक्षण से सिखाई जा रही है किसानों को तकनीक

विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ अरुण कुमार ने बताया कि इस तकनीक का किसानों तक हस्तांतरण करने के लिए प्रशिक्षण के दौरान हैंड्स ऑन ट्रेनिंग दी जा रही हैं।
खाद तैयार करने की प्रकिया
अनुसंधानरत वैज्ञानिक डॉ एस आर यादव ने बताया कि ऊन अपशिष्टों से खाद तैयार करने के लिए एक पक्का स्ट्रेक्चर तैयार किया गया है। जिसमें कृषि औद्योगिक अपशिष्टों और सूक्ष्मजीवों की प्रकिया द्वारा करीब छह माह में यह खाद तैयार की जाती है।

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