क्या वास्तव में रावण हर साल जलता है या फिर इसमें कोई प्रतीक है ?
एक प्रसिद्ध सिनेमा का डायलॉग है, नायक अपनी मां से कहता है, “हम एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं।” किसी व्यक्ति की अंत्येष्टि की क्रिया भी मरने के उपरांत बस एक बार संपन्न होती है, लेकिन ऐसी क्या खास बात है कि रावण को बार-बार, हर साल जलना पड़ता है?
क्या वह अमर है कि वह हर वर्ष जी जाता है?
राम और रावण – नायक और खलनायक, एक नायिका सीता के लिए टकराए, जिसमें रावण का भविष्य, सकल कुल खानदान राख हो गया। विडंबना यह है कि आज इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी रावण हर बरस जल रहा है। दुःशासन क्यों नहीं जलता है, या फिर इन्द्र की नागवारियों के प्रति हमारे हृदय में इतनी सहृदयता क्यों है, कि हमने उसे स्वर्ग के सम्राट का स्थान दिया हुआ है?
आश्चर्य की बात है अत्यधिक समानता है राम और रावण के नाम में – एक स्थान से शुरू होते है, राम और रावण – ‘र’ कार अग्नि वर्ण से। “र” वर्ण सभी पापों को जला देता है। बिना “र” के मंत्र, पाप का शमनकर्त्ता नहीं बनता है, उदाहरणरूप ह्रीम्,। लेकिन आगे चलकर राम और रावण एक दूसरे से बिल्कुल अलग हो जाते हैं। राम त्याग का परचम फहराते हैं एवं रावण भोग का। शत प्रतिशत सत्य है कि राम अपने लिए कभी नहीं जिए, मांगा जाना और त्याग देना दोनों राम के कथानक में बार-बार उभर कर आते हैं।
विश्वामित्र मांग कर ले गए ताड़का और सुबाहु के वध के लिए, कैकेयी ने दशरथ से कहा कि राम को अयोद्धया का त्याग करना होगा, रचनाकारों ने यह लिखा है कि अयोध्या लौटने के बाद राम ने सीता का त्याग कर दिया और आखिर में सीता राम का त्याग करके धरती में समा गई। कई विद्वानों ने माना है कि सीतामढ़ी वह स्थान है, जहां पर सीता धरती में समा गई थी। लेकिन रावण तो अपने सुखों के लिए सबसे लड़ गया। अपने सौतेले भाई, कुबेर, से उसने लंका छीन लिया। राम ने सौतेले भाई भरत के लिए अयोध्या छोड़ दिया, वनवासी बन गए।
राम को यदि अन्तःकरण की आवाज, उसका शब्द कहा जाए तो रावण उस शब्द के वर्ण विन्यास हैं। बिना वर्णों के शब्दों को रचा नहीं जा सकता है। वर्ण पहले आते हैं और शब्द बाद में। एक अन्य उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है। हर कोई जानता है कि मक्खन में घी निहित है, परन्तु इस घी को पाने के लिए मक्खन को अग्नि में जलना पड़ता है, उसके बाद उससे घी मिलता है। रावण चारित्रिक विकास में “मक्खन” के स्टेज में है – अधूरा, पूर्णतया नारायण बना नहीं और नर से कोसों ऊपर आ गया। जब राम जंगल-जंगल घूम रहे थे, रावण पुष्पक विमान में घूम रहा था।
ज्ञान, विज्ञान, संगीत, तंत्र सभी में प्रगल्भ रावण ने शिव ताण्डव स्तोत्र रावण लिखा, महान तांत्रिक था रावण। उसने रावण संहिता रचा, वीणा का आविष्कार भी रावण ने किया। रावण को ब्रह्माजी ने लगभग अमरत्व का वरदान दिया था। वह सिर्फ मनुष्य,बानर के हाथों मारा जा सकता था, उसकी नाभि में अमृत कलश था। निर्विवाद सत्य है कि रावण अपने लिए जीया, अपनी शर्तों पर जीया एवं अपनी शर्तों पर मरा। खलनायक होने के बाद भी रावण ने सीता का अंग भंग नहीं किया, राम-लक्ष्मण ने तो ने तो शूर्पनखा के साथ ऐसा अपराध कर दिया था।
यदि रावण की भूल किसी दूसरे की पत्नी पर कुदृष्टि रखना था तो उसे भूल के हिसाब से तो दुशासन, इंद्र और न जाने कितने लोगों के पुतले आज भी जलाए जाने चाहिए लेकिन जलता आज भी सिर्फ रावण है, क्यों? रावण का जलना एक स्वांग है, एक बहुत बड़ा स्वांग। वास्तव में रावण जल नहीं रहा होता है, बल्कि जलता कुछ और है और वह भी कहां जलता है? वह तो अधिक बलशाली बनाकर अगले साल लौटता है।
रावण हमारे मन की अनियंत्रित महत्वकांक्षा है। रावण के चित्रण में यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। दस सिर हैं रावण के, उसने अपनी बुद्धि का विस्तार कितना अधिक किया होगा? रावण ने तपस्या की तो भीषण किया, युद्ध किया तो सबको हरा दिया, ग्रह – नक्षत्र को बन्दी बना लिया, शहर बसाया तो सोने का।
रावण का एम्बिशन, रावण की उपलब्धियां अद्वितीय थी। अनियंत्रित महत्वाकांक्षा देवताओं में स्पष्ट है: हम शीर्षस्थ रहें, हवि हमें मिलें, पूजा हमारी हो, तूती हमारी बोली जाए, यह मांग देवताओं में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
एम्बिशन को छोड़ने की सलाह सिर्फ मनुष्य को दी जाती है। सफलता-विफलता के परे जाने का उपदेश सिर्फ उसे दिया गया है, परन्तु हर युद्ध सिर्फ जीत के लिए लड़ा जाता है एवं उसके लिए हर पक्ष मूल्य देने को राजी है। रावण उस समय तक समाप्त नहीं हो सकता है, जब तक महत्वकांक्षा रहेगी। हां, उसे जलाकर ऐसा लगता है कि हमने उसे हरा दिया है, परन्तु वह तो बाहर था ही नहीं कभी, वह हमेशा मन में था, फिर उसे जलाया कैसे जाएगा, हराया कैसे जाएगा, जितना उससे हम लड़ने की कोशिश करेंगे, वह उतना व्यापक बनेगा, उसे बस स्वीकार करना होगा।
यहां कई प्रबुद्ध लोग पूछ सकते हैं कि महत्वाकांक्षा को जलाने की आवश्यकता क्यों है? रावण को जलाकर एक तरह से महत्वाकांक्षा को प्रज्ज्वलित ही किया जा रहा है। राम के धनुष से निकले बाण से रावण रूप में अनियंत्रित महत्वाकांक्षा प्रज्ज्वलित होता है। रावण – राम दोनों की शुरुआत एक जैसी है। राम में “र” अग्निवर्ण को “म” की पूर्णता मिल गई है, तथा रावण में “र” की अग्नि “वन” में जाकर अनियंत्रित हो गई।अग्नि की लौ यदि वन में चली जाती है तो सब कुछ समाप्त हो सकता है।
अनियंत्रित महत्वाकांक्षा कुछ इसी प्रकार से है। आज पृथ्वी की यह दुर्दशा अनियंत्रित महत्वाकांक्षा के कारण हो रही है। आधुनिकता की दौड़ में लोग समझ नहीं पा रहे हैं की रहने के लिए दूसरा संसार नहीं है? नवरात्रि के दसवें दिन रावण का दहन हमारे अंतर मन में छपी अनियंत्रित महत्वाकांक्षा को जला देना है। रावण भोग का प्रतीक है और राम त्याग का। सभ्यता के उत्थान और बैलेंस के लिए मनुष्य को पाने से अधिक छोड़ना आना चाहिए, भोग से अधिक त्याग का सबक याद होना चाहिए। शायद इसीलिए, हर साल रावण को जलाकर अनियंत्रित महत्वाकांक्षा को भस्म करने की एक ईमानदार कोशिश की जाती है।
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