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गङ्गावतरण दिवस विशेष

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आलेख: डॉ. सुरेन्द्र कुमार शर्माअध्येता – पं. मधुसूदन ओझा साहित्य एवं लिपि विशेषज्ञसमन्वयक – पाण्डुलिपि संसाधन केन्द्र, वैदिक हेरिटेज एवं पाण्डुलिपि शोध संस्थान,राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर

आर्य-संस्कृति में गायत्री, गीता एवं गाय की जो प्रतिष्ठा है, वह समन्वित देवनदी गङ्गा में विद्यमान है। महाभारत में इसे त्रिपथगामिनी, वाल्मीकीय रामायण में त्रिपथगा और रघुवंश तथा कुमारसम्भव में एवं ‘शाकुन्तल’ नाटक में त्रिस्रोता कहा गया है-

गङ्गा त्रिपधगा नाम दिव्या भागीरथीति च ।
श्रीन् पथो भावयन्तीति तस्मात् त्रिपथगा स्मृता ।।

यह त्रिपथगा स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताल लोक को पवित्र करती हुई प्रवाहित होती है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण मे गङ्गा को त्रैलोक्यव्यापिनी कहा गया है-

‘ब्रह्मन् विष्णुपदी गङ्गा त्रैलोक्यं व्याप्य तिष्ठति’

शिवस्वरोदय में इडा नाडी को गङ्गा कहा गया है। पुराणों में गङ्गा को ‘लोकमाता’ कहा गया है-

पापबुद्धिं परित्यज्य गङ्गायां लोकमातरि । स्नानं कुरुत हे लोका यदि सद्गतिमिच्छ्थ ।।

तैत्तिरीय आरण्यक तथा कात्यायन श्रौतसूत्र में गङ्गा का उल्लेख हुआ है। वेदोत्तरकाल में गङ्गा को अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। पुराणों में गङ्गा के प्रति अतिशय पूज्यभाव प्रकट किया गया है।
वाल्मीकीय रामायण के अनुसार गङ्गा की उत्पत्ति हिमालय पत्नी मैना से बतायी गयी है। गङ्गा उमा से ज्येष्ठ थीं। पूर्वजों के उद्धार के लिये भगीरथ ने अत्यधिक कठोर तप किया। ब्रह्माजी भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो गये। गङ्गा को धारण करने से लिये भगीरथ ने अपने तपसे भगवान् शंकर को संतुष्ट किया। एक वर्ष तक गङ्गा उनकी ही जटाओं में भटकती रहीं। अन्त में प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने एक जटा से गङ्गा-धारा को छोड़ा। देवनदी गङ्गा भगीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम में गयीं एवं उन्होंने सगरपुत्रों का उद्धार किया।
देवीभागवतपुराणानुसार भगवान् विष्णु की तीन पत्नियाँ थीं। कलह के कारण परस्पर के शापवश गङ्गा और सरस्वती को नदी रूप में पृथ्वीपर आना पड़ा। गङ्गा अवतरित होकर पतित पावन बनीं —

गङ्गे यास्यसि पश्चात्त्वमंशेन विश्वपावनी ।
भारतं भारती शापात् पापदाहाय पापिनाम् ।
भगीरथस्य तपसा तेन नीता सुकल्पिते ।।

सत्यवादी नृप हरिश्चन्द्र के वंश में आठवीं पीढ़ी में सगर का जन्म हुआ था। काशी में गङ्गा के घाटपर (वर्तमान हरिश्चन्द्र- घाटपर) राजा हरिश्चन्द्र ने चाण्डाल। का दास्यकर्म किया था। कुछ लोगों का तर्क है कि पूर्व से ही विद्यमान गङ्गा को भगीरथ क्यों लाये ? अस्तु, स्कन्दपुराण के श्लोकों से उपर्युक्त शङ्का का समाधान हो जाता है-

त्रयाणामपि लोकानां हिताय महते नृपः ।
समानैषीत्ततो गङ्गां यत्रासीन्मणिकर्णिका ॥
प्रागेव मुक्तिः संसिद्धा गङ्गासङ्गात् ततोऽधिका ।
यदा प्रभृति सा गङ्गा मणिकर्ण्यां समागता ।।

‘तीनों लोकों के महान् कल्याण के लिये राजा भगीरथ गङ्गा को पृथ्वी पर लाये, जहाँ सबको मुक्ति प्रदान करने वाली मणिकर्णिका पहले से ही विराजमान थी। अब गङ्गा के आ जाने से उसका प्रभाव और अधिक बढ़ गया।’ इस प्रकार स्कन्दपुराण के श्लोकों से सुस्पष्ट है कि वाराणसी में गङ्गा- आगमन के पूर्व मणिकर्णिका अवस्थित थी।
श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्धानुसार राजा बलि से तीन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान् वामन का बायाॅं चरण ब्रह्माण्ड के ऊपर चला गया। वहाँ ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ के पादप्रच्छालन के बाद उनके कमण्डलु में जो जलधारा स्थित थी, वह उनके चरणस्पर्श से पवित्र होकर ध्रुवलोक में गिरी और चार भागों में विभक्त हो गयी- 1- सीता, 2- अलकनन्दा, 3- चक्षु, 4- भद्रा। सीता ब्रह्मलोक से चलकर गन्धमादन के शिखरों पर गिरती हुई पूर्व दिशा में चली गयी। अलकनन्दा अनेक पर्वत-शिखरों को लाँधती हुई हेमकूट से गिरती हुई दक्षिण में भारतवर्ष चली आयी। चक्षु नदी माल्यवान् शिखर से गिरकर केतुमालवर्ष के मध्य से होकर पश्चिम में चली गयी। भद्रा नदी
गिरि-शिखरो से गिरकर उत्तरकुरुवर्ष के मध्य से होकर उत्तर दिशा में चली गयी।
विन्ध्यागिरि के उत्तरभाग में इन्हें भागीरथी गङ्गा कहते हैं और दक्षिण भाग में गौतमी गङ्गा (गोदावरी) कहते हैं।
भारतीय साहित्य में गङ्गावतरण की दो तिथियाँ उपलब्ध होती है। प्रथम वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया (आदित्यपुराण) और द्वितीय ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की हस्तनक्षत्रसहित बुधवार से युक्त दशमी तिथि (स्कन्दपुराण) द्वितीय तिथि गङ्गा दशहरा की है. जो राजा भगीरथ से सम्बद्ध प्रतीत होती है।
गङ्गाजल शारीरिक एवं मानसिक क्लेशों का पूर्णतः विनाशक है। अस्तु, पुराणों में स्थान-स्थान पर इसकी महिमा का उल्लेख हुआ है। गङ्गा वस्तुतः लोकमाता एवं विश्वपावनी है। गङ्गा के आश्रय से मानव भौतिक उन्नति नहीं अपितु मानवता को उपकृत करने-हेतु आध्यात्मिक उन्नति भी कर सकता है। अविलम्ब सद्गति के इच्छुक सभी स्त्री-पुरुषों के लिये गङ्गा ही एक ऐसा तीर्थ है, जिनके दर्शन मात्र से सारा पाप नष्ट हो जाता है। गङ्गा के नामस्मरण से पातक, कीर्तन से अतिपातक और
दर्शन-मात्र से महापातक भी नष्ट हो जाते हैं। जैसे अग्नि का संसर्ग होने से रूई का ढेर क्षणभर में भस्म हो जाता है, वैसे हैं गङ्गा-जल के स्पर्श होने पर मनुष्य के सारे पाप एक क्षण में ही दग्ध हो जाते हैं। जो सैकडों योजन दूर से भी गङ्गा-गङ्गा कहता है, वह सब पापों से मुक्त होकर श्रीविष्णुलोक को प्राप्त होता है
शुकदेवजी कहते हैं-

न ह्येतत् परमाश्चर्यं स्वर्धुन्या यदिहोदितम् ।
अनन्तचरणाम्भोजप्रसूताया भवच्छिदः ।। संनिवेश्य मनो यस्मिञ्छ्रद्धया मुनयोऽमलाः । त्रैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम् ॥

गङ्गाजी की महिमा के विषय में जो कुछ कहा गया उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, क्योंकि गङ्गाजी भगवान् के उन चरण-कमलों से निकली हैं, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणों के कठिन बन्धन को काटकर तुरंत भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गङ्गाजी संसार का बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है ।।

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