बात बराबरी की ! मर्दों को लगता है, वफादार सिर्फ पुरुष होता है:उनके लिए ज्योति मौर्या केस नया नहीं; औरत तो हमेशा से बेवफा रही है
एक बड़े राष्ट्रीय चैनल के प्राइम टाइम पर टेलीविजन पर खबर चल रही थी। ऊपर बड़े बोल्ड अक्षरों में हेडलाइन थी- ‘पत्नी को प्रयागराज से वापस बुलाया।’ नीचे लिखा था- ‘पति का पत्नी को पढ़ाने से इनकार।’ रिपोर्टर ने बड़ी मेहनत से खोजकर पिंटू सिंह को ढूंढ निकाला था, जिसने अपनी पत्नी को पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेजा था। लेकिन तभी एक घटना से वह इतना आहत हुआ कि भरे टेलीविजन पर आकर पूरी दुनिया के सामने कहने लगा, मैं इस घटना से बुरी तरह आहत हो गया हूं। अब कोई भी अपनी पत्नी को नहीं पढ़ाएगा। स्क्रीन पर पत्नी भी दिखाई दी, जो सफाइयां देती फिर रही थी, ‘हर कोई एक जैसा नहीं होता। मैं ज्योति मौर्या नहीं हूं।’
एक बड़े राष्ट्रीय चैनल की यह बड़ी रिपोर्ट है। दरअसल ये इकलौती रिपोर्ट भी नहीं है और सिर्फ इस एक चैनल की नहीं है। पिछले कुछ दिनों से सारे चैनलों के रिपोर्टर सब काम छोड़कर ऐसे पतियों की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं, जिन्होंने अपनी पत्नियों को पढ़ने के लिए शहर भेजा हो या उन्हें आगे पढ़ाकर अफसर बनाने की ख्वाहिश रखते हों।
यह मुद्दा रातोंरात राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है। क्या मर्द, क्या औरत, सब इसी फिक्र में हलकान हैं कि पत्नी को पढ़ाया तो अफसर बनकर वो पति को छोड़कर भाग जाएगी।
कुल मिलाकर औरत को उसकी औकात को रखना और अगर किसी कारणवश वो उसे भूलने लगे तो उसे वो सीमारेखा याद दिलाना भी इसी समाज की जिम्मेदारी है। ये बात अलग है कि सारी औकात, सारी हैसियत, सारी नैतिकता, सारी सीमा रेखा सिर्फ औरतों की ही है। मर्दों की कोई नैतिकता नहीं। कोई सीमा भी नहीं क्योंकि एक ज्योति मौर्या ने जो किया है, वो मर्द दसियों नहीं, सैकड़ों नहीं, हजारों भी नहीं, बल्कि लाखों की संख्या में असंख्य पुश्तों से करते आए हैं, लेकिन ये बात आज तक अखबार की हेडलाइन नहीं बनी। प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा नहीं बनी। रिपोर्टर की खोजी रिपोर्ट नहीं बनी।
इस देश के इतिहास में आज तक ऐसा नहीं हुआ कि रिपोर्टरों ने खोज-खोजकर ऐसे मर्दों की फेहरिस्त तैयार की हो, जिन्होंने अफसर बनने, अमीर बनने, सफल बनने के बाद अपनी पत्नियों को छोड़ दिया। अनपढ़ बीवी आजीवन गांव में रही और वो शहर में दूसरी पढ़ी-लिखी, खूबसूरत औरत से दूसरा ब्याह रचाकर सुख और मौज से रहते रहे। सम्मान से सिर ऊंचा करके समाज में उठते-बैठते रहे। किसी ने उन मर्दों को सवालिया निगाहों से नहीं देखा। किसी ने उनके चरित्र पर उंगली नहीं उठाई। किसी ने उनका नाम भरे बाजार में नहीं उछाला। किसी रिपोर्टर ने उन पर खोजी रिपोर्ट नहीं की।
एक ज्योति मौर्या को सब के सब आदमी छोड़ने वाली कुलटा औरत बता रहे हैं। सच तो ये है कि इसके पहले सैकड़ों सालों से मर्द औरतों को छोड़कर जाते रहे, लेकिन किसी ने उन मर्दों को औरत छोड़ने वाला बदचलन मर्द नहीं कहा। वो सारी औरतें ठुकराई हुई परित्यक्ता कहलाई गईं। जैसे हर दुख, हर शर्म, हर नाकामी का नाम सिर्फ औरत के लिए है।
हिंदी के प्रख्यात लेखक तुलसीराम ने आजीवन देश की राजधानी की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बनकर आदर और सम्मान की जिंदगी जी। उनकी आत्मकथा ने जाने कितनी जिंदगियों को झकझोरा। सबने उस आत्मकथा की ईमानदारी की कसमें खाईं। लेकिन एक शख्स का नाम उस आत्मकथा से नदारद था। उनकी वह पहली पत्नी राधादेवी, जिनके साथ उनका ब्याह दो साल की उम्र में हो था।
गौने के बाद उसी पत्नी के गहने बेचकर उस पैसे से तुलसीराम पढ़ने के लिए शहर आए। राधादेवी के मायके से भी उनके लिए पैसे और अनाज की मदद आती रही। शहर आकर पढ़-लिखकर वो जेएनयू में प्रोफेसर हो गए। यहां दूसरी औरत से ब्याह कर एक दूसरी जिंदगी जीने लगे और उस औरत को पूरी तरह भुला दिया, जिसकी बदौलत वो यहां तक पहुंचे थे।
दो साल की उम्र में हुए बाल विवाह की जिम्मेदारी कोई उनके माथे नहीं डाल रहा। लेकिन सवाल ये है कि उस औरत का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी कहीं नहीं किया। राधादेवी को मानो उन्होंने जीते जी दफना दिया। मुर्दहिया की असली मुर्दहिया तो वो स्त्री ही थी, जिसने पति के रहते हुए भी आजीवन विधवा की तरह बेनाम जिंदगी बसर की।
राधादेवी अकेली वो मुर्दहिया नहीं हैं। इस देश का इतिहास ऐसी असंख्या मुर्दहिया स्त्रियों से भरा पड़ा है, जिनकी कहानी कहीं दर्ज नहीं हुई।
ऐसी ही एक कहानी है सुनीता मंजुले की सैराट जैसी कालजयी फिल्म बनाने वाले फिल्म डायरेक्टर नागराज मंजुले की पत्नी। 17 साल की उम्र में जब नागराज से उनका ब्याह हुआ तो वो कोई बड़े फिल्म डायरेक्टर नहीं थे। वो खुद शहर में रहकर पढ़ाई कर रहे थे और पत्नी गांव में परिवार की सेवा। हर बार छुट्टियों में वो गांव आते, पत्नी के साथ संबंध बनाते और उसके प्रेग्नेंट होने पर जबरन अबॉर्शन करवा देते। सालों तक वो इस उम्मीद में जीती रही कि एक दिन वो भी शहर जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जब नागराज की फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला, तब भी पूरा परिवार दिल्ली गया लेकिन सुनीता गांव के उस घर में अकेली बंद थी।
मीडिया के सैकड़ो-हजारों पन्नों में बतौर फिल्म निर्देशक नागराज मंजुले की महानता की हजारों कहानियां हैं। सुनीता मंजुले की एकाध कहानियां। नागराज मंजुले को किसी मीडिया ट्रायल से नहीं गुजरना पड़ा। उनकी ये कहानी राष्ट्रीय बहस का मुद्दा भी नहीं बनी।
रामविलास पासवान, उदित नारायण समेत ऐसी अनगिनत कहानियां हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि से, छोटे कस्बों से शहर जाकर, पढ़कर एक दिन बड़े आदमी बन गए अनगिनत मर्दों ने अपनी अनपढ़, कमजोर पत्नियों को छोड़ दिया और शहरों में दूसरी शादियां कर लीं। कभी तलाक देने या उन छोड़ी गई स्त्रियों को ढंग से गुजारा-भत्ता तक देने की जहमत नहीं उठाई। लेकिन किसी समाज की नैतिकता, मर्यादा कभी आहत नहीं हुई। किसी के सीने पर सांप नहीं लोटा। किसी एंकर ने न्यूज चैनल पर मातम नहीं मनाया।
ये सब सिर्फ औरत के आगे बढ़ने, औरत के अफसर बनने और औरत के अपने पति को छोड़ देने पर होता है। और वो भी ऐसा पति, जो पहले से झूठा और मक्कार इंसान है और मीडिया के सामने जाकर रूदाली बना हुआ है। आलोक मौर्या मीडिया में जाकर रो-रोकर अपनी कहानी ऐसे सुना रहा है, मानो उसके साथ कितना बड़ा अन्याय हो गया हो।
वो आदमी, जिसने खुद झूठ बोलकर, अपने बारे में गलत जानकारी देकर ज्योति से शादी की थी। वो मीडिया में आकर बोल तो ऐसे रहा है कि मैंने अपनी पत्नी को एसडीएम बनवा दिया, जैसे ज्योति की जगह उसने ही पढ़ाई की और उसने ही परीक्षा दी। इतना ही काबिल था तो खुद ही परीक्षा पास करके एसडीएम बन जाता।
आपके बेलगाम सामंती विशेषाधिकारों का समय तो है नहीं। ये तो कानून और संविधान का समय है. आप टीवी चैनल के सामने और टीवी चैनल आपके सामने जितना भी चीख-चिल्ला लें, अंतत: मामले पर फैसला तो अदालत करेगी और अदालत जेंडर देखे बिना स्त्री और पुरुष दोनों को अपनी मर्जी का जीवन और जीवन साथी, दोनों चुनने की इजाजत देती है।
आप कांव-कांव करते रहिए। ज्योति अपना काम करेगी और अदालत अपना। और हां, ये तो बस शुरुआत है। अभी ज्योति जैसी सैकड़ों, हजारों लड़कियां पढ़-लिखकर अफसर भी बनेंगी और तलाक भी मांगेंगी। बस देखते रहिए।
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