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मांँ कामाख्या के रजस्वला का उत्सव है -“अंबुवाची मेला ” ;

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मांँ कामाख्या के रजस्वला का उत्सव है -“अंबुवाची मेला ” ;

         लेखिका – कनक लता जैन
गुवाहाटी (असम)

भारतवर्ष देवी – देवताओं की भूमि है। यहाँ अनेक मंदिर है। हर मंदिर अपने आप में एक रहस्य समेटे हुए है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर असम राज्य का गुवाहाटी जिसे कामरूप भी कहा जाता है के नीलांचल पर्वतों पर स्थिति है मांँ कामख्या का रहस्यमय शक्ति पीठ ।।
  तिलिस्मी है यह नगरी जो जादू-टोना के साथ -साथ तंत्र -मंत्र की भी जननी है। यहांँ नदियों का जल भी अपना रंग बदल लेता है। पर्वतों  का रंग नीला है, जमीन पर चारो ओर हरियाली है।यहांँ लोहित नदी का प्रचंड रूप भी ब्रह्मपुत्र में समाहित होकर शांत हो जाता है। नदियों के बीच बहता एक मात्र नद ब्रह्मपुत्र का विस्तार इस धरा पर अबूझ और अनंत दिखाई पड़ता है।।

 स्थानीय लोगो के अनुसार यहांँ की तांत्रिक सिद्धियां बहुत प्रभावशाली है क्यों की देवी यहांँ जागृत अवस्था में है। शायद इसीलिए देवी की देदीप्यमान अनुभूतियों के साथ श्रद्धालुओं की पीढ़ी दर पीढ़ी गुजर गई।भले ही आस्था के कालखंड अतीत का हिस्सा बन गए ।।
मगर विराट आस्था की नगरी कामरूप कामाख्या, तांत्रिक विद्या की सर्वोच्च सत्ता के रूप में आज भी प्रतिष्ठित है।।

यह जान कर आप हैरत तो जरूर होगे की साल के तीन दिन इस मंदिर के कपाट खुद ही बंद हो जाते है ,क्यों कि इस दौरान प्रकृति स्वरूपा शक्ति अपने मासिक धर्म के चक्र से गुजरती है और यह तीन दिन उनके विश्राम का समय होता है।
अंबुवाची मेला भी इसी पाठ्यक्रम का एक उत्सव है। क्यों की मैं खुद इस मंदिर में कई बार जा चुकी हूंँ, आपको बता दू कि
इस मंदिर में देवी की कोई विशेष मूर्ति स्थापित नही है। मैने स्वयं देखा है, एक गुफा के अंदर पत्थर की एक शिला है जिसे योनि कुंड कहते है जो सफेद कपड़े से ढकी रहती है । एक अदृश्य झरने का पानी शिला पर रात -दिन बहते रहता है इसलिए वो शिला पानी में ही डूबी रहती है।।
वैसे तो इस मंदिर में भक्तो की कतार लगी रहती है।
आम दिनों में भी श्रद्धालुओं के लिए योनि कुंड के जल को हाथो से छू पा लेना ही सौभाग्य की बात है।
कहते है देवी के रजस्वला होने के दौरान दरार युक्त पत्थर की शिला जो सफेद वस्त्र से ढकी होती है का वस्त्र तरल लाल हो जाता है और मंदिर के कपाट खुद ही बंद हो जाते है।।
इस समय आषाढ़ का महीना होता है। जब असम में जम कर बारिश होती है। तीन दिन तक ब्रह्मपुत्र नद में जल के उफान के साथ पानी मटमैला लाल दिखाई पड़ता है।
इसी दौरान तीन दिन तक मंदिर के प्रांगण में अंबुवाची मेला लगता है।।
अंबु का अर्थ है जल और वाची का अर्थ है विकसित होना। (इसका सीधा अर्थ स्त्रीयों के गर्भाशय से जुड़ा है)।।

आपको जानकारी के लिए बता दू कि, असम के जो मूल स्थानीय लोग है उन में मैंने यह रिवाज देखा है कि जब घर की बेटी पहली बार मासिक धर्म से गुजरती है तब आस पास के लोगो को बुलाकर घर में उत्सव मनाते है। वैसे मैं भी इस तरह के उत्सव में शामिल हो चुकी हूँ ।

क्यों कि इस मंदिर को तंत्र साधना का प्रमुख स्थान माना जाता है। यहांँ हर साल देश विदेश से तांत्रिक अंबुवाची मेले में आते है। मांँ का आशीर्वाद पा कर तंत्र मंत्र में सिद्धियां प्राप्त करतें है।।
देवी के मासिक धर्म के तरल वस्त्र का एक टुकड़ा प्राप्त करना भक्तों के लिए सौभाग्य की बात है क्योंकि इसे अत्यधिक शुभ और शक्तिशाली माना जाता है।अंबुवाची मेले को अमेटी या तांत्रिक प्रजनन उत्सव के रूप में भी जाना जाता है।।

अंबुवाची मेले के पहले तीन दिन क्षेत्र में कृषि गतिविधियांँ, पवित्र ग्रंथों का पाठ और मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश वर्जित होता है। साथ ही मंदिर के आसपास एकत्रित होने वाले भक्तों द्वारा कोई भी धार्मिक क्रिया नहीं की जाती । यह पाबंदी बिल्कुल वैसी ही है जो हिन्दू रीति रिवाज में मासिक धर्म के दौरान घर की महिलाओं के लिए होती है ।
अंबुबाची मेले का नजारा कुंभ मेले से काफी मिलता-जुलता है, क्योंकि शक्ति परंपरा के भक्त ,अघोरी और सन्यासी बड़ी संख्या में यहांँ इकट्ठा होते हैं।
तांत्रिक शक्ति पंथ का प्रदर्शन कई साधु जो साल भर अदृश्य रहते हैं,वो भी इस मेले में आना नही भूलते हैं । वजन उठाने एक गड्ढे में अपना सिर रखने,घंटों तक एक पैर पर सीधे खड़े होने आदि कठोर तप अनुष्ठान करते देखे जाते हैं।

चौथे दिन वस्त्र आदि बदल कर पूजा अर्चना कर मंदिर के कपाट खोले जाते है। भक्तों की भीड़ कतार में मांँ के दर्शनार्थ उमड़ पड़ती है।।
इस वर्ष (2023) 22 जून से 25 जून तक मेला आयोजित होगा।।

पुराणों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि जब सती अपने मायके गई थी, तब पिता दक्ष ने शिव जी के बारे में अपमानजनक शब्द कहे। उनका उपहास किया जिस से आहत सती ने यज्ञ कुंड में कूद कर जान दे दी।
सती की अग्नि समाधि से शिव ने प्रचंड रूप धारण कर लिया,देवी सती के जले हुए शरीर को लेकर कैलाशपति उन्मत की भांति सभी दिशाओं को थर्राने लगे। प्राणी से लेकर देवता तक त्राहिमाम मांगने लगे। तब भयानक संकट देखकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के देह को काट कर 51कर दिए। यह टुकड़े जहा भी गिरे वही शक्ति पीठ बने। सती के कमर के नीचे योनि का भाग नीलांचल पर्वतों पर आ गिरा था। यही कामाख्या शक्ति पीठ बना है ।। भगवान शंकर संयत हुए और समाधि में लीन हो गए ।।


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