■ बाल मुकुंद जोशी
पत्रकारिता जब विश्लेषण को छोड़ विद्वेष पर आधारित हो जाती है तो उसका पतन शुरू हो जाता है। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम पत्रकार की साख और प्रकाशन की विश्वसनीयता पर पड़ता है। देश के साथ-साथ राजस्थान में भी विद्वेष पर आधारित पत्रकारिता का अध्याय लिखा जाने लगा है। यहां पिछले कुछ वर्षों तक स्वस्थ पत्रकारिता का विकास हुआ और कुछ स्वस्थ परंपराएं भी विकसित हुई। आज भी राजस्थान के ज्यादातर समाचार पत्र और चैनल इन मान्यताओं का पालन करते हैं और पत्रकारिता को व्यक्तिगत दुर्भावना और निजी संबंधों से ऊपर रखते है। लेकिन मीडिया का एक छोटा सा वर्ग पत्रकारिता के तमाम मापदंडों को ताक पर रखकर अपने अहम को संतुष्ट करने में लगा है। ताजा उदाहरण एक अल्प प्रसारित दैनिक अखबार का है जिसने पहले पन्ने पर बाइलाइन के साथ खबर लगाई कि दिल्ली में 16 अक्टूबर को एक बैठक में राहुल गांधी ने अशोक गहलोत से नाराजगी व्यक्त की। रिपोर्टर ने इस खबर को जासूसी उपन्यास के अंदाज में इतना चटकारेदार तरीके से लिखा कि मानो वे खुद उस बैठक में मौजूद हो। बाद में पता लगा कि उस बैठक में राहुल गांधी थे ही नहीं। इसी तरह पहले भी यह अखबार ऐसे कई मौकों पर खुद को गलत साबित कर चुका है।
सवाल यह नहीं है की खबर सही थी या नहीं। चिंतित करने वाली बात यह है कि बिना किसी पुष्टि के किसी की छवि खराब करने के मकसद से लिखी गई ऐसी खबरों का प्रकाशन रोज हो रहा है। इसी तरह कुछ यूट्यूब चैनल भी इसी लाइन पर चलते हुए गहलोत और सचिन पायलट की रिश्तों पर मनमानी और एक तरफा टिप्पणियां कर खुद को गर्वित महसूस करते हैं। नौबत यहां तक पहुंच चुकी है कि पत्रकारों को मालिकों को खुश करने के लिए मनगढ़ंत खबरें न लिखने पर या महज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल होने पर नौकरी से हाथ धोना पड़ रहा है।
दिल्ली में बैठकर जयपुर की खबर लिखने वाले एक-दो स्वनामधन्य पत्रकार इस बात से भी बेखौफ हैं कि एक पत्रकार के लिए उसकी खबर गलत साबित होना कितना अपमानजनक है।ऐसा करने वाले पत्रकार किन प्रलोभनों या मजबूरियों में यह सब कर रहे हैं वे जाने लेकिन इससे समूचे पत्रकार जगत का सिर तो नीचा होता ही है।
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