वसुंधरा को CM नहीं बनाने की इनसाइड स्टोरी:9 महीने पहले लिखी स्क्रिप्ट; दो हारे नेताओं के पास थी बगावत रोकने की जिम्मेदारी
जयपुर
भाजपा आलाकमान को मालूम था कि राजस्थान में भाजपा गुटों में बंट गई है। मार्च से पहले प्रदेश अध्यक्ष रहते सतीश पूनिया और वसुंधरा राजे के बीच बन नहीं रही थी।
राजस्थान में साल 2023 अशोक गहलोत के बाद वसुंधरा राजे और वसुंधरा राजे के बाद अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के रिवाज को तोड़ने वाला रहा। ये साल प्रदेश नेतृत्व में परिवर्तन की बड़ी घटना के लिए बरसों याद किया जाएगा।
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भाजपा ने राजनीति में सबसे बड़ा उलटफेर करते हुए नए चेहरे भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी। BJP आलाकमान ने कई ऐसे फैसले कर वसुंधरा राजे को CM की कुर्सी से दूर करने के संकेत दे दिए थे। असल में इसकी कहानी करीब 9 महीने पहले लिखी गई थी।
इस रिपोर्ट में पढ़िए– वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर करने की राजस्थान की राजनीति की सबसे बड़ी व चर्चित घटना की इनसाइड स्टोरी…
RSS की कुछ शर्तें और ‘खुफिया’ तीन सर्वे, जो राजे को पड़े भारी
भाजपा आलाकमान ने पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के 10 फरवरी को आए आखिरी लोकलुभावन बजट के बाद से ही सर्वे शुरू कर दिए थे और RSS के मन को टटोलना भी। भाजपा ने एक गुपचुप में सर्वे भी चलाया और रेंडमली हर विधानसभा के कुछ लोगों से पूछा गया कि वे राजे को CM देखना चाहते हैं कि नहीं।
सर्वे में बजट के पेश होने के बाद भाजपा और कांग्रेस के बीच बराबर टक्कर होने का माहौल बन गया था, लेकिन जनता ने गहलोत और राजे के राजनीतिक कार्यकाल को लेकर कोफ्त जताई थी। सर्वे से पता चला था कि गहलोत और राजे के राज से लोग ऊब चुके हैं।
अपने सर्वे के आधार पर BJP ने पहले ही तय कर लिया था कि अब एक बार गहलोत एक बार वसुंधरा वाली परंपरा बंद करने का समय आ गया है।
वहीं, RSS ने भी विधानसभा चुनाव 2018 का हवाला देते हुए राजे को CM चेहरा बनाने से दूर रखने की राय रख दी थी। RSS ने साफ कहा था कि यदि राजे को ही खुलकर CM पद का दावेदार घोषित कर दिया तो भाजपा की राह मुश्किल हो जाएगी। उनकी राय थी गहलोत और राजे के राज को जनता 25 सालों से देख भी रही है, अब परंपरा बदलने का समय है।
भाजपा ने बजट के बाद फिर टिकट वितरण से पहले और बाद में भी सर्वे किए थे। पता लगाने का प्रयास किया था कि किन सीटों पर स्थिति नाजुक है। टिकट वितरण के बाद मतदान से पहले हुए सर्वे में जिन सीटों पर स्थिति टाइट थी, उन्हें आगाह भी कर दिया गया था। ऐसी सीटों में नेता प्रतिपक्ष रहे राजेंद्र राठौड़ और उपनेता प्रतिपक्ष रहे सतीश पूनिया की सीट भी शामिल थी। इस सर्वे में भाजपा को बिना CM चेहरे के भी बहुमत मिलने का इशारा मिल गया था।
आलाकमान ने राजे गुट की बात तो सुनी, लेकिन मानी नहीं
भाजपा आलाकमान को मालूम था कि प्रदेश में भाजपा गुटों में बंट गई है। मार्च से पहले प्रदेश अध्यक्ष रहते सतीश पूनिया और वसुंधरा राजे के बीच बन नहीं रही थी। पूनिया का अध्यक्ष रहते कार्यकाल पूरा होने के बाद राजे गुट लगातार हटाने के प्रयास में जुटा हुआ था।
सीपी जोशी को प्रदेश BJP की कमान सौंपना पहला इशारा था कि अब राजस्थान से जुड़े फैसले आलाकमान दिल्ली बैठकर लेगा।
पार्टी ने राजे गुट को राजी रखने के लिए मार्च में सतीश पूनिया को पद से हटा तो दिया, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष किसे बनाएं, इसकी राय तक नहीं ली। आलाकमान ने अपनी पसंद को प्रदेशाध्यक्ष की कमान सौंपी। ऐसा दूसरी बार हुआ जब अध्यक्ष पद के लिए राजे को कॉन्फिडेंस में नहीं लिया गया। इससे पहले पूनिया को अध्यक्ष बनाने के दौरान भी राजे से राय नहीं ली गई थी।
23 मार्च 2023 को सीपी जोशी को प्रदेश BJP की कमान सौंपे जाने के साथ ही राजे को भाजपा का CM चेहरा नहीं बनाने की कहानी शुरू हो गई थी। पूनिया को पद से हटाने पर राजे गुट इतना खुश था कि कट्टर समर्थक यूनुस खान ने तत्काल दिल्ली पहुंचकर सीपी जोशी से मुलाकात कर उनका स्वागत किया था। हालांकि, राजे और उनके समर्थकों को बहुत जल्द पता चल गया कि आलाकमान के मन में कुछ और ही है। पार्टी के सभी फैसले अब केंद्र के इशारों पर ही होंगे।
जून से ही उठाया सवाल, दिल्ली के दौरे किए लगातार…लेकिन नहीं मिला जवाब
राजे ने जून से ही आलाकमान के नेताओं से पूछना शुरू कर दिया था कि विधानसभा चुनाव में उनकी क्या भूमिका होगी, लेकिन उन्हें आखिर तक इसका जवाब नहीं मिला। राजे राष्ट्रीय नेतृत्व से लगातार समय मांगती रहीं, लेकिन दिग्गज नेताओं ने उनसे मिलने को लेकर कोई रुचि नहीं दिखाई। इसके लिए उन्होंने जुलाई और सितंबर में दिल्ली में कई बार डेरा डाला। हालांकि, उनकी बहू की भी तबीयत खराब रही, इस कारण भी उनका दिल्ली आना जाना लगा रहा, लेकिन किसी भी नेता से उनकी मुलाकात नहीं हुई।
वसुंधरा राजे ने चुनाव में अपनी भूमिका को लेकर आलाकमान से सवाल जरूर किए, लेकिन उन्हें जवाब नहीं मिला।
आलाकमान ने दूसरा इशारा तब दिया जब राजस्थान विधानसभा चुनाव की रणनीति तय की जा रही थी। चुनाव कैंपेन कैसा होगा, यात्रा कैसे निकलेगी, कौन शामिल होगा, इसकी पूरी रणनीति बनाते समय राजे को दूर रखा गया। हालांकि, राजे को बतौर स्टार प्रचारक चुना गया, लेकिन कैंपेन की पूरी कमान नहीं सौंपी गई।
अगस्त में चुनावी संकल्प पत्र समिति के गठन में भी BJP ने अपनी चलाई और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल को चेयरमैन बनाया। राजे को प्रबंधन और संकल्प पत्र समिति में भी जगह नहीं दी गई। मुद्दा उठने पर प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह को कहना पड़ा कि राजे चुनाव प्रचार करेंगी।
पता था कि एक यात्रा निकाली तो विवाद बढ़ेगा, इसलिए चार भागों में बांटा
ढाई दशक में भाजपा की चुनावी यात्रा वसुंधरा राजे ने ही निकाली थी। भाजपा में ये माना जाता रहा कि जो भी चुनावी यात्रा निकालेगा, वही CM होगा। इस बार भाजपा आलाकमान ने यात्रा का प्रारूप ही बदल डाला। एक की बजाय 4 दिशाओं से अलग-अलग यात्राएं निकालीं।
आलाकमान को पता था कि यदि राजे को साइडलाइन कर एक यात्रा निकाली गई, तो किसी को महत्व देने या नहीं देने को लेकर विवाद की स्थिति बन जाएगी। पार्टी ने यात्रा को चार भागों में बांटकर विवाद का मौका ही नहीं आने दिया।
यह भी सच है कि वसुंधरा राजे परिवर्तन संकल्प यात्रा की केवल शुरुआत में ही दिखाई दीं।
आलाकमान ने तीसरा इशारा देते हुए अपनी रणनीति के तहत राजे को इन यात्राओं को रोड मैप फाइनल करने से भी दूर रखा। पार्टी आलाकमान ने अपने स्तर पर 4 चुनावी यात्राओं से राजस्थान को कवर करने की योजना बनाई। यात्रा के नेतृत्व और प्रबंध को लेकर भी जिम्मेदारियां अपने स्तर पर बांट ली।
राजे को यात्रा की शुरुआत से लेकर अंत तक सवाल का जवाब नहीं मिला कि इन चुनावों में उनकी भूमिका क्या रहेगी? क्या उन्हें CM फेस प्रोजेक्ट करेंगे? सितंबर में शुरू हुई ये यात्रा 18 दिन तक चली। राजे शुरुआत में तीन-चार यात्राओं में दिखाई दीं…जवाब नहीं मिला तो दूरी बना।
टिकट वितरण में भी नहीं होने दिया हावी, कट्टर समर्थकों के कटे टिकट
आलाकमान ने चौथा व साफ इशारा टिकट वितरण के दौरान दे डाला। हालांकि, राजे को टिकट को लेकर होने वाली सभी बैठकों में शामिल किया और वे प्रत्याशियों की सूचियों को लेकर जयपुर और दिल्ली की बैठकों में शामिल हुईं। आलाकमान ने उनकी बात भी सुनी, लेकिन उनकी इच्छा पर पूरी तरह अमल भी नहीं किया।
भाजपा आलाकमान ने अपने सर्वे के हिसाब से ही टिकटों का वितरण किया, इसमें राजे की खास नहीं चल पाई। राजे के कट्टर समर्थक रहे यूनुस खान, अशोक परनामी, राजपाल शेखावत के टिकट काट दिए गए। इन नेताओं को टिकट दिलाने को लेकर राजे के अंत तक किए गए सभी प्रयास विफल हो गए।
राजे को लेकर बयान देने वाले उनके समर्थकों में शामिल रहे कालीचरण सराफ, प्रहलाद गुंजल सहित कुछ नेताओं को इशारों में समझा दिया गया, जिससे उन्होंने भी चुप्पी साध ली।
भाजपा ने चुनाव प्रचार के समय वसुंधरा राजे को दरकिनार भी नहीं किया और बहुत अधिक तवज्जो भी नहीं दी।
कैंपेन में मोदी को ही रखा आगे, राजे को खास तवज्जो नहीं
भाजपा ने चुनाव प्रचार के समय जब भी राजे सभा में मौजूद रहतीं, तो मोदी-शाह या अन्य केंद्रीय मंत्री उन्हें पूरी तवज्जो देते रहे, लेकिन खास बात यह रही कि प्रचार पूरा अभियान मोदी के चहरे के इर्द गिर्द घूमता रहा।
मोदी ब्रांड और उनकी गारंटी सहित अन्य वादे किए गए। आलाकमान के सभी नेता CM फेस को लेकर पूछे गए मीडिया के सवालों का गोलमोल जवाब देते रहे। चुनाव के दौरान आलाकमान इतना हावी रहा। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने कमेंट भी किया कि यहां क्या मोदी मुख्यमंत्री पद का चेहरा हैं।
मोदी ने अपने रोड शो के दौरान या सभा स्थल पर आने के दौरान अपने साथ प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते केवल सीपी जोशी को रखा। आलाकमान को पिछले अनुभव से पता था कि राजे यहां भाजपा को रिपीट नहीं करवा सकीं।
वर्ष 2018 के चुनाव में ‘मोदी तुझसे बैर नहीं और राजे तेरी खैर नहीं’ के नारों की गूंज के बावजूद आलाकमान ने राजे को ही आगे किया था। तब सरकार रिपीट नहीं हो पाई थी और पार्टी को 2018 के चुनाव में 90 सीटों का नुकसान हुआ। राजे के शासनकाल में संघ को अक्सर नजरदांज करने का भी आरोप लगा।
बाड़ेबंदी की खबरों के बीच वसुंधरा राजे और उनके पुत्र दुष्यंत सिंह आलाकमान के बुलावे पर दिल्ली पहुंचे थे।
साइन कराने के प्रयास और बाड़ाबंदी की सूचना आलाकमान तक
सूत्रों के अनुसार चुनाव परिणाम के बाद राजे ने विधायकों को खुद के समर्थन के लिए दस्तखत तक करने का दबाव बनाया। वहीं बाड़ेबंदी तक का प्रयास किया गया। इस बात की सूचना कुछ विधायकों ने प्रदेश नेतृत्व को दी और प्रदेश नेतृत्व के जरिए ये सूचना पार्टी आलाकमान तक पहुंच गई।
राजे और उनके बेटे सांसद दुष्यंत सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तलब किया और स्पष्ट निर्देश दिए कि वे खुद के लिए अधिक प्रयास नहीं करें, कोई लाभ नहीं होने वाला है। इसके बाद राजे दिल्ली से जयपुर पहुंच गईं।
भाजपा के स्पष्ट बहुमत वाला परिणाम आने के बाद राजे को संकेत नहीं मिलने से वे नाराज भी थीं। आलाकमान ने उनके ऊपर लगातार नजरें जमाए रखीं थीं।
ये तस्वीर 12 दिसंबर को विधायक दल की बैठक की है। राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे को आलाकमान की भेजी पर्ची थमाई, जिसमें मुख्यमंत्री का नाम लिखा था।
12 दिसंबर: राजे बेखबर, पर्ची खुली तो चौंक गईं
राजस्थान की राजनीति में बदलाव का यादगार दिन 12 दिसंबर बना, जब अंतिम समय तक राजे को CM के नाम से बेखबर रखा गया। वसुंधरा राजे ने आलाकमान से मिली पर्ची के आधार पर CM पद के लिए पहली बार के विधायक भजनलाल शर्मा के नाम का प्रस्ताव रखा।
इस पर्ची से ही राजे ने भी CM का नाम जाना था, इससे पहले उन्हें भनक तक नहीं लगने दी गई। ये बात पर्ची खोलते समय उनके चौंकने से जाहिर हो चुकी थी। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में CM पद राजे से दूर जा चुका था।
CM घोषित करने से पहले दो हारे नेताओं को बुलाया
सूत्रों के अनुसार राजनाथ की मौजूदगी में CM के नाम की घोषणा होनी थी और सभी विधायकों को पार्टी कार्यालय पहुंचने के लिए बोल दिया गया था। इस दिन अचानक नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ और उपनेता प्रतिपक्ष सतीश पूनिया के पास आए फोन ने दोनों को चौंका दिया।
सतीश पूनिया और राजेंद्र राठौड़ उस विधायक दल की बैठक में मौजूद थे, ताकि बगावत होने पर उसे संभाल सकें।
दोनों नेताओं के पास बैठक शुरू होने से पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का फोन गया और उन्हें पार्टी कार्यालय पहुंचने के निर्देश दिए गए। दोनों के मन में सवाल उठा था कि हारे नेताओं को इस बैठक से पहले पहुंचने के निर्देश क्यों दिए गए हैं।
हालांकि, दोनों नेताओं को बताया गया कि CM पद के लिए जब नाम घोषित किया जाए, तब कहीं कोई विधायक विरोध का स्वर नहीं उठा दे। ऐसे में विधायकों को आलाकमान के आदेश के समर्थन में एकजुट रखने के लिए दोनों नेताओं को बुलाया गया।
इस कारण राठौड़ और पूनिया बैठक से पहले पार्टी कार्यालय पहुंचे थे। विधायक दल की बैठक शुरू होने से पहले ही दोनों को बाहर के कमरे में बैठा दिया गया। अंदर हॉल में बैठक शुरू हो गई। जब CM के लिए भजनलाल का नाम पुकारा गया, तो किसी भी विधायक ने आपत्ति नहीं जताई, ऐसे में राठौड़ और पूनिया की समझाइश की नौबत नहीं आई
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