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संसद की सुरक्षा में सेंध का मामला:6 में से 5 आरोपियों का पॉलीग्राफी टेस्ट होगा, कोर्ट ने सभी की कस्टडी 13 जनवरी तक बढ़ाई

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संसद की सुरक्षा में सेंध का मामला:6 में से 5 आरोपियों का पॉलीग्राफी टेस्ट होगा, कोर्ट ने सभी की कस्टडी 13 जनवरी तक बढ़ाई

लोकसभा में 13 दिसंबर को सागर शर्मा और डी मनोरंजन नाम के शख्स कूदे थे। इन्होंने रंगीन धुआं छोड़ा था। संसद के बाहर इनके साथी नीलम और अमोल शिंदे नारे लगा रहे थे। - Dainik Bhaskar

लोकसभा में 13 दिसंबर को सागर शर्मा और डी मनोरंजन नाम के शख्स कूदे थे। इन्होंने रंगीन धुआं छोड़ा था। संसद के बाहर इनके साथी नीलम और अमोल शिंदे नारे लगा रहे थे।

संसद की सुरक्षा में सेंध लगाने वाले 6 आरोपियों में से 5 का पॉलीग्राफ टेस्ट होगा। 2 आरोपियों मनोरंजन और सागर ने नार्को एनालिसिस और ब्रेन मैपिंग टेस्ट के लिए कोर्ट में अपनी सहमति दी है। बाकी तीन आरोपी अमोल, ललित और महेश भी पॉलीग्राफी टेस्ट के लिए तैयार हो गए।

छठवीं आरोपी और संसद के बाहर नारे लगाने वाली नीलम आजाद ने पॉलीग्राफ टेस्ट कराने से मना कर दिया है। दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में शुक्रवार (5 जनवरी) को मामले की सुनवाई हुई। एडिशनल जज हरदीप कौर ने दिल्ली पुलिस की मांग पर आरोपियों की पुलिस कस्टडी को 13 जनवरी तक बढ़ा दिया है।

कोर्ट में आज 5 जनवरी को क्या हुआ…
आरोपियों को शुक्रवार को कोर्ट में पेश किया गया। डिफेंस के वकील अमित शुक्ला ने दिल्ली पुलिस की पॉलीग्राफी टेस्ट की मांग पर कोर्ट से कानूनी सलाह के लिए 15 मिनट का समय मांगा। कोर्ट ने इसकी मंजूरी दी। इसके बाद उन्होंने आरोपी अमोल शिंदे, ललित झा, मनोरंजन डी, सागर शर्मा और महेश कुमावत से बात की। वह पॉलीग्राफ टेस्ट कराने के लिए तैयार हो गए।

वकील अमित शुक्ला ने दिल्ली पुलिस से मनोरंजन और सागर के नार्को और ब्रेन मैपिंग टेस्ट कराने का कारण पूछा। स्पेशल पब्लिक प्रोसिक्यूटर (SPP) अखंड प्रताप ने बताया कि इसकी सलाह एक एक्सपर्ट ने दी है और वे इससे बंधे हैं।

इस बीच, दिल्ली पुलिस ने मोबाइल डेटा रिकवर करने और जांच के लिए कोर्ट से पुलिस कस्टडी आठ दिनों तक बढ़ाने की मांग की। वकील अमित शुक्ला ने पुलिस कस्टडी का विरोध किया और कहा कि ज्यूडिशियल कस्टडी के दौरान डेटा से रिलेटेड पूछताछ की जा सकती है यहां तक कि न्यायिक हिरासत के दौरान पॉलीग्राफ टेस्ट भी किया जा सकता है।

इस पर SPP ने कहा कि UAPA, एजेंसी को 30 दिनों तक पुलिस हिरासत बनाए रखने का अधिकार देता है। SPP ने कोर्ट को बताया कि उन्हें फोरेंसिक साइंस लेबोरेट्री (FSL) से सोमवार तक मोबाइल फोन डेटा भी मिल जाएगा।

संसद में घुसपैठ का सीन रीक्रिएट किया गया था
संसद में 13 दिसंबर को हुई घुसपैठ के मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से बनाई गई कमेटी जांच कर रही है। CRPF डायरेक्टर अनीश दयाल सिंह की अगुआई वाली इस कमेटी ने 15, 16 और 18 दिसंबर को तीन अलग मौकों पर क्राइम सीन रीक्रिएट किया। इस कमेटी ने संसद में उस दिन ड्यूटी पर मौजूद सुरक्षाबल के जवानों से पूछताछ की और संसद सुरक्षा सेवा से उनकी संख्या के बारे में पूछा।

पॉलीग्राफ टेस्ट है क्या?
फोरेंसिक साइकोलॉजी डिवीजन के हेड डॉ. पुनीत पुरी के मुताबिक, पॉलीग्राफ टेस्ट के लिए कोर्ट से मंजूरी लेने की जरूरत होती है। पॉलीग्राफ टेस्ट नार्को टेस्ट से अलग होता है। इसमें आरोपी को बेहोशी का इंजेक्शन नहीं दिया जाता है, बल्कि कार्डियो कफ जैसी मशीनें लगाई जाती हैं।

इन मशीनों के जरिए ब्लड प्रेशर, नब्ज, सांस, पसीना, ब्लड फ्लो को मापा जाता है। इसके बाद आरोपी से सवाल पूछे जाते हैं। झूठ बोलने पर वो घबरा जाता है, जिसे मशीन पकड़ लेती है।

इस तरह का टेस्ट पहली बार 19वीं सदी में इटली के अपराध विज्ञानी सेसारे लोम्ब्रोसो ने किया था। बाद में 1914 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक विलियम मैरस्ट्रॉन और 1921 में कैलिफोर्निया के पुलिस अधिकारी जॉन लार्सन ने भी ऐसे उपकरण बनाए।

क्या पॉलीग्राफ टेस्ट में कही गई बातों का सबूत की तरह इस्तेमाल होता है?
2010 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पॉलीग्राफ टेस्ट में आरोपी की कही गई बातों को सबूत नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि यह सिर्फ सबूत जुटाने के लिए एक जरिया होता है।

इसे ऐसे समझिए कि अगर पॉलीग्राफ टेस्ट में कोई हत्या आरोपी मर्डर में इस्तेमाल हथियारों की लोकेशन बताता है, तो उसे सबूत नहीं माना जा सकता है। लेकिन, अगर आरोपी के बताए लोकेशन से हथियार बरामद हो जाता है तो फिर उसे सबूत माना जा सकता है।

इस मामले में कोर्ट ने यह भी कहा था कि हमें यह समझना चाहिए कि इस तरह के टेस्ट के जरिए किसी व्यक्ति की मानसिक प्रक्रियाओं में जबरन घुसपैठ करना भी मानवीय गरिमा और उसके निजी स्वतंत्रता के अधिकारों के खिलाफ है। ऐसे में ज्यादा गंभीर मामलों में ही कोर्ट की इजाजत से इस तरह की जांच होनी चाहिए।

पॉलीग्राफ मशीन कैसे धड़कनों और पसीने से सच पता कर लेती है?
एक पॉलीग्राफ मशीन में सेंसर लगे हुए कई सारे कंपोनेंट होते हैं। इन सभी सेंसर को एकसाथ मेजर करके किसी व्यक्ति के साइकोलॉजिकल रिस्पॉन्स का पता लगाया जाता है। इसे ऐसे समझिए कि किसी व्यक्ति को झूठ बोलते समय कुछ घबराहट होती है तो ये मशीन तुरंत उसे पता कर लेती है। आइए अब इस मशीन के काम करने के तरीके को समझते हैं…

  • न्यूमोग्राफ: व्यक्ति के सांस लेने के पैटर्न को रिकॉर्ड करके और सांस लेने की गतिविधि में बदलाव का पता लगाता है।
  • कार्डियोवास्कुलर रिकॉर्डर: यह किसी व्यक्ति की दिल की गति और ब्लड प्रेशर को रिकॉर्ड करता है।
  • गैल्वेनोमीटर: यह मशीन स्किन पर आने वाले पसीने की ग्रंथि में बदलाव को नोटिस करती है।
  • रिकॉर्डिंग डिवाइस: यह पॉलीग्राफ मशीन के सभी सेंसर से मिलने वाले डेटा को रिकॉर्ड करके उसका विश्लेषण करता है।

इस जांच में दो तरह के कौन से टेस्ट होते हैं?

इस जांच में इन दो तरह के टेस्ट होते हैं…

  • कंट्रोल क्वेश्चन टेस्ट: सबसे पहले व्यक्ति को पॉलीग्राफ मशीन से जोड़ने के बाद उससे सामान्य सवाल पूछे जाते हैं। इन सवालों के जवाब हां या ना में पूछे जाते हैं। ऐसा यह जांचने के लिए किया जाता है कि जब वह किसी सामान्य सवाल का जवाब देता है और जब उस घटना से जुड़े टफ सवाल का जवाब देता है तो उसके शरीर की प्रतिक्रिया कैसी होती है। इस समय व्यक्ति के सांस लेने की गति यानी ब्रीदिंग रेट, व्यक्ति का पल्स, ब्लड प्रेशर और शरीर से निकल रहे पसीने से यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति सही बोल रहा है या झूठ बोल रहा है।
  • गिल्टी नॉलेज टेस्ट: इसमें एक सवाल के कई जवाब होते हैं। सारे सवाल आरोपी के अपराध से जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिए कोई चोरी के आरोप में गिरफ्तार हुआ है तो उससे इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं… 5,000, 10,000 या 15,000 रुपए की चोरी हुई है? इस सवाल का आरोपी सही जवाब देगा तो उसकी हार्ट बीट सामान्य होगी, लेकिन जैसे ही वह झूठ बोलने की कोशिश करता है। उसकी हार्ट बीट, उसके दिमाग के सोचने के तरीके आदि से पता चल जाता है कि वह कुछ छिपा रहा है।

क्या पॉलीग्राफ टेस्ट में सच को छिपाया जा सकता है?
अमेरिका की साइकोलॉजिकल एसोसिएशन के मुताबिक, पूछताछ के दौरान शरीर में होने वाले बदलाव या घबराहट से यह तय नहीं किया जा सकता कि आरोपी कुछ छिपा रहा है या झूठ बोल रहा है। हालांकि यह सच को पता करने का एक माध्यम जरूर हो सकता है।

वंडरपोलिस की एक रिसर्च से ये पता चला है कि अगर कोई व्यक्ति अपने इमोशन को कंट्रोल में रख सकता है तो इस जांच से उस पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ता है।

अगर आरोपी के दिए सही जवाब को एक्सपर्ट गलत बताकर उस पर दबाव बनाने लगते हैं तो वह नर्वस होने लगता है। आमतौर पर उसके नर्वस होने पर ही ये मान लिया जाता है कि वह झूठ बोल रहा है। हालांकि कई मामलों में इस जांच के जरिए असली अपराधी को भी पकड़ा गया है।

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