श्रीमती अंजना शर्मा(ज्योतिष दर्शनाचार्य)(शंकरपुरस्कारभाजिता) पुरातत्वविद्, अभिलेख व लिपि विशेषज्ञ प्रबन्धक देवस्थान विभाग, जयपुर राजस्थान सरकार
वैशाख शुक्ल पंचमी ईशा के 509 वर्ष पूर्व आदिशंकराचार्य का जन्म कल कालडी ग्राम केरल में हुआ। अद्वैत दर्शन के प्रवर्तक आचार्य श्री ने आचार्य गोविंद भागवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की तथा 13 वर्ष की उम्र में प्रस्थानत्रय पर भाष्य किया। राजस्थान में आज भी आचार्य शंकर के हस्तलिखित ग्रंथो का विभिन्न ग्रंथागारो में संग्रह उपलब्ध होता है। जो आचार्य शंकर के प्राचीन ग्रंथो में पाठ भेद की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। राजस्थान में अद्वैत दर्शन की धारा निरंतर प्रवाहित होती रही है, इसके अधिकृत विद्वान समय-समय पर इस धरा पर जन्म लेते रहे हैं। आज भी अद्वैत दर्शन की परंपरा का निर्वाहन किया जा रहा है।
आचार्य शंकर ने संपूर्ण देश मे मठ स्थापना के साथ ही एक
और महान् कार्य किया, जिससे पान्थिक या साम्प्रदायिक कटुता कम हो मई। उस काल में मन्त्र-तन्त्र का पर्याप्त प्रचार हुआ था। वैदिक यातुर्मार्ग का यह एक नया अवतार था। शङ्कराचार्य जी ने तन्त्र की प्रमुख देवता भगवती शक्तिरूपिणी भवानी का स्तोत्र लिखा। तान्त्रिकों के श्रीचक्र बीजाक्षर आदि विषयों का गम्भीर अध्ययन करके उन्होंने ‘सौन्दर्यलहरी’ स्तोत्र लिखा। इसमें देवी भगवती के अद्भुत, अलौकिक कार्यकलापों का वर्णन है, तदुपरान्त उसका मानवी शरीर में जो निवास है, उसका भी परामर्श तान्त्रिक परिभाषा के अनुसार किया है। तन्त्र, अद्वैत, शक्तिपूजा इन सबका सङ्गम सौन्दर्यलहरी स्तोत्र में हुआ है। षोडशीमन्त्र, बीजाक्षरजप, योगिनीस्थान, भिन्न नाडियाँ, इन सबका रससिद्ध वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। इस स्तोत्ररन का भारत युगपुरुष आद्य शङ्कराचार्य में सभी जगह लोग नित्यपाठ करते हैं। इस तरह तन्त्र के प्रमुख सिद्धान्तों को अपनाकर उन्होंने उनको भी अपने वेदान्त में समा लिया।
श्रीशङ्कराचार्य जी ने अपनी असामान्य बुद्धि, वाक्पटुता, अगाधज्ञान तथा प्रचण्ड वैराग्य से पूरे भारतवर्ष को वेदान्त की ओर आकृष्ट किया। अनेक विरोधी सम्प्रदायों को परास्त कर उन्होंने सभी समाज को बह्मात्म्यैक्य का पाठ सिखाया। उनका अपना ऐसा जीवन कुछ भी नहीं था। अहंता, ममता, रागद्वेष सभी को वे जीत चुके थे। उन पर कभी-कभी आरोप किया जाता है कि उन्होंने संसार के प्रति औदासीन्य पैदा किया और लोगों को निष्क्रिय बनाया। पर सूक्ष्मता से देखा जाय, तो पता चलेगा कि उन्होंने परब्रह्म की अवस्था में संसार का अस्तित्व नहीं माना है, व्यावहारिक सत्ता में तो तो जगत् को माना ही है। माया का अर्थ केवल अभावरूपिणी क्षणिकता नहीं है, वह भी एक शक्ति है। फिर भी उसके पार जाकर सत्य तक जाना चाहिये। उसके लिए उन्होंने कर्म या भक्ति का अङ्गीकार किया।
सिद्धान्तों को इतना विशाल आयाम देकर सङ्कुचितता से व्यापकतम तत्त्व का अन्वेषण का प्रचार उन्होंने आमरण किया। उनके सिद्धान्तों का पश्चाद्वतीं भागवत पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह ‘निगमकल्पतरोर्गलितं फलम्’ है। पर उस फल के लिए एक ‘रसाल’ तैयार किया श्रीशङ्कराचार्यजी ने। इस कल्पतरु का निर्माण कर सभी परवर्ती दर्शनों एवं उपासनामार्गो पर अमिट प्रभाव छोड़ देने वाले शङ्कराचार्य सचमुच एक युगपुरुष थे।
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