अंकिता मिश्रा
– मुंबई

मन का आईना
ये कैसी भाग-दौड़ है, जो रुकने ही नहीं देती,
चेहरे पर मुस्कान है, पर आँखों को हँसने नहीं देती।
भीड़ के बीच इंसान इतना अकेला कैसे हो गया,
अपनी ही परछाईं से बचता-बचता डरने लगा, सो गया।
रिश्ते अब संदेशों में बँधकर रह गए हैं,
लोग पास होकर भी जैसे रह गए हैं।
खुशियाँ बिकती हैं, सुकून माँगने पर भी नहीं मिलता,
दिल तो चाहता है हल्का हो जाए, पर बोझ ढोना नहीं छूटता।
बारिश में भीगना अच्छा है, मगर डर है ठंड लग जाएगी,
धूप भली लगती है, मगर शायद त्वचा जल जाएगी।
इंसान हर बात में बचाव ढूँढता है,
जैसे जिंदगी नहीं… कोई इम्तिहान समझता है।
तमन्नाएँ बढ़ीं, मगर दिल छोटा होता गया,
जो अपना था वही कहीं और खोता गया।
अपने भीतर उतरकर देखो, वहाँ बहुत कुछ बाकी है—
थोड़ी-सी रौशनी, थोड़ी उम्मीद, थोड़ी तन्हाई भी प्यारी है।
अगर एक पल खुद से मिल लो, दुनिया नई लगने लगेगी,
थोड़ा थम जाओ… ये जिंदगी भी तुम्हें गले लगाने लगेगी।













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