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भारतीय न्याय व्यवस्था में पॉक्सो कैसे बनता है बच्चों का मददगार: जानिए पॉक्सो वकील श्वेता चुघ की एक्सपर्ट राय

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पॉक्सो एक्ट का पूरा नाम प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्स एक्ट है जिसे बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम भी कहा जाता है। इस कानून को 2012 में लाया गया था। इसके लाने की सबसे बड़ी वजह यही थी कि इससे नाबालिग बच्चियों को यौन उत्पीड़न के मामलों में संरक्षण दिया जा सके। हालांकि ये कानून ऐसे लड़के और लड़कियों दोनों पर लागू होता है, जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है। वहीं पॉक्सो एक्स के तहत दोषी पाए जाने पर कड़ी सजाओं का भी प्रावधान किया गया है। पहले इसमें मौत की सजा का प्रावधान नहीं किया गया था, लेकिन बाद में इस कानून में उम्रकैद, फांसी जैसी सजा को भी जोड़ दिया गया।
पोक्सो की एक्सपर्ट वकील श्वेता चुघ ने अपने साक्षात्कार में टी एन नेटवर्क को बताया कि किसी बच्चे का इस्तेमाल पोर्नोग्राफी के लिए करने ,किसी बच्चे की अश्लील तस्वीर को इकट्ठा करना या उसे किसी के साथ शेयर करने पर भी इस एक्ट के तहत सजा का प्रावधान किया गया है।
18 वर्ष से कम उम्र के नाबालिग बच्चों के शरीर के किसी भी अंग में लिंग या कोई अन्य वस्तु डालना या अन्य किसी प्रकार से गलत बर्ताव करना यौन शोषण कहलाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी नाबालिग बच्चे (Minor Child) का यौन शोषण करता है तो उस व्यक्ति पर POCSO ACT के तहत मुकदमा दर्ज कर कार्यवाही की जाती है।
उन्होंने बताया कि इस प्रकार के मामलों में जब सुनवाई होती है तब केवल दोनों वकील तथा उनके परिवारजन ही वहां पर उपस्थित होते हैं इसमें कैमरा एक प्रकार से थर्ड अंपायर की भूमिका निभाता है। पोक्सो केसेस के बारे में बात करते हुए वह कहती है कि उन्होंने बहुत से कैसे देखे हैं परंतु एक चार साल के लड़के का केस वह कभी भूल नहीं सकती जिसमें उसके सगे चाचा ने पेनिट्रेट किया तथा खून से सने बच्चों को अस्पताल में एडमिट करवाया गया। वह कहती है कि इस प्रकार के केसेस को हैंडल करना आसान नहीं है यह मानसिक रूप से व्यक्ति को बहुत दबाव में डालते हैं परंतु एक महिला वकील होने के बावजूद उन्हें लगता है कि भारतीय न्याय प्रणाली में बच्चों की सुरक्षा को लेकर बहुत चाक चौबंद व्यवस्थाएं की गई है हालांकि लड़कियां कई बार प्यार में पड़ कर भाग जाती हैं या फिर नाबालिग होती हैं और किसी अन्य प्रकार के केसेस को जब पोक्सो में डाल दिया जाता है तो वह तकलीफ देने वाला है।
वे बताती है कि अमूमन फास्ट ट्रैक कोर्ट में पोक्सो कैसे का निपटारा एक साल के अंदर कर लिया जाता है परंतु कई बार 5 साल तक की लंबी अवधि भी बीत जाती है जिससे समस्या आती है इसके साथ ही कई बार लड़कियों का बयानों से पलट जाना, धन की कमी के चलते आगे कैसे ना लड़ पाना या फिर न्याय में विलंब होना इन केसों में परेशानी का सबब बनते है। वे बताती हैं कि हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था इतनी अच्छी है कि पीड़िता के बयान कभी मुलजिम के सामने नहीं होते ना ही ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है जो हम ऊपरी तौर पर समझते हैं। फिर भी स्थिति इतनी भयावह है कि अगर केवल जयपुर जिले में ही जेल में देखें तो 80% मुलजिम आपको पोक्सो केसेज के मिलेंगे।
लेकिन अगर इसका एक दूसरा पक्ष देखे हैं तो कई बार लड़कियां इसका गलत उपयोग भी करती हैं अगर नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट पर नजर डालें तो दिल्ली में 92% इस प्रकार के केसों को फेक माना गया है। इसलिए एक बार फिर से इस पर विचार करने की आवश्यकता है। वे मानती है कि पॉक्सो का दुरुपयोग हो रहा है तथा इसको रोकने के लिए न्याय व्यवस्था के माध्यम से लगातार कदम भी उठाए जा रहे हैं।

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