Bhindranwale all you need to know: कांग्रेस ने हवा दी फिर उसी ने खत्म किया… भिंडरावाले के उदय से अंत की कहानी आपके रोंगटे खड़े कर देगी
भिंडरावाले की चर्चा अचानक तेज हो गई है। अमृतपाल सिंह के साथ उसका नाम जोड़ा जाने लगा है। अमृतपाल जरनैल सिंंह भिंडरावाले को अपना आदर्श बताता है। भिंडरावाले आज भी खालिस्तान समर्थकों के दिलों में धड़कता है। उसके उदय से अंत तक की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। उसे जिस कांग्रेस ने खड़ा किया उसी ने खत्म किया।
हाइलाइट्स
- अकाली दल को कमजोर करने के लिए कांग्रेस ने भिंडरावाले को खड़ा किया
- 1982 में भिंडरावाले ने अकालियों से मिला लिया था हाथ, बदली थी तस्वीर
- ऑपरेशन ब्लूस्टार में गई थी भिंडरावाले की जान, करनी पड़ी थी भारी मशक्कत
नई दिल्ली: पंजाब के हालात फिर बिगड़ गए हैं। अमृतपाल सिंह को जरनैल सिंह भिंडरावाले का दूसरा वर्जन बताया जा रहा है। दोनों के बीच एक जैसी बातें तलाशी जा रही हैं। किसान परिवार में जन्मे भिंडरावाले के बारे में दो अलग-अलग पहलू हैं। पंजाब के कई लोग भिंडरावाले को ‘संत’ का दर्जा देते हैं। एक वर्ग उसे सिख पंथ का हीरो मानता है। पंजाब में भिंडरावाले की तस्वीर वाली टी-शर्ट्स आम हैं। अकाल तख्त ने भिंडरावाले को ‘शहीद’ करार दिया था। ऑपरेशन ब्लू स्टार में भिंडरावाले की मौत हुई थी। सिख समुदाय का एक वर्ग भिंडरावाले को पावरफुल लीडर के तौर पर देखता है। इसके उलट सरकार उसे आतंकी करार देती है। भिंडरावाले को कभी कांग्रेस ने अकाली दल को कमजोर करने के लिए खड़ा किया था। लेकिन, वह कांग्रेस के हाथ से निकलकर न सिर्फ उसके बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन गया। इसी के चलते पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जान गई। आइए, यहां भिंडरावाले के उदय से अंत तक की पूरी कहानी जानते हैं।
भिंडरावाले का जन्म 2 जून 1947 में हुआ था। उसका परिवार जाट सिखों का था। भिंडरावाले के तौर पर उसकी पहचान बाद में बनी। पहले वह जरनैल सिंह बरार कहलाता था। उसके पिता जोगिंदर सिंह बरार किसान और सिख नेता थे। मां का नाम निहाल कौर था। आठ भाई-बहनों में वह सातवें नंबर का था। 6 साल की उम्र में वह स्कूल जाने लगा था। लेकिन, इसके पांच साल बाद ही उसने पढ़ाई छोड़ पिता के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। 19 साल की उम्र में भिंडरावाले की प्रीतम कौर से शादी हो गई। उनके दो बच्चे हुए। ईश्वर सिंह और इंदरजीत सिंह। ईश्वर का जन्म 1971 और इंदरजीत का 1975 में हुआ। भिंडरावाले की मौत के बाद प्रीतम अपने बच्चों के साथ मोगा जिले के बिलासपुर गांव में चली गई थीं। अपने दो भाइयों के साथ वह रहने लगी थीं। 2007 में जालंधर में उनका निधन हो गया था।
यह पूरी कहानी शुरू होती है आजादी के बाद से। बंटवारे में पंजाब के दो टुकड़े हुए। बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में चला गया। इस दौरान खूब खून बहा। पाकिस्तान से बड़ी संख्या में सिख, हिंदू और सिंधी भारत आ गए। पंजाबियों को अपनी संस्कृति और भाषा के वजूद की चिंता सताने लगी। अंग्रेजों के समय में अकाली दल का गठन हो चुका था। यह सिखों की धार्मिक संस्था की राजनीतिक शाखा थी। 1920 में अकाली दल अस्तित्व में आया था। आजादी के बाद भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ था। तभी सिख बहुल राज्य बनाए जाने की मांग की गई थी। हालांकि, इसे खारिज कर दिया गया था।
खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत
सिखों का मत था कि पंजाब के संसाधनों पर पहले पंजाबियों का अधिकार होना चाहिए। देश में बनने वाले बांध और नहरों पर उन्हें ज्यादा अधिकार मिलना चाहिए। 1956 में हिमाचल अलग राज्य घोषित हुआ था। हालांकि, पंजाब को अलग राज्य घोषित करने में 10 साल का समय लगा था। 1965 में भारत और पाकिस्तान युद्ध के बाद पंजाब और हरियाणा बने थे। इस तरह सिखों की अलग राज्य की मांग पूरी हुई थी। अकाली दल ने पंजाब गठन के लिए भाषा के आधार पर इस मांग को रखा था। इसका धार्मिक आधार नहीं था। लिहाजा, सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया था। इसके कुछ समय बाद 1970 में खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत हुई। पंजाब से अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे देशों में गए कुछ प्रवासियों ने इसे शुरू किया था। इसके तहत खालिस्तान के तौर पर अलग देश की मांग ने तूल पकड़ा। करेंसी भी जारी हो गई। अकाली दल ने कभी अलग खालिस्तान की मांग नहीं की।
1973 का वो प्रस्ताव
इस संदर्भ में 1973 अहम है। उस साल आनंदपुर साहिब में एक बैठक हुई। इसमें एक प्रस्ताव पारित हुआ। इस प्रस्ताव में कुछ महत्वपूर्ण बातों का जिक्र किया गया। चंडीगढ़ को पंजाब को देने की बात कही गई। यह और बात है कि केंद्र ने चंडीगढ़ को हरियाणा और पंजाब की संयुक्त राजधानी बनाया था। हरियाणा में पंजाबी बोलने वाले कुछ गांवों को पंजाब में शामिल करना भी इसमें शामिल था। यह भी कहा गया था कि पंजाब में भूमि सुधार हों। केंद्र का दखल कम किया जाए। अखिल भारतीय गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के गठन की मांग भी की गई थी। फौज में सिखों की ज्यादा भर्ती का मसला भी उठाया गया था। मौजूदा कोटा सिस्टम खत्म करने की बात भी की गई थी। अकाली दल का मानना था कि सिख समुदाय की पहचान, वजूद और संस्कृति बचाए रखना जरूरी है।
तकरार से भिंडरावाले का हुआ उदय
भिंडरावाले 1977 में सिखों की धर्म प्रचार की प्रमुख शाखा दमदमी टकसाल का मुखिया बना था। 1973 के प्रस्ताव को उसने दोबारा हवा दी। दमदमी टकसाल की निरंकारियों से नहीं बनती थी। दोनों के बीच टकराव सिख गुरु को लेकर है। सिखों का एक धड़ा मानता है कि गुरु गोविंद सिंह के बाद दूसरा कोई इंसान गुरु का पद ग्रहण नहीं कर सकता है। निरंकारी सिख इसे नहीं मानते हैं। 1978 में सिखों और निरंकारी सिखों के बीच इसे लेकर झड़प हुई। इसमें कई निरंकारियों की जान गई थी। इसके बाद पंजाब के हालात तेजी से बदल गए। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को शिकस्त झेलनी पड़ी थी। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। पंजाब में कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसलकर अकाली दल के पास आ गई थी।
कांग्रेस ने भिंडरावाले को दी हवा
कांग्रेस को अब ऐसे किसी बड़े नेता की तलाश थी जो अकाली दल का विरोध कर सके। भिंडरावाले पर जाकर यह तलाश खत्म हुई थी। भिंडरावाले को पार्टी ने अपना रसूख बढ़ाने के लिए पूरी मदद की। इसके लिए धर्म से लेकर नशे तक को हथियार बनाया गया। भिंडरावाले ने गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी में अपने कैंडिडेट खड़े करने शुरू किए। कांग्रेस ने उन उम्मीदवारों का पूरा समर्थन किया। धीरे-धीरे वह सिखों के बीच लोकप्रिय होने लगा। कांग्रेस भिंडरावाले के हौसलों को बढ़ाने लगी थी। जबकि कुछ समय बाद ही उसे कंट्रोल करने की मांग उठने लगी थी। 1980 में जनता सरकार गिरने के बाद जब दरबारा सिंह कांग्रेस से सीएम बने तो उन्होंने भिंडरावाले पर अंकुश लगाने की मांग की थी। लेकिन, तब पार्टी इसके पक्ष में नहीं थी।
कांग्रेस के हाथों से निकला भिंडरावाले
इस दौर में पंजाब में भाषा विवाद गरमाया था। पंजाब केसरी के मालिक लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में भिंडरावाले को गिरफ्तार किया गया था। कुछ दिन बाद भिंडरावाले रिहा हो गया। लेकिन, इस घटना ने उसका कद बहुत ज्यादा बढ़ा दिया था। भिंडरावाले के समर्थक तेजी से बढ़ने लगे थे। चीजें और तब बदलीं जब 1982 में भिंडरावाले और अकाली साथ आ गए। दोनों की साथ काम करने की सहमति बनने के बाद धर्मयुद्ध मोर्चा की शुरुआत हुई। दोबारा 1973 के आनंदपुर साहब प्रस्तावों की मांग ने तूल पकड़ा। अब भिंडरावाले कांग्रेस के हाथों से निकल चुका था। राज्य में कांग्रेस की सत्ता थी। उसने आंदोलन को रोकने की कोशिश की। इसमें कई लोगों की जान गई।
भिंडरावाले लगातार अक्रामक होता जा रहा था। लोग उसे संत जी कहने लगे थे। सिखों का एक वर्ग उसे भगवान बना रहा था। इसी बीच आईपीएस अधिकारी एएस अटवाल की स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों पर हत्या कर दी गई थी। अटवाल ने 1983 में धर्मयुद्ध मोर्चा के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। फिर उसी साल अक्टूबर में एक बस में सवार 6 हिंदुओं की हत्या कर दी गई। इससे हालात बिगड़ गए। राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। अब तक भिंडरावाले अपना वर्चस्व कायम कर चुका था। उसने हरमंदर साहब परिसर में हथियार जुटाने शुरू कर दिए। 15 दिसंबर 1983 में भिंडरावाले ने समर्थकों के साथ मिलकर अकाल तख्त पर कब्जा जाम लिया था।
ऑपरेशन ब्लू स्टार की नींव पड़ी
भिंडरावाले ताकत के नशे में इतना चूर हो गया था कि उसने कांग्रेस सरकार के बातचीत के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया था। यहीं से ऑपरेशन ब्लू स्टार की नींव बननी शुरू हुई। 1 जून 1984 में पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया गया। भिंडरावाले के समर्थक हथियार चलाने में प्रशिक्षित थे। 5 जून को सेना ने ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया। उन्हें सख्त आदेश मिले थे कि ऑपरेशन में हरमंदर साहब को नुकसान नहीं होना चाहिए। सेना को कतई अंदाजा नहीं था कि भिंडरावाले इतनी तगड़ी तैयारी के साथ अंदर बैठा है। भिंडरावाले को निकालने लिए मजबूरन सेना को अकाल तख्त के ऊपर गोले दागने पड़े। इसी ऑपरेशन में भिंडरावाले की जान गई। ऑपरेशन में सेना के 83 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे।
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