
“मुझे बस अपने तरीके से जीने दो — एक आवाज़ जो आज की भीड़ में दबती नहीं”
“मुझे जीने दो”
मुझे समझ नहीं आता, लोग क्यों यूँ ही टोके जाते,
हर बात में दख़ल देकर, मेरी राहें क्यों मोड़े जाते।
कभी ये कहो, कभी वो करो—
अरे ज़िंदगी मेरी है, तुम क्यों दिशा दो?
मेरी सोच है, मेरे फ़ैसले हैं,
इन पर अब किसी और की शिकंजा क्यों सहूँ मैं?
मैं हँसू, चुप रहूँ या आँखें भर आएँ,
ये हक़ मेरा है—किसे क्या बतलाएँ?
हर पल में मेरी पहचान बसी है,
हर ख्वाब में मेरी जान हँसी है।
तुम चलो अपने हिसाब से,
मुझे जीने दो मेरे अंदाज़ से।
हर जगह ज़ुबान चलाना ज़रूरी नहीं होता,
कभी-कभी थोड़ी ख़ामोशी भी सुकून देती है, ये कोई क्यों न समझता?
तुम खुश रहो, मैं भी मुस्कुराऊँ—
बस इतना रिश्ता काफी है, और क्या चाहूँ?
— ज्योति शाह, मुंबई













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