
“बेजुबानों का फ़रियाद: इंसानों की दुनिया में हमारा कसूर क्या है, मेरे खुदा?”
ऐसा क्यों किया, मेरे खुदा — बेजुबानों का दर्द सुनो
इंसान रहे घरों में — उन्हें पनाहें मिल गईं,
हम राहों पर रहे — और हमें डाँटें मिल गईं।
मूर्तियों को पूजते हैं, हमें धिक्कारते हैं,
जब हमने माँगा अपना हक, तो हमें ही ठुकराते हैं।
एक को दिया तूने सहारा, हमें सिर्फ एक टुकड़ा डाला…
ऐसा क्यों किया, मेरे खुदा?
इंसानों ने घर बनाया — तो उसे सजाया गया,
हमने कोना बनाया — तो उसे उजाड़ दिया गया।
सबको अधिकार दिए तूने,
फिर हम बेजुबानों पर ही दर्द क्यों बरसा दिए तूने?
ऐसा क्यों किया, मेरे खुदा?
हर कोई इंसान से मोहब्बत करता है,
इंसान में ही प्यार ढूँढता है।
लेकिन जब हमारी बारी आती है,
तो हमें पैसों और जात में तोला जाता है।
ऐसा क्यों किया, मेरे खुदा?
हमने भी इंसानों का दर्द बाँटा,
हमने भी उनके ज़ख्मों को चाटा।
पर जब हमारी बारी आई,
तो उन्हीं हाथों ने हमें घर से बेघर कर डाला।
ऐसा क्यों किया, मेरे खुदा?
इंसान घूमते हैं हर राह, हर दिशा में —
आजाद, बेफिक्र, खुली हवा में।
पर जब हमारी बात आती है,
तो कोई हमें पिंजरे में कैद करता है,
और कोई हमें थाली की किस्मत बना देता है…
ऐसा क्यों किया, मेरे खुदा?













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