आर्टिकल 370 हटाने के रास्ते में थे 3 कांटे:गृहमंत्री ने उन्हें कैसे निकाला; सुप्रीम कोर्ट ने सभी को वैध बताया
26 वकील, 23 याचिकाएं, 16 दिन और 5 जस्टिस। इस मैराथन बहस के बाद 11 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 370 पर अपना फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा- ‘हम आर्टिकल 370 को निरस्त करने के लिए जारी राष्ट्रपति के आदेश को वैध मानते हैं।’
सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने राष्ट्रपति के सभी कदमों पर मुहर लगा दी। ये साफ संकेत हैं कि जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाते वक्त तमाम अड़चनों को हटाकर कितनी पुख्ता कानूनी तैयारी की गई थी।
जानेंगे वो 3 कदम, जिन्हें आर्टिकल 370 हटाने से पहले गृहमंत्री शाह ने उठाए थे…
पहला कदम: आर्टिकल 370 में ‘संविधान सभा’ की जगह विधानसभा शब्द शामिल किया
- 5 अगस्त 2019 को उस वक्त के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने एक प्रेसिडेंशियल ऑर्डर CO 272 जारी किया। इसके जरिए केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 367 में बदलाव किया। अनुच्छेद 367 में संविधान को पढ़ने यानी उसमें शामिल शब्दों की व्याख्या दी गई है।
- यह बदलाव ऐसा था कि अनुच्छेद 370 (3) में शामिल शब्द ‘संविधान सभा’ की जगह ‘विधानसभा’ शब्द शामिल किया गया।
- दरअसल, जम्मू-कश्मीर भारत का अकेला ऐसा राज्य था, जिसका अपना अलग संविधान और उसे लिखने वाली संविधान सभा थी। भारत में विलय के बाद शुरुआती सालों में अनुच्छेद 370 में कोई भी बदलाव राज्य की संविधान सभा की सलाह पर ही हो सकता था।
- कुछ सालों बाद संविधान सभा में शामिल सभी सदस्य दुनिया में नहीं रहे, ऐसे में अनुच्छेद 370 में बदलाव एक कानूनी पेच बन गया था। अब राष्ट्रपति के इस आदेश के जरिए संविधान सभा की यह शक्ति जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को दे दी गई।
- खास बात यह है कि राष्ट्रपति के आदेश के जरिए केंद्र सरकार ने यह बदलाव अनुच्छेद 370 (1) में दी गई शक्तियों के दम पर ही किया।
5 अगस्त 2019 को संसद में जाते गृहमंत्री अमित शाह। इसी दिन उन्होंने राज्यसभा में आर्टिकल 370 हटाने वाला एक Statuary Resolution यानी वैधानिक प्रस्ताव रखा। (Photo: AFP)
दूसरा कदम: विधानसभा भंग थी, इसलिए संसद में रखा वैधानिक प्रस्ताव
- संविधान सभा का कानूनी पेंच निकल चुका था। इसके कुछ घंटे बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में एक Statuary Resolution यानी वैधानिक प्रस्ताव रखा। कुछ ही देर में राज्यसभा ने अनुच्छेद 370 को हटाने का यह प्रस्ताव पारित कर दिया।
- अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर विधानसभा भंग थी और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था। ऐसे में जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सभी शक्तियां भारत की संसद में आ गईं।
- मतलब यह कि केंद्र सरकार ने 370 को हटाने की राह से पहले जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की अनुमति का पेंच हटाया, फिर विधानसभा की अनुमति यानी प्रस्ताव की भी जरूरत नहीं पड़ी। यानी जम्मू-कश्मीर विधानसभा के प्रस्ताव की जगह संसद का प्रस्ताव काफी था और हुआ भी यही।
- 6 अगस्त 2019 को तब के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने आदेश C.O. 273 जारी कर राज्यसभा के प्रस्ताव को लागू कर दिया। आखिरकार 370 (1) का इस्तेमाल करके 370 को जम्मू-कश्मीर से हटा दिया गया। यानी जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त हो गया। तकनीकी तौर पर 370 (1) आज भी बरकरार है।
तीसरा कदम: जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन किया
- अनुच्छेद 370 को हटाने का प्रस्ताव पारित होने के बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 राज्यसभा में रखा।
- 9 अगस्त 2019 को संसद के दोनों सदनों में जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदलने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया।
- इनमें जम्मू और कश्मीर राज्य में विधानसभा को बरकरार रखा गया। वहीं लद्दाख को पूरी तरह केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया।
11 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में 5 जजों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में 5 अहम बातें कहीं…
1. अनुच्छेद 370 अस्थायी हैः चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अनुच्छेद 370 संविधान के चैप्टर-21 का हिस्सा है, जिसका शीर्षक ही अस्थायी प्रावधान है। ये एक अंतरिम व्यवस्था थी, ताकि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा बन जाए और ये भारतीय संविधान को रेक्टिफाई करे। दूसरा, जंग के हालात में इसकी जरूरत महसूस हुई थी।
2. जम्मू-कश्मीर को आंतरिक संप्रभुता नहीं: जम्मू-कश्मीर को आंतरिक संप्रभुता के मुद्दे पर चीफ जस्टिस ने कहा- भारत में विलय के बाद जम्मू-कश्मीर के पास कोई आंतरिक संप्रभुता नहीं बची थी। चीफ जस्टिस ने कहा कि जम्मू कश्मीर कॉन्स्टिट्यूशन के सेक्शन 3 में साफ तौर पर लिखा हुआ है कि जम्मू कश्मीर राज्य भारत संघ का एक अभिन्न हिस्सा है। इसके अलावा भारतीय संविधान के आर्टिकल 1 में लिखा है कि भारत, जो कि इंडिया है, राज्यों का एक संघ होगा।
आर्टिकल 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पेंटिंग बनाता एक आर्ट स्कूल टीचर। तस्वीर 11 दिसंबर को मुंबई की है। (फोटोः AFP)
3. राष्ट्रपति के फैसले की नीयत सहीः चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि आर्टिकल 356 के तहत राष्ट्रपति शासन के दौरान राष्ट्रपति और संसद राज्यपाल/विधानसभा के रूप में टेक-ओवर कर सकते हैं। इसमें कोई कानूनी बाधा नहीं है। चीफ जस्टिस ने कहा कि हालांकि राष्ट्रपति शासन में राष्ट्रपति के एक्शन की सीमाएं होती हैं। इस केस में पहली नजर में ये नहीं लगता कि राष्ट्रपति का आदेश गलत इरादे से जारी किया गया हो या उन्होंने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया हो।
4. जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस मिलेः इस विषय को सुप्रीम कोर्ट ने विचार के लिए खुला रखा है। सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि सरकार जल्द ही जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे को बहाल करेगी। इसलिए जम्मू और कश्मीर (पुनर्गठन) अधिनियम 2019 की वैधानिकता के सभी पहलुओं पर संविधान पीठ ने अभी फैसला नहीं दिया है।
5. राष्ट्रपति के फैसले कानून सम्मतः देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अनुच्छेद-370 के तहत आदेश जारी करके जम्मू-कश्मीर में अनेक संवैधानिक प्रावधानों को लागू किया था। उसके बाद भी संसद से पारित अनेक कानूनों को राष्ट्रपति के आदेशों से जम्मू-कश्मीर में लागू किया गया। राष्ट्रपति के आदेश सीओ- 272 के पैरा 2 के जरिए संविधान के जो प्रावधान जम्मू कश्मीर में लागू किए गए, वे कानून सम्मत हैं।
इस मामले में अब आगे क्या-क्या हो सकता है और कौन से सिनेरियो बन रहे हैं?
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के खिलाफ पुर्नविचार याचिका की सुनवाई फैसला करने वाले बेंच के सामने ही बंद कमरे में होती है। कई बार याचिकाकर्ताओं की मांग पर सुप्रीम कोर्ट की खुली अदालत में भी रिव्यू मामलों की सुनवाई होती है।
आर्टिकल 370 मामले में फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ के एक सदस्य जस्टिस कौल दिसंबर में रिटायर हो जाएंगे। इसलिए यदि कोई रिव्यू दायर हुई तो उसकी सुनवाई के लिए नए सदस्य के साथ बेंच का गठन चीफ जस्टिस करेंगे।
मुख्य मामले की लिस्टिंग और सुनवाई में कई साल लग गए, ऐसे में रिव्यू की सुनवाई में भी देरी हो सकती है। रिव्यू मामले में सुप्रीम कोर्ट के पास सीमित मामला होता है, इसलिए उसमें याचिकाकर्ताओं को विशेष राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के खिलाफ कोई अपील नहीं होती। हालांकि, एक मामले में दो विरोधाभासी फैसले हों तो न्यायिक आदेश से बड़ी बेंच का गठन किया जा सकता है। मुख्य मामले की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों में से किसी पक्ष को 7 जजों की बेंच से सुनवाई की मांग करनी चाहिए थी। संविधान पीठ के 5 जजों के विस्तार से फैसले के बाद अब 7 जजों की बेंच गठित होने की संभावना नहीं है।
संपूर्ण राज्य को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया जाने के संसद और केंद्र सरकार के अधिकार के बारे में भविष्य में 7 जजों के संविधान पीठ में सुनवाई हो सकती है।
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