क्या मिलकर काम कर सकते हैं ISI और RAW?
इस आलेख को क्यों पढ़ें
- ISI ने भारत को खुफिया जानकारी क्यों दी थी?
- किस तरह से काम करती है पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी?
- किस तरह से हुई थी ISI की स्थापना?
- अमेरिका का क्या मानना है आईएसआई के बारे में?
दूसरे बालाकोट का डर कहिए या उन मिसाइलों का, जो किसी भी समय दिशा बदल सकती थीं, लेकिन आधी रात को जो हुआ, उसकी उम्मीद तो किसी को नहीं रही होगी। पाकिस्तान में भारत के राजदूत रहे अजय बिसारिया के फोन की घंटी तड़के दो बजे बजी। उन्होंने फोन उठाया। दूसरी ओर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI का एक बेहद ही करीबी शख़्स था। रमजान चल रहे थे उन दिनों, तो अजय को लगा कि वह शख़्स सहरी के लिए उठा होगा और यूं ही फोन मिला दिया। लेकिन, मामला ज़्यादा गंभीर था।
उसने बताया कि आतंकी संगठन अल-कायदा साजिश रच रहा है कश्मीर में आतंकवादी हमले की। जो वजह उस शख़्स ने बताई, वह बिल्कुल दुरुस्त लग रही थी। कुछ दिनों पहले ही सेना ने कश्मीर के त्राल में अलकायदा के आतंकी ज़ाकिर मूसा को मार गिराया था। मूसा पहले हिज्बुल मुजाहिदीन के लिए काम करता था। बाद में उसने अल-कायदा से नाता जोड़ लिया था।
अजय ने अपनी क़िताब ‘Anger Management: The Troubled Diplomatic Relationship between India and Pakistan’ में लिखा है कि उन्होंने उस शख़्स से कहा कि वह प्रॉपर मिलिट्री चैनल के ज़रिये यह सूचना क्यों नहीं देता, DGMO हॉटलाइन द्वारा। अजय को बताया गया कि आईएसआई इस जानकारी को जल्द से जल्द नई दिल्ली तक पहुंचाना चाहती है। उस समय पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के डीजी हुआ करते थे असीम मुनीर, जो इस समय पाकिस्तानी सेना के प्रमुख हैं।
इस सूचना में कोई चाल भी हो सकती थी, लेकिन हैरत की बात कि ऐसा नहीं हुआ। सूचना सही निकली। पाकिस्तान ने यह उदारता शायद इसलिए दिखाई क्योंकि वह नहीं चाहता था कि पुलवामा जैसी घटना दोबारा हो और जिसके जवाब में भारत फिर से बालाकोट जैसी एयर स्ट्राइक करे। एक अनुमान यह भी लगाया गया कि शायद पाकिस्तान का सैन्य नेतृत्व भारत के साथ रिश्ते सुधारना चाहता था।
वजह कोई भी हो, लेकिन इससे यह सवाल तो उठता ही है कि जो एक बार हुआ, वो बार-बार क्यों नहीं हो सकता? क्या ISI और भारतीय खुफिया एजेंसी RAW के बीच सूचनाओं का लेनदेन नहीं हो सकता, जिससे आतंकवाद पर लगाम लग सके? ‘पठान’ या ‘टाइगर’ वाली कहानी फिल्मी स्क्रिप्ट से बाहर निकलने में दिक्कत क्या हो सकती है?
जवाब के लिए देखना होगा कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी काम कैसे करती है। कहने के लिए यह एक इंटेलिजेंस एजेंसी है, काम है अपने देश के ख़िलाफ़ हो रही साजिशों का पता लगाना और उन जानकारियों को हासिल करना, जो सुरक्षा के लिहाज से ज़रूरी हैं। कहने के लिए ही यह एजेंसी रिपोर्ट करती है पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को। लेकिन, हक़ीक़त में आईएसआई एक परछाई नज़र आती है पाकिस्तानी सेना की। आर्मी का दाहिना हाथ, पर्दे के पीछे उसके कामों को पूरा करने का एक ज़रिया।
ISI की स्थापना की थी एक ऑस्ट्रेलियाई सैन्य अफ़सर ने। 1948 में जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान को बुरी तरह हार मिली। उस समय तक पाकिस्तानी सेना के पास अपना कोई खुफिया तंत्र नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश आर्मी में काम कर चुके ऑस्ट्रेलियाई मूल के मेजर जनरल आर कॉवथॉर्न ने आईएसआई की नींव रखी।
पहले दो दशकों में तो यह एजेंसी कुछ ख़ास कमाल नहीं कर सकी। इसकी नाक के नीचे पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह पनपता रहा और एजेंसी उसे भांपने में नाकाम रही। इससे पहले भारत के ख़िलाफ़ 1965 की जंग में भी आईएसआई कुछ ख़ास मदद नहीं कर पाई थी अपनी सेना की।
लेकिन, एजेंसी की किस्मत बदलना शुरू हुई अफगानिस्तान में सोवियत संघ के घुसने के साथ। तब अमेरिका को ज़रूरत पड़ी पाकिस्तान की और अफगान ज़मीन पर मुजाहिदों को तैयार करने में आईएसआई के अफ़सर लग गए। डॉलर की बारिश होने लगी।
द गार्जियन की एक रिपोर्ट कहती है कि आईएसआई ने धर्म को हथियार बनाया था, लेकिन जब सोवियत संघ वापस लौट गया अफगानिस्तान से, तो जिहाद की यही आत्मा पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी में प्रवेश कर गई। उसने बांग्लादेश, भारत और दूसरे मुल्कों में इस्लामिक आतंकियों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। एक वक़्त तो ऐसा था कि आईएसआई के अफ़सर धार्मिक पहनावा पहनकर काम पर जाते और ज़्यादा वक़्त बिताते मस्जिदों में। जनरल परवेज़ मुशर्रफ के दौर में थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन जिहाद से कभी नाता नहीं टूटा आईएसआई का।
जिहाद इस संगठन के चरित्र का हिस्सा बन चुका है, जो तब भी नहीं बदला, जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में जंग शुरू की और सहयोग के बदले पाकिस्तान के लिए अपने ख़ज़ाने का मुंह खोल दिया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ओसामा बिन लादेन। जिसकी तलाश में अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान की धूल छान रहे थे, वह एबटाबाद में एक पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान के पास बरसों से रह रहा था।
अफगानिस्तान की इंटेलिजेंस एजेंसी के पूर्व प्रमुख अमरुल्लाह सालेह ने बताया था कि उन्होंने 2007 में एक मुलाकात के दौरान परवेज़ मुशर्रफ को यह जानकारी दी थी कि लादेन पाकिस्तान में छिपा हो सकता है। लेकिन, तब मुशर्रफ बुरी तरह भड़क उठे। सालेह का मानना था कि पाकिस्तानी सेना प्रमुख और आईएसआई हेड ने लादेन को छिपाया हुआ था। कुछ ऐसा ही अमेरिका का भी मानना था, तभी तो ऑपरेशन लादेन की जानकारी पाकिस्तान के साथ साझा नहीं की गई।
अमेरिका के जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ के चेयरमैन रहे माइक मुलन का कहना था कि आतंकी संगठन पाकिस्तानी सरकार के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं। उन्होंने हक्कानी नेटवर्क को ISI की स्ट्रैटेजिक आर्म यानी रणनीतिक शाखा कहा था।
आईएसआई में करीब 10 हज़ार लोग काम करते हैं। कुछ अनुमान के मुताबिक, यह संख्या दोगुनी भी हो सकती है। इसके नेटवर्क में तमाम ऐसे एजेंट हैं, जो अफगानिस्तान और संघर्ष प्रभावित दूसरे क्षेत्रों में आतंकियों और लड़ाकों के साथ मिलकर काम करते हैं। क्या इन सभी को बदला जा सकेगा?
ISI अभी पाकिस्तानी आर्मी के सहयोगी की भूमिका में है और सत्ता पर सेना की पकड़ का ज़रिया ही है भारत विरोध। अगर खुफिया एजेंसी बदलना भी चाहती है, तो क्या सेना उसे ऐसा करने देगी और क्या ISI में इतनी ताकत भी है? कम से कम यह तो कहा जा सकता है कि पाकिस्तान का पॉलिटिकल सिस्टम इतना मजबूत नहीं, जो सेना के ख़िलाफ़ जाकर आईएसआई से कोई काम करा सके।
और सबसे बड़ी रुकावट जो आईएसआई संग काम करने में आएगी कि जिसे ख़ुद पाकिस्तानी एजेंसी ने खड़ा किया है, उसके ख़िलाफ़ वह कैसे जाएगी? अमेरिका के साथ काम करने के लिए जब ISI ने ख़ुद को थोड़ा सुधारा तो वहां भी एक बैरियर था। उसने अल-कायदा के ख़िलाफ़ जंग में साथ दिया, लेकिन लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठनों के प्रति आंखें बंद रखीं। ‘गुड टेररिस्ट, बैड टेररिस्ट’ वाली वह कहानी आज भी जारी है।
जिस तरह पाकिस्तानी सेना के बारे में कहा जाता है कि उसके पास एक देश है, उसी तरह ISI के बारे में मशहूर है कि वह मुल्क के भीतर एक दूसरा मुल्क है। साल 2008 में एक दिन सरकार को अचानक पता चलता है कि उनकी खुफिया एजेंसी की एक पॉलिटिकल विंग भी है। इसे तुरंत बंद करने का आदेश जारी होता है। यह विंग 1970 में जुल्फिकार अली भुट्टो ने बनाई थी। जो एजेंसी चार दशकों तक अपनी ही सरकार से एक राज़ छुपाए रही, वह दूसरों से क्या-क्या नहीं छुपा सकती?
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