पत्नी संबंध न बनाए तो मानसिक क्रूरता:पति ऐसा करें तो अधिकार; न्यायालय मर्दों से सवाल क्यों नहीं पूछता
कमल और आरती की शादी हुई। ये दोनों नाम परिवर्तित हैं। मामला मद्रास हाईकोर्ट का है, जो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, लेकिन मसले की संवेदनशीलता को देखते हुए मीडिया रिपोर्टों में भी दोनों के असल नामों का इस्तेमाल नहीं हुआ था। फिलहाल कहानी ये है कि कमल और आरती की शादी हुई।
तीन साल बाद पति ने तलाक का मुकदमा दायर कर दिया, ये कहते हुए कि पत्नी शारीरिक संबंध बनाने से इनकार करती है। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में जो कहा, उसका सार ये था कि बिना किसी वाजिब कारण के सेक्स यानी शारीरिक संबंध बनाने से इनकार करना पति के प्रति क्रूरता है।
फिलहाल मद्रास हाईकोर्ट के इस फैसले को महिला ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में इसे क्रूरता ही माना।
शादी के अंदर औरतों का क्या-क्या न करना क्रूरता के दायरे में आ सकता है, इसके कई सारी मिसालें हमारी न्याय व्यवस्था समय-समय पर हमारे सामने पेश करती रही है। यह मामला है जुलाई 2020 का। एक आदमी गुवाहाटी हाईकोर्ट की शरण में जा पहुंचा।
उसे शिकायत थी कि उसकी पत्नी शादी के बाद भी माथे पर सिंदूर नहीं लगाती और असमियों में सुहाग की निशानी यानी शाका-पोला नहीं पहनती। इसलिए उसे अपनी पत्नी से तलाक चाहिए।
आदमी ने तो जो कहा, सो कहा, लेकिन सबसे कमाल की बात थी, जो गुवाहाटी हाईकोर्ट के जज ने कहा। चीफ जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि एक औरत का सिंदूर लगाने से इनकार करना और सुहाग की निशानी न पहनना यह दर्शाता है कि वह अपने पति और विवाह के रिश्ते का आदर नहीं करती। सिंदूर न लगाकर वह यह दिखाना चाहती है कि वह अब भी कुंवारी है।
कोर्ट ने इस व्यवहार को पति के प्रति क्रूरता मानते हुए आदमी को अपनी पत्नी से तलाक लेने की इजाजत दे दी।
ये पिछले साल जुलाई की घटना है, जब एक मद्रास हाईकोर्ट ने ऐसे ही एक मुकदमे में कहा कि पत्नी का मंगलसूत्र न पहनना पति के प्रति बहुत गंभीर स्तर की क्रूरता है। और इस आधार पर उस पुरुष को अपनी पत्नी से तलाक लेने की इजाजत भी दे दी।
आप ध्यान से पढ़िए ऊपर लिखे ये सारे वाकये और वो सारे फैसले, जो इस देश की न्यायपालिका सुना रही थी। औरत आदमी को सेक्स न दे तो क्रूरता, वो मंगलसूत्र पहनने से इनकार करे तो क्रूरता, सिंदूर न लगाए तो क्रूरता।
कुछ मामले तो ऐसे भी हैं, जहां औरत द्वारा घर के कामों में रुचि न लेने, खाना न बनाने या पति के माता-पिता के साथ रहने में अनिच्छा जाहिर करने को भी कोर्ट ने पति के प्रति क्रूरता का दर्जा दिया है।
न्यायपालिका में वैवाहिक क्रूरता की इतनी कहानियों और इतने उदाहरणों के बाद जरूर उस स्त्री को यकीन रहा होगा कि यही सब अगर कोई पुरुष महिला के साथ करे तो जरूर वो भी क्रूरता के दायरे में ही आता होगा।
यही सोचकर उस महिला ने कर्नाटक हाईकोर्ट की शरण ली होगी। उसका पति ब्रह्माकुमारी का उपासक था और दिन-रात यूट्यूब पर ब्रह्माकुमारी और सिस्टर शिवानी के वीडियो देखता रहता था।
शादी के बाद उसने पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने से इस वजह से इनकार कर दिया। कहा कि ऐसा करना उसके लिए पाप है।
महिला ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। महिला का कहना ये था कि अगर वो ब्रह्माकुमारी का उपासक ही था तो शादी न करने का रास्ता भी तो उसके सामने खुला हुआ था। वो शादी ही नहीं करता।
अब तर्क से सोचिए तो होना चाहिए। पत्नी तो सिंदूर न लगाए, रोटी न बनाए तो भी क्रूरता हो जाती है। यहां तो पति जानते-बूझते शादी करके एक लड़की की जिंदगी बर्बाद कर रहा है। तो क्या ये क्रूरता नहीं है।
लेकिन एक्चुअली ये क्रूरता नहीं है क्योंकि कनार्टक हाईकोर्ट की जस्टिस एम नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा कि शादी के बाद पति का शारीरिक संबंध न बनाना क्रूरता के दायरे में नहीं आता है।
बाकी आप खुद समझदार हैं। पत्नी सेक्स करने से इनकार करे तो क्रूरता, पति इनकार करे तो क्रूरता नहीं। पति तो जबर्दस्ती भी कर सकता है। मैरिटल रेप इस देश में आज भी अपराध नहीं है, बल्कि विवाह संस्था के भीतर सेक्स प्रोवाइड करना पत्नी का नैतिक, सामाजिक और वैवाहिक कर्त्तव्य है। हालांकि यह पति का कोई कर्तव्य नहीं है।
हिंदुस्तान की शादियों में पतियों के पास सिर्फ अधिकार हैं और पत्नियों के पास सिर्फ कर्त्तव्य। समाज तो औरत को हर वक्त उसके महान कर्तव्यों का लेखा-जोखा याद दिलाता ही रहता है, न्यापालिका भी ये काम पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ करती है।
न्यायपालिक पतियों को याद दिलाती है कि अगर तुम्हारी पत्नी सिंदूर नहीं लगा रही, मंगलसूत्र नहीं पहन रही तो यह तुम्हारे प्रति क्रूरता है। वो खुद को कुंवारी दिखाना चाहती है। इसका मतलब ये कि वो तुम्हारा आदर नहीं करती। वो शादी का आदर नहीं करती। न्यायालय तुम्हें इस बात की इजाजत देता है कि तुम ऐसी स्त्री को तलाक दे सकते हो।
हालांकि वो न्यायालय एक भी बार उस आदमी से पलटकर ये नहीं पूछता कि सिर से लेकर पांव तक तुम्हारे शरीर के किस हिस्से से पता चलता है कि तुम शादीशुदा हो। अगर तुम पर विवाह की और सुहाग की कोई निशानी नहीं तो पत्नी पर वो निशानियां थोपने का तुम्हें क्या अधिकार है।
हम तो वो समाज हैं, जहां पत्नी पति की इच्छाओं के आगे चुपचाप सिर झुकाती है। उसकी अपनी कोई इच्छा, कोई जरूरत, कोई मांग नहीं हो सकती।
इन तमाम कहानियों के बीच में हाल ही में एक और खबर आई थी। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ताजा रिपोर्ट। यह रिपोर्ट कह रही है कि अभी पूरी दुनिया में जेंडर बराबरी यानी औरत और मर्द के बीच सामाजिक-आर्थिक बराबरी हासिल करने में हमें 131 साल और लगेंगे।
इन 131 सालों में कितनी पीढ़ियां पैदा होकर जवान हो जाएंगी। कितनी बच्चियां इन 131 सालों में जन्म लेने से पहले ही मार दी जाएंगी, कितनों के साथ बलात्कार और छेड़खानी होगी। कितनी औरतें अपने दफ्तरों में समान तनख्वाहों के लिए आवाज उठाएंगी। कितनी अपने ही पिता के खिलाफ संपत्ति में समान अधिकार के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगीं।
अभी और कितना लंबा सफर तय करना होगा कि न्यायपालिका सही मायने में औरतों की आवाज बन सकेगी।
131 साल बहुत लंबा समय होता है। न्याय की उम्मीद में इतना लंबा इंतजार शायद ही किसी और अन्याय के हिस्से आया हो, जितना औरतों के आया है।
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