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“बात बीकानेर के विकास की” :: स्थापना दिवस विशेष’ By डॉ मुदिता पोपली

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“बात बीकानेर के विकास की :: स्थापना दिवस विशेष’
डॉ मुदिता पोपली

      नीं मिलै , बीकाणै रै जोड़ ! 

"कह्यो… ठाठ सूं कर दियो , कीन्हो किस्यी उडीक ?

बीकाणो दीन्हो बसा , दृढ़ ' बीको ' दाठीक!"


बीकानेर की स्थापना के इतने वर्ष पूर्ण होने के बाद आज भी जब बीकानेर की विकास की बात आती है तो यहां का आम जन समस्याओं के मकड़जाल में घिरा नजर आता है।
बीकानेरी विरासत स्वयं में अनुपम है,यहां के मंदिर, यहां का रहन-सहन, यहां के लोगों का अंदाज ,यहां के वाशिंदों को सबसे अलहदा बनाता है। इन सब के बावजूद बीकानेर विकास की उस गति को हासिल नहीं कर सका जिसका वह हकदार है।
केंद्र और राजस्थान की राजनीति में बीकानेर का एक अलग दबदबा रहा है। यहां के विधायक हों या सांसद, केंद्र और राजस्थान सरकार में सदैव उन्हें प्रतिनिधित्व मिलता रहा है। इन सबके बावजूद कला नगरी , छोटीकाशी जैसे संबोधनों से नवाजा जाने वाला बीकानेर आज भी राजस्थान के बड़े शहरों से अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ता नजर आ रहा है। वर्ष 2013 में सिविल सर्विस डे की खास सौगात में स्वच्छता मिशन के तहत बीकानेर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों प्रधानमंत्री अवॉर्ड और 10 लाख रुपए देकर सम्मानित किया गया था। इसके बावजूद आज जगह-जगह लगे कचरे के ढेर और बदहाल व्यवस्थाएं कुछ अलग ही कहानी कहती है।
बहुत दुख की बात है कि बीकानेर में समय-समय पर बड़े बड़े अधिकारियों और राजनेताओं का आगमन होने के बावजूद बीकानेर विकास की वह गति नहीं पकड़ सका, जिस पर उसे चलाएमान होना चाहिए था। रम्मतों और विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों का मालिक मेरा यह शहर अब तक शिक्षा ,जीवन शैली और यातायात व्यवस्था के विकास की बाट जोह रहा है।
जिस दिन बीकानेर को विश्वविद्यालय मिला था ये आभास प्रारंभ हो गया था कि अब बीकानेर विकास की नई ऊंचाइयों को छुएगा परंतु बीकानेर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वह प्रतिमान स्थापित ही नहीं कर पाया जो होने चाहिए थे। यही नहीं ” नैक” जैसी ग्रेडिंग के लिए विश्वविद्यालय अनिवार्य आवश्यकताओं का प्रदर्शन नहीं कर सका। हालात इतने विकट रहे हैं कि राजस्थानी को संविधान में दर्जा दिलवाने की पहल करने में जुटे बीकानेर में राजस्थानी विषय ही स्नातकोत्तर स्तर पर नहीं चल सका । यही नही आज भी अनेक ऐसे कोर्सेज हैं जिन्हें करने के लिए बीकानेर के बच्चों को बाहर ही जाना पड़ता है। साहित्य के दिग्गजों की गोद में पल रहे बीकानेर की साहित्यिक विरासतों से आज भी यहां का युवा अनजान है।
कहने को तो बीकानेर में स्कूली शिक्षा विभाग का सबसे बड़ा दफ्तर लगता है ।बावजूद इसके स्कूली और कॉलेज शिक्षा के क्षेत्र में बीकानेर को कोई सौगात अब तक नहीं मिली है। अपने विकास के संघर्षों में लगा बीकानेर यहां की यातायात व्यवस्था को सुधारने मात्र के लिए हर दिन एक नई जंग लड़ता प्रतीत होता है। रेलवे फाटक की समस्या इतने वर्ष बीत जाने के पश्चात भी ज्यों की त्यों हैं।
बीकानेर के पर्यटक लेखक उपध्यान चंद्र कोचर के शब्दों में बीकानेर की हवेलियों की आकृति पानी के जहाज की तरह क्यों है? के बारे में कहा है कि हमारे पूर्वज रसूखदार थे, रियासत कालीन युग था। इनमे रामपुरिया, डागा, मोहता, बोथरा, राठी आदि प्रमुख है। विभाजन से पहले इनमे से अनेक लोगों का पाकिस्तान में कारोबार था। पाकिस्तान में समुंद्री जहाजो के भी मालिक थे। जब बीकानेर आये तो यहां दूर तक वीराना और मिट्टी के धोरे हुआ करते थे। सेठों के दिमाग में पानी के जहाज ही अधिक तैरते थे। उन्होंने वीराने में ही पानी के जहाज की आकृति की तरह पत्थरों की हवेलियां बनानी शुरू कर दी। तब बीकानेर में पत्थरों से हवेलियां बनाने का फैशन चल पड़ा। हवेलीनुमा मकान रसूख की निशानी बन गया। आज भी यदि हम रामपुरियों की हवेली देखने जाते है तो हमे लगेगा कि हम पानी के बड़े जहाज में आ गए है। पाकिस्तान के करांची में मोहता परिवार की आज भी भव्य हवेली है। परंतु सुंदर स्थापत्य कला की यह धरोहरें अब संरक्षण को तरस रही हैं।
“रंगबाज रूड़ो जबर , मौजी मस्त मलंग !
म्हारै बीकानेर रा , निरवाळा है रंग !!”
ऐसा है मेरा बीकानेर जो अपनी अलग खासियत अपनी अलग पहचान रखता है, इसका अलग जीने का अंदाज है पर इस अलहदा जीने के अंदाज के साथ आज आवश्यकता यह है कि बीकानेर विकास की नवीन ऊंचाइयों को छुए जिसका वह हकदार है। यह विकास केवल राजनेताओं या किसी एक व्यक्ति के प्रयास से संभव नहीं है ,इसके लिए आवश्यक है कि बीकानेर का युवा जुट जाए और अपनी कूची से बीकानेर को सुंदरतम रंगों से नवाजे क्योंकि जात पात और धर्म से परे मेरे बीकानेर का एक अलग ही रंग है
“वली ‘ लडावै क्रिषण नैं , ‘ राजिंद ‘ ख़्वाजा पीर !
एक थाळ में लापसी सेवइयां अर खीर !!”

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