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श्रीमती अंजना शर्मा (ज्योतिष दर्शनाचार्य)(शंकरपुरस्कारभाजिता) पुरातत्वविद्, अभिलेख व लिपि विशेषज्ञ प्रबन्धक देवस्थान विभाग, जयपुर राजस्थान सरकार
पाशुपताचार्य वामेश्वरनाथ के अप्रकाशित ग्रंथ
(अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर)
सौभाग्य का अवसर था कि मुझे हाल ही में श्री अगरचन्द जी नाहटा के सारस्वत संग्रह के निरीक्षण का दायित्व मिला जहाँ लगभग 2 लाख हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का संग्रह देखने को मिला, श्री अगरचंद जी स्वयं प्रकाण्ड विद्वान थे, उन्होने भारतीय ज्ञान परम्परा को संरक्षित करने मे अपना सर्वस्व लगा दिया। आज भी उनके वंशज श्री ऋषभ नाहटा जी उसी मनोयोग से इस कार्य मे संलग्न है। विश्वगुरुदीप आश्रम शोध संस्थान जयपुर द्वारा उनके ग्रंथो का सूचीकरण व संरक्षण का कार्य किया जा रहा है। उसी के निरीक्षण का सौभाग्य मुझे मिला, इस दौरान “प्रबोधसिद्धि” नामक न्यायदर्शन का ग्रंथ पाशुपताचार्य वामेश्वरध्वज विरचित ताडपत्रीय प्रति मिली है। इसका उल्लेख अन्यत्र कही देखने में नही आया प्राप्त प्रति अपूर्ण है, आदि और अंत मे पत्र नही है।
जिससे ग्रंथ और ग्रंथाकार के सम्बंध में विशेष पत्र नही है जिससे ग्रंथ और ग्रंथकार के सम्बंध में विशेष पता नही चलता मध्य के अंक पत्र मे जहाँ प्रथम आहिक (अध्याय) की समाप्ति की सूचना पुष्पिका दी गई है। ग्रंथ और ग्रंथाकार के नामों का उल्लेख मिलता है।
परमनैष्टिक भागवत्पाशुपताचार्य श्री वामेश्वर ध्वज विरचितं प्रबोध सिद्धि नाम्नि न्याय – परिशिष्ट निर्बधे प्रथमाहिकं समाप्तं।
ईसा की प्रथम या द्वितीय शताब्दि में शैव धर्म की पाशुपत शाखा के प्रवर्तक लकुलीश का जन्म गुजरात में बडौदा राज्यांतर्गत डभोईतालु के भारवाल प्रांत मे हुआ। उनके कुथिक,गर्ग,मित्र और कौरुष्य ये चार शिष्य हुये। उनने इस मत का समस्त भारतवर्ष में उत्तर से दक्षिण तक खूब प्रचार किया। थोडे ही समय मे यह मत सर्व फैल गया
चालुक्य वंशीय राजाओ के समय मै तो इसका अतिशय प्रभाव था, उस समय गुजरात से अनेक स्थानो मे इस मत के शिव मंदिर थे। उनको दिये हुये अनेक दानपत्र खोज मे प्राप्त हुये।
इस समुदाय के अनेक आचार्य अच्छे विद्वान हुये। खेद है कि इस मत के विद्वानो द्वारा रचित बहुत कम साहित्य प्रकाश मे आया है।
गायकवाड ओरियंटल सीरीज(बडोदा) मे इस समुदाय के आचार्य माससर्वज्ञ का गणकारिका ग्रंथ प्रकाशित हुआ है।
पूर्व में पाशुपताचार्य वामेश्वरध्वज का एक ग्रंथ देखने मे आया वह भी ताडपत्रीय प्रति है जो की न्यायदर्शन के सुप्रसिद्ध ग्रंथ कुसुमांजली की टीका है। इसकी प्रति पाटण के जैन भण्डार में है।
ग्रंथकार वामेश्वरध्वज का समय अज्ञात है, इतना निश्चित है कि वे कुसुमांजलिकार उदयन के पश्चात हुए है।
प्राचीन साहित्य के अन्वेषक विद्वानों से अनुरोध है कि ऐसे ग्रंथागारो में उपलब्ध दुर्लभ अप्रकाशित साहित्य का प्रकाशन किया जाना अत्यंत आवश्यक है। संग्रहकर्ता विद्यावाचस्पति मनीषी श्री अगरचंद नाहटा द्वारा किये गये इस कार्य को विश्वगुरुदीप आश्रम शोध संस्थान जयपुर द्वारा राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन दिल्ली की परियोजना के माध्यम से सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिससे इसका सदुपयोग कर सके।
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