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राजस्थान में वसुंधरा राजे के पास ऐसा क्या है, उन्हें साइडलाइन करने की गलती भाजपा को सुधारनी पड़ी!

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राजस्थान में वसुंधरा राजे के पास ऐसा क्या है, उन्हें साइडलाइन करने की गलती भाजपा को सुधारनी पड़ी!

राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला हो सकता है। वसुंधरा राजे बीजेपी की सीएम फेस भले न घोषित हुई हों लेकिन उनका देर से सीन में लाया जाना काफी कुछ बयां कर रहा है। वरिष्ठ स्तंभकार सागरिका घोष ने राजे के सियासी कद पर विश्लेषण किया है। वह बताती हैं कि कैसे देश की सियासत में महिला नेताओं को संघर्ष करना पड़ता है।

नई दिल्ली: जैसे ही झालरापाटन से वसुंधरा राजे के टिकट का ऐलान हुआ, उन्हें बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार के तौर पर गिना जाने लगा। राजस्थान की सियासत में वसुंधरा का कद ही ऐसा है। वह दो बार राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। काफी समय से उन्हें साइडलाइन माना जा रहा था लेकिन बीजेपी को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसकी बड़ी वजह यह है कि पार्टी को उनका वोटर कनेक्ट चाहिए था। यह उनका मतदाताओं से घनिष्ठ नाता है। वरिष्ठ पत्रकार सागरिका घोष ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में वसुंधरा राजे पर एक लेख लिखा है। वह कहती हैं कि ‘पुरुष-प्रधान’ राजस्थान की राजनीति में राजे दुर्लभ महिला नेता हैं। सागरिका ने 2003 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में उनका चुनाव प्रचार कवर किया था। उस चुनाव में भाजपा ने 120 सीटें जीती थीं और वसुंधरा पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं। कैंपेन के दौरान उन्होंने भीड़ की तरफ इशारा करते हुए कहा था, ‘मेरे आलोचकों को देखना चाहिए कि लोग मुझे कितने प्यार से स्वीकार करते हैं। वे शिफॉन पहने, पोलो खेलने वाली महिला को चुनते हैं।’

वरिष्ठ स्तंभकार लिखती हैं कि भाजपा नेताओं में वसुंधरा की छवि एक असाधारण नेता की है। वह अलग राय रखने में नहीं हिचकती हैं। हमेशा अच्छे से ड्रेस्ड दिखने वालीं वसुंधरा धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलती हैं। राजस्थान के समाज में पुरुष हावी हैं, ऐसे में उन्हें कई बार बीजेपी के पुराने दिग्गज पुरुष नेताओं और राजस्थान में संघ परिवार के लोगों से मोर्चा लेना पड़ा है। उन पर अपने ‘शाही’ वंश के कारण अहंकारी होने और सामंती होने के आरोप लगते रहे हैं।

वफादारों के कटे नाम लेकिन

वफादारों के कटे नाम लेकिन

फिर भी वसुंधरा दो बार मुख्यमंत्री बनीं और कार्यकाल पूरे किए। उनकी अपनी पार्टी के कुछ लोग इस बात से असहज हो सकते हैं कि वह एक स्वतंत्र विचार वाली महिला नेता हैं जिनका क्षेत्रीय आधार है। वसुंधरा ने अपनी राजनीतिक पहचान और जनाधार खुद तैयार किया है। उन्होंने पार्टी में वफादारों का अपना समूह बनाया। राजस्थान के वोटरों के साथ उनका विशेष कनेक्शन है, जिनमें से कई उन्हें ‘जाट बहू’ के रूप में देखते हैं। जनसंघ की सदस्य रहीं विजयाराजे सिंधिया की बेटी होने के नाते, उनका भाजपा आलाकमान से रिश्ता अलग रहता है। वह अपनी पार्टी में यूनिक हैं। हिंदी पट्टी की वह एक महिला क्षेत्रीय क्षत्रप हैं।
25 नवंबर को होने वाले चुनाव के लिए घोषित उम्मीदवारों की पहली सूची में वसुंधरा के कई करीबियों को टिकट नहीं मिला। राजस्थान राज्य इकाई में अभूतपूर्व बगावत की आशंका पैदा हो गई। ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं कि इसे टालने के लिए भाजपा ने तेजी से कदम बढ़ाया। उनके वफादारों में से एक नरपत सिंह राजवी 2008 से लगातार विद्याधर नगर सीट से जीतते आ रहे थे, इस बार उनकी सीट से भाजपा ने राजसमंद की सांसद दीया कुमारी को मैदान में उतारा है। बाद में आई दूसरी सूची में न केवल राजवी का नाम शामिल था बल्कि वसुंधरा कैंप के ज्यादातर नेताओं को टिकट मिल गया।

पोस्टरों से गायब रहीं वसुंधरा

पोस्टरों से गायब रहीं वसुंधरा

वसुंधरा खुद ​झालरापाटन से चुनाव लड़ेंगी। वही सीट, जहां से वह 2003 से जीतती आ रही हैं। देर से ही सही, भाजपा को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि राजस्थान में कांटे के मुकाबले में वसुंधरा को अलग-थलग करना पार्टी के लिए बहुत महंगा साबित हो सकता है। साफ है कि वसुंधरा का राजनीतिक प्रभाव और महत्वाकांक्षाएं उनकी पार्टी को चौकन्ना करती हैं। उन्हें सोच-समझकर दरकिनार किया गया। जब भाजपा ने पूरे राजस्थान में ‘परिवर्तन संकल्प यात्रा’ के साथ अपना चुनाव प्रचार शुरू किया तो वसुंधरा बड़े इलाकों में नदारद थीं। भले ही वह दो दशकों से पार्टी का प्रमुख चेहरा रही हों, पर भाजपा के चुनावी पोस्टरों में वसुंधरा नहीं दिखाई दीं।
सागरिका कहती हैं कि वसुंधरा का मामला अकेला ऐसा नहीं है। करिश्माई व्यक्तित्व और भीड़ खींचने वाली महिला राजनेताओं को राष्ट्रीय दलों में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। स्वर्गीय सुषमा स्वराज 1998 में कुछ हफ्तों के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं थीं। यूपीए सरकार (2009-14) के दौरान वह विपक्ष की एक बेहद प्रभावी नेता थीं, लेकिन मोदी सरकार बनने पर उन्हें अपेक्षाकृत कम प्रोफाइल वाले विदेश मंत्रालय से ही संतोष करना पड़ा।

बीजेपी जैसी कांग्रेस भी

बीजेपी जैसी कांग्रेस भी

उमा भारती 2003-04 में कुछ समय के लिए मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, लेकिन आज वह खुद को अलग-थलग पा रही हैं। मोदी सरकार में भाजपा की प्रमुख महिला नेताओं में से किसी को भी आज बड़े क्षेत्रीय नेता या संभावित मुख्यमंत्री चेहरे के रूप में नहीं देखा जाता है। वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि इंदिरा गांधी के तौर पर भारत की पहली और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री होने पर गर्व करने वाली कांग्रेस में भी कोई महिला मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं है। सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद मिला था लेकिन उसकी वजह अलग थी। तीन बार सीएम रहीं शीला दीक्षित दिल्ली की अपनी भूमिका तक ही सीमित रहीं।
राष्ट्रीय दलों से बाहर देखें तो महबूबा मुफ्ती, मायावती और जयललिता जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं। इन्हें अपने-अपने संरक्षकों- मुफ्ती मोहम्मद सईद, कांशीराम और एमजी रामचंद्रन से सत्ता विरासत में मिली। ममता बनर्जी भारत की एकमात्र महिला राजनेता हैं जिनका कभी कोई पुरुष संरक्षक नहीं रहा है जो राह आसान कर सके। हालांकि उन्हें एक नेता के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। आमतौर पर महिला राजनेताओं को ‘मैड’ दिखाने का खतरा बना रहता है और वे हाशिये पर पहुंचा दी जाती हैं।

अटल-आडवाणी युग की वसुंधरा

अटल-आडवाणी युग की वसुंधरा

2018 में राजस्थान में भाजपा की हार के लिए वसुंधरा को जिम्मेदार ठहराया गया। उस समय कैचलाइन बनी थी- ‘मोदी तुमसे बैर नहीं। वसुंधरा तेरी खैर नहीं’। तीन साल पहले जब सचिन पायलट ने सीएम अशोक गहलोत के खिलाफ बगावती तेवर दिखाए तो वसुंधरा को उनकी पार्टी ने माना कि वह गहलोत को हटाने के लिए अनिच्छुक दिखीं। वसुंधरा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अटल-आडवाणी युग की भाजपा के दिग्गज नेताओं में से अंतिम है। घोष कहती हैं कि शायद ‘नई’ भाजपा को लगता है कि 70 साल की वसुंधरा को अवसर मिल चुके हैं और अब नेतृत्व में बदलाव ही नहीं, जेनरेशनल शिफ्ट का समय है। हालांकि आज का दौर ऐसा है जहां राज्य के चुनाव ज्यादा प्रतिस्पर्धी और बेहद स्थानीय होते हैं। यहां महिला वोटर काफी महत्वपूर्ण होती हैं और यहां राष्ट्रीय आंकड़ों के बजाय क्षेत्रीय चेहरे चुनाव की दिशा-दशा तय करते हैं। वसुंधरा के महत्व के बारे में भाजपा को देर से हुआ एहसास दिखाता है कि एक गहरे पितृसत्तात्मक राजनीतिक व्यवस्था में भी एक लोकप्रिय महिला राजनीतिक हस्ती का अपना बड़ा प्रभाव हो सकता है, विशेष तौर पर उसका जिन्होंने खुद को प्रासंगिक बनाए रखा हो।

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