संयुक्त राष्ट्र संघ में हुआ हमारी राबड़ी का जय घोष:लू से बचाती है राबड़ी; अब गांवों में भी कोल्ड ड्रिंक्स का चलन बढ़ा, राबड़ी का घटा
बीकानेर सहित प्रदेश के अन्य जिलों में वर्तमान में पारा 45 डिग्री के पार पहुंच गया है। पश्चिमी राजस्थान में रहने वाले लोगों के लिए यह गर्मी कोई नई बात नहीं है। राजस्थान के वाशिंदे अपनी जीवनशैली और खानपान के जरिए वर्षो से इस गर्मी से बच के आए हैं। लेकिन बदली परिस्थितियों ने जनजीवन को भी प्रभावित किया है।पश्चिमी अफ्रीका में कृषि जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से आयोजित यूएनसीडीसी सीओपी-15 के पैनल डिस्कशन में विशिष्ट अतिथि के रूप में शामिल हुए डूंगर कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी ने कृषि जैव विविधता के मुद्दे पर बोलते हुए कहा कि स्थानीय स्तर पर उगाए जाने वाले बाजरा, मोठ, चने, जौ जैसे धान व छाछ-दही के जरिए बनाया जाने वाला पेय राबड़ी लू के खतरों से सदियों से रेगिस्तान के बाशिंदों को बचाता आ रहा है और किस प्रकार से अब बाजार ने राबड़ी की जगह गांव-ढ़ाणी तक पेप्सी -कोला का जहर पहुंचा दिया है।ज्याणी समझाया कि राबड़ी का प्रयोग कम होना बाजरे व मोठ से बनने वाली अन्य भोजन सामग्री को भी प्रभावित करता है। उन्होंने कहा भोजन व्यवहार का एक पूरा सेट होता है और एक प्रकार के भोजन का कम होना उससे जुड़ी अन्य भोजन आदतों को भी प्रभावित करता है। लिहाजा भोजन व्यवहार पर बाजार के आक्रमण को कम करके, उपेक्षित समझी जाने वाली फसलों के लिए मांग पैदा करके, मिट्टी को उपजाऊ बनाने वाले पेड़ लगाकर, घास व फूलों के पौधों का संरक्षण करके , जैविक खेती को बढ़ावा देकर और पर्यावरण की देशज समझ को मजबूत करके ही विविधता को बढ़ाया व बचाया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से हर दो सालों में सीओपी का आयोजन किया जाता है। 2019 में 14वीं सीओपी भारत में आयोजित की गई थी। कोरोना के कारण 15वीं सीओपी 2021 की जगह अब आयोजित की जा रही है। यह 12 दिवसीय कार्यक्रम 20 मई को संपन्न होगा।
कृषि जैव विविधता में आ रही कमी के बारे में समझ बनाने का दिया नया नजरिया : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए इस पैनल डिस्कशन में प्रोफेसर ज्याणी ने सांस्कृतिक विविधता के खात्मे को जैव विविधता के खात्मे से जोड़ते हुए दुनिया को जैव विविधता विशेषकर कृषि जैव विविधता में आ रही कमी के बारे में समझ बनाने का नया नजरिया दिया।
ज्याणी मुताबिक जब एक लोकगीत मरता है तो उसके साथ विचार व व्यवहार की एक पूरी प्रणाली खत्म हो जाती है। उन्होंने कहा वैश्वीकरण के इस दौर में सांस्कृतिक विविधता खत्म होती जा रही है और भारत जैसे परंपरागत समाजों में इस खात्मे का असर यह हुआ है कि जो पर्यावरण संवेदना संस्कारों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती थी उसका क्रम टूट गया है। जिसका नुकसान यह हुआ है कि हम जलवायु के स्थानीय पक्ष को भूलते जा रहे हैं। ज्याणी ने जलवायु के स्थानीय पक्ष की भोजन के निर्धारण में कमजोर पड़ती भूमिका को राबड़ी के माध्यम से समझाया।
सामाजिक भागीदारी के मॉडल की सराहना पर्यावरणीय समझ विकसित करने, भूमि संरक्षण व जैव विविधता विकास में पारिवारिक वानिकी की भूमिका को भी ज्याणीने समझाया । डिस्कशन में शामिल सभी वक्ताओं ने पारिवारिक वानिकी द्वारा सामाजिक भागीदारी के मॉडल की सराहना की और इसे बुनियादी पर्यावरणीय समझ विकसित करने का सबसे कारगर तरीका बताया। जिसके जरिए कृषि जैव विविधता के विभिन्न पक्षों को समाज को समझाया जा सकता है। इस डिस्कशन को सुनने के लिए करीब 70 देशों के लोगों पेवेलियन में पहुंचे।

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