Divorce Judgement: सुप्रीम कोर्ट का सराहनीय फैसला लेकिन सवाल तो डाइवोर्स पर ही है
सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने सहमति से तलाक में निर्धारित 6 महीने वाले ‘कूलिंग पीरियड’ को समाप्त कर दिया है। यह निश्चय ही सराहनीय फैसला है लेकिन सवाल तो विवाह में तलाक वाली व्यवस्था पर ही है।
हिन्दुओं के विवाह वाले सरकारी कानून में अगर दो लोग आपसी सहमति से कोर्ट के पास तलाक मांगने जाते हैं तो अलग हो जाने की आपसी सहमति के बाद भी फेमिली कोर्ट उन्हें 6 महीने का समय देता है। इसके पीछे संभवत: कानूनी मंशा ये रही होगी कि अगर कोई संभावना बची हो तो विवाह को बचा लिया जाना चाहिए। इसलिए कोर्ट तत्काल तलाक देने की बजाय दोनों को 6 महीने का समय देता है कि अगर साथ रहने की कोई संभावना बची हो तो अलग न हो
अब सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को खत्म कर दिया है। संविधान प्रदत्त अधिकारों (अनुच्छेद 142) का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने सोमवार को आदेश दिया कि अगर आपसी सहमति से कोई जोड़ा तलाक मांगने पहुंचता है और अदालत को लगता है कि अब वापसी की कोई संभावना नहीं है, तो अदालतें उन्हें तत्काल तलाक दे सकती हैं। इसके लिए 6 महीने का अनिवार्य कूलिंग पीरियड जरूरी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने माना कि जब विवाह को बचाने का कोई आधार न बचा हो तो 6 महीने का कूलिंग पीरियड पीड़ादायक है। 1978 में 71वें लॉ कमीशन द्वारा जिस इररिवर्टिबल ब्रेकडाउन को तलाक का नया आधार बताया गया था उसमें अब 6 महीने का वेटिंग पीरियड नहीं होगा।
निश्चय ही सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला सराहनीय है। जब पति पत्नी दोनों आपसी सहमति से तलाक लेने कोर्ट पहुंचते हैं तब अनावश्यक रूप से उन्हें 6 महीने तक अलग न होने देना उनके साथ न्याय नहीं होता। आमतौर पर भारतीय समाज में पारिवारिक मामले कोर्ट कचहरी तक तभी पहुंचते हैं जब आपसी सुलह की सारी गुंजाइश खत्म हो जाती है। तलाक के जो आवेदन अदालत तक पहुंच जाते हैं उनमें शायद ही कोई ऐसा मामला हो जिसमें सुलह की गुंजाइश हो। ऐसे में अनावश्यक रूप से कचहरी में उनको उलझाकर रखने से वकीलों की फीस तो बनती है लेकिन दोनों के बीच फिर से कोई बात नहीं बनती।
परिवार न्यायालयों में ऐसे ढेरों मामले सालों साल उलझकर रह जाते हैं जिसमें कहीं कोर्ट के पास केस की भरमार होती है तो कहीं वकील ही दोनों ओर के लोगों को फंसाकर रखता है। भारत में अदालतें न्याय पाने से अधिक सजा दिलाने का माध्यम हैं। न्याय पाने आज भी लोग परमात्मा की शरण में ही जाते हैं। अदालतों में तो वही जाता है जिसे दूसरे पक्ष को परेशान करना होता है। परिवार अदालतों में भी यही होता है। पति गुजारा भत्ता न देने के कानूनी बहाने बनाता है जबकि पत्नी की ओर से कोशिश यह रहती है कि तलाक मिले न मिले गुजारा भत्ता मिलता रहे।
भारत में पारिवारिक अदालतों की दशा संभवत: सबसे दयनीय है। चूल्हे चौके का झगड़ा जब कचहरी की चौकी पर पहुंचता है तो कैसा विद्रूप रूप धारण कर लेता है इसे देखने के लिए कुछ दिनों तक पारिवारिक अदालतों की कार्रवाई हर उस व्यक्ति को देखनी चाहिए जिसे लगता है कि पति पत्नी के बीच झगड़े या विवाद को अदालतें हल कर सकती हैं। कहीं पति छोटा मोटा गुजारा भत्ता न देने की जुगत लगाने के लिए वकीलों को मोटी मोटी फीस देता है तो कहीं पत्नी पति की आधे तनख्वाह पाने के लिए परेशान रहती है। जो सरकारी नौकरी में हैं उनके लिए तलाक से बड़ी कोई त्रासदी नहीं हो सकत
अगर आप परिवार अदालतों को करीब से देखेंगे तो सबसे पहला सवाल आपके मन में यही आयेगा कि आखिर इस व्यवस्था की हमें जरूरत क्यों है? जब विवाह पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था है तो फिर इसमें कानून का दखल ही क्यों होना चाहिए? भारत में संवैधानिक रूप से परिवार का कोई अस्तित्व नहीं है। संविधान परिवार नामक व्यवस्था को न जानता है और न पहचानता है। संविधान सभा में जब इस पर बहस हुई तो अंतत: निर्णय यही हुआ कि परिवार व्यवस्था को मजबूत करने से स्टेट का रोल सीमित हो जाएगा।
एक ओर संविधान बनाने वाले लोग परिवार को संविधान में शामिल करने को तैयार नहीं थे तो दूसरी ओर 1921 से ही ब्रिटिश हुकूमत हिन्दू फेमिली लॉ बनाने का प्रयास कर रही थी। 1941 में बीएन राऊ के नेतृत्व में चार सदस्यों वाली एक हिन्दू कमेटी बनायी गयी जिसे यह काम सौंपा गया था कि महिला सम्मान की रक्षा के लिए बहुपत्नी प्रथा को कैसे रोका जा सकता है, या फिर उसके गुजारे आदि का सरकारी कानून बनाया जा सकता है। बीएन राऊ जिन्होंने 1935 में गवर्नमेन्ट ऑफ इंडिया एक्ट का भी ड्राफ्ट तैयार किया था, उन्हें लगा कि एक समग्र हिन्दू कोड बिल की जरूरत है। कमेटी ने इसका ड्राफ्ट भी तैयार किया।
1948 में कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर ने इस ड्राफ्ट में संशोधन किया और अपना एक नया ड्राफ्ट सामने रखा। क्योंकि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु स्वयं इस तरह के कानून के पैरोकार थे इसलिए 1950 में हिन्दू कोड बिल पास किया गया जिसके जरिए “हिन्दू पर्सनल लॉ” में सुधार किया गया। लेकिन नेहरु को इतने से संतोष नहीं था। भारत के विविधता भरे समाज में वो विवाह, उत्तराधिकार, संपत्ति, और गोद लेने जैसे मामलों में एक कानून चाहते थे। इसलिए 1955-56 में चार विधेयक पारित किये गये। हिन्दू मैरिज एक्ट, हिन्दू सक्सेशन एक्ट, हिन्दू मॉइनॉरिटी एण्ड गार्जियनशिप एक्ट तथा हिन्दू एडॉप्शन एण्ड मेन्टेनेन्स एक्ट। आज के परिवार न्यायालय इन्हीं में वर्णित कानूनों से चलते हैं जिनमें समय समय पर बदलाव भी होता रहता है।
अब यहां बुनियादी सवाल यह है कि जिस हिन्दू समाज में विवाह सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा रहा हो उसको एक कोड के तहत बांधने की कोशिश की क्यों की गयी? लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब हिन्दुओं की किसी भी विवाह व्यवस्था में तलाक या डाइवोर्स जैसी प्रथा ही नहीं थी तो इसे हिन्दू कोड बिल में शामिल ही क्यों किया गया? संभवत: नेहरु या अंबेडकर को यह लगता था कि ऐसा करके वो हिन्दू सोसायटी को माडर्न बना रहे हैं लेकिन इन उपायों ने हिन्दुओं को पारिवारिक और सामाजिक रूप से लाभ की बजाय नुकसान ही पहुंचाया है।
भले ही किसी हिन्दू को भी कानूनन तलाक लेने का अधिकार दे दिया गया लेकिन सामाजिक रूप से तलाक या डाइवोर्स को आज भी मान्यता नहीं मिली है। समाज में तलाक लेने वाली स्त्री या पुरुष को अच्छे भाव से नहीं देखा जाता। समाज सात जन्मों के बंधन वाले सिद्धांत से ही बंधा हुआ है। वह मानता है कि जिससे विवाह हो गया उसके साथ जीवन अच्छा बीते या बुरा, लेकिन निर्वाह करना है।
यही कारण है कि तमाम कानूनी सुविधाओं के बाद भी भारत में डाइवोर्स रेट सबसे कम है, 1 प्रतिशत से भी नीचे। वरना पड़ोस के चीन में विवाह विच्छेद दर 44 प्रतिशत, रूस में 73 प्रतिशत, यूरोप के देशों में 40 से 94 प्रतिशत और अमेरिका में 45 प्रतिशत है। पुर्तगाल दुनिया का सर्वाधिक डाइवोर्स रेट वाला देश है जहां विवाह विच्छेद दर 94 प्रतिशत है।
किसी प्रगतिशील विचारवाले व्यक्ति के लिए ये एक प्रतिगामी विचार लग सकता है कि भारत में स्त्री पुरुष के बीच अलगाव की दर इतनी कम क्यों है। लेकिन भारत में परिवारों को एक रखने, महिलाओं और पुरुषों दोनों को पारिवारिक और सामाजिक सुरक्षा देने में तथा बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए सात जन्मों वाला सिद्धांत जितना बड़ा सुरक्षा कवच है, उतना दूसरा कोई कानूनी उपाय हो नहीं सकता। देर सबेर एक स्थिर परिवार, समाज और देश के लिए हमें इस ओर दोबारा लौटना ही होगा। शताब्दियों की परंपरा से विकसित परिवार व्यवस्था को इस तरह व्यक्तिवाद की भेंट नहीं चढाया जाना चाहिए।
तलाक या डाइवोर्स अगर भारत के समाज का हिस्सा नहीं है तो यह कानून का भी हिस्सा नहीं होना चाहिए। तब तक जो तलाक लेना चाहते हैं उनके लिए छह महीने का कूलिंग पीरियड समाप्त करके सुप्रीम कोर्ट ने उन पर उपकार ही किया है। ऐसे लोग कम से कम गैर जरूरी कचहरी के चक्कर से बच जाएंगे।
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