स्टेशनरी शॉप बर्बाद हुई तो मोती उगाने लगे:BA पास शॉपकीपर बना पर्ल किंग; 14 लाख रुपए तक की कमाई
आपने वो मशहूर गीत तो सुना होगा- मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती..। जयपुर जिले के रेनवाल कस्बे के युवा नरेंद्र गर्वा के घर में रखे 25 वाटर टैंक मोती उगल रहे हैं। चौंक गए? म्हारे देश की खेती में आपको बताएंगे कि कैसे स्टेशनरी की दुकान में नुकसान उठाने के बाद नरेंद्र गर्वा मोतियों की खेती से कमा रहे हैं लाखों रुपए…
नमक की झील सांभर के उत्तर-पूर्व में करीब 40 किलोमीटर दूर और जयपुर शहर से करीब 70 किलोमीटर दूर है रेनवाल कस्बा। यहां बुनकर मोहल्ले में रहते हैं नरेंद्र गिर्वा। 46 साल के नरेंद्र 2016 से मोतियों की खेती (पर्ल फार्मिंग) कर रहे हैं।
नरेंद्र ने बताया कि पर्ल फार्मिंग करने से पहले उनकी स्टेशनरी की दुकान थी। 2007 में यह दुकान रेनवाल के मेन मार्केट में किराए पर लेकर स्टेशनरी का काम शुरू किया था। 2015 तक आते-आते स्टेशनरी की कमाई काफी घट गई। 4-5 लाख रुपए का नुकसान उठाना पड़ा। पर्ल फार्मिंग से अब वे हर साल 14 लाख तक कमा रहे हैं।
जयपुर जिले के कस्बे रेनवाल में मोतियों की खेती। मोतियों को कई तरह के सांचों में भी ढाला जा सकता है। ये मोती आर्टिफिशियल नहीं, बल्कि जैविक हैं। जिनकी मार्केट में डिमांड है।
स्टेशनरी की दुकान बंद हुई तो आया आइडिया
नरेंद्र ने बताया कि पिता हीरालाल गिर्वा (73) रेनवाल के प्राइमरी सरकारी स्कूल से 2009 में रिटायर हो गए थे। दोनों बेटियां हर्षिता और याना बड़ी हो रही थीं। दुकान चल नहीं रही थी। लगातार घाटा हो रहा था। 2015 तक तो किराया निकालना तक मुश्किल हो गया।
आखिरकार दुकान बंद कर दी। इसके बाद घंटों इंटरनेट पर स्टार्टअप की योजनाएं देखने लगा। पत्नी संतोष ने घर और बेटियों को संभाला और मैं नए रास्ते तलाशने लगा। आज न केवल पर्ल फार्मिंग से कमा रहा हूं, बल्कि खुद के फाउंडेशन के जरिए देश-दुनिया में इस फार्मिंग की ट्रेनिंग देकर प्रोजेक्ट भी लगवा रहा हूं।
नरेंद्र गर्वा, जिनकी जिद ने उन्हें पर्ल प्रोडक्शन का मास्टर बना दिया है। पहली बार 500 सीप में से सिर्फ 35 से प्रोडक्शन लिया था। इसके बाद बाकायदा ट्रेनिंग ली। अब एक खेप से 4000 मोती ले रहे हैं। एक मोती 400 रुपए तक बिकता है।
बिना ट्रेनिंग सीप लाया, सिर्फ 70 मोती का प्रोडक्शन मिला
इस दौरान पर्ल फार्मिंग के बारे पता चला। सोचा कि आसान काम है। मछुआरों से सीप खरीद लाओ, घर में वाटर टैंक में डाल दो, सालभर बाद मोती हासिल कर लो। बस इतनी सी जानकारी के साथ जनवरी 2016 में गांव के ही एक साथी नटवरलाल के साथ ट्रेन पकड़कर केरल चला गया। वहां मछुवारों से 500 सीप लेकर आया।
ट्रेन से लौटने में सप्ताहभर लग गया। सीप जिंदा प्राणी होता है। सभी सीप वाटर टैंक में डाल दी और जैसी जानकारी थी वैसा दाना-पानी डालता रहा। पहली बार में 500 में से सिर्फ 35 सीप से 70 मोती निकले। तब लगा कि ट्रेनिंग की जरूरत है।
सीमेंट के इन्हें टैंक में नरेंद्र सीप के जरिए तैयार करते हैं खेप। करीब डेढ़ साल में खेप तैयार होती है। एक सीप से 2 मोती हासिल होते हैं।
ट्रेनिंग के बाद मोती से कमाए 2 लाख
इसके बाद जानकारी जुटाई तो पता चला कि उड़ीसा के भुवनेश्वर में केंद्रीय मीठा जलजीव पालन संस्थान (CIFA) मोतियों की खेती की ट्रेनिंग देता है। यह सरकारी संस्थान है। नरेंद्र ने 6 हजार रुपए में 5 दिन की ट्रेनिंग ली। वहां उन्हें पर्ल फार्मिंग के बारे में सटीक जानकारी मिली। इसके बाद नरेंद्र ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
2017 में उन्हें 1000 सीप से 2 लाख रुपए की कमाई हुई तो कॉन्फिडेंस जागा। नरेंद्र ने बताया कि बारिश के दिनों में नदियों से बहर सीप समुद्र में पहुंच जाती हैं। मछुवारे इन्हें इकट्ठा कर लेते हैं। सितंबर-अक्टूबर सीप खरीदने का आदर्श वक्त होता है। एक सीप का खर्च करीब 50 रुपए आता है।
मोतियों की खेती सब्र का काम है। इसकी खेप के लिए करीब डेढ़ साल इंतजार करना होता है।
वाटर टैंक में बनता है सफेद मोती
नरेंद्र ने बताया कि वे सफेद मोती का प्रोडक्शन करते हैं। पर्ल फार्मिंग के लिए घर में इतना स्पेस होना चाहिए जिसमें कुछ पानी के टैंक रखे जा सकें। नरेंद्र सितंबर-अक्टूबर में केरल से करीब 3 हजार सीप लाते हैं। घर में बने 25 वाटर टैंक में उन्हें स्टोर करते हैं। एक सीप से 15 से 18 महीने में 2 मोती तैयार होते हैं। 3 हजार सीप में से 1 हजार सीप मोती का उत्पादन नहीं कर पाते। 2 हजार सीप से 4 हजार सफेद मोती हासिल होते हैं।
वाटर टैंक में 15 से 18 महीने के लिए सीप को रखा जाता है। सीप जिंदा प्राणी होता है, इसलिए भोजन डाला जाता है। पानी में शैवाल, मल्टीविटामिन और चूना डाला जाता है। चूने से मोतियों में चमक आती है। दिन में दो बार मशीन से पानी में ऑक्सीजन दी जाती है। पानी को 20 से 25 डिग्री के तापमान पर मेंटेन कर रखा जाता है।
मोती प्रोडक्शन आसान काम भी नहीं है। नरेंद्र केरल में मछुआरों से सितंबर-अक्टूबर में जिंदा सीप लेकर आते हैं। इसके बाद इन सीप को डेढ़ साल तक पालते हैं। लगातार कुछ बातों का ध्यान रखना पड़ता है वरना सीप मोती उत्पादन नहीं कर पाती।
सीप से मोती बनाने का खर्च और कमाई
सालभर में एक सीप पर 50 से 60 रुपए खर्च आता है। एक सीप में दो मोती निकलते हैं। नरेंद्र एक खेप से 4 हजार मोती निकालते हैं। ये मोती 200 से 400 रुपए प्रति नग के हिसाब से बिकते हैं। इस तरह एक खेप 8 लाख से 16 लाख रुपए तक बिकती है। जबकि एक खेप पर खर्च डेढ़ से 2 लाख रुपए तक आता है।
इस हिसाब से कमाई प्रति खेप (एक से डेढ़ साल में) 6 से 14 लाख रुपए तक हो जाती है। ये मोती ऑनलाइन भी बिकते हैं। दवा कंपनियां, आयुर्वेदिक कंपनियां, ज्वेलर्स, हैंडिक्राफ्ट संस्थाएं ये मोती खरीदती हैं।
तालाब का टेम्परेचर मेंटेन रखना होता है। सीप को मोती प्रोडक्शन होने तक पालना होता है।
अब लोगों को देते हैं ट्रेनिंग, देश-विदेश में लगवाते हैं प्रोजेक्ट
पर्ल फार्मिंग में माहिर हो चुके नरेंद्र लोगों को ट्रेनिंग भी देते हैं और प्रोजेक्ट भी लगवाते हैं। 2018 में उन्होंने अलखा फाउंडेशन के नाम से एक एनजीओ शुरू किया। इस एनजीओ के जरिए नरेंद्र 250 लोगों को पर्ल फार्मिंग सिखा चुके हैं। उनसे ट्रेनिंग लेने के बाद लोग हिमाचल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,पंजाब, चंडीगढ़, सहित अन्य राज्यों में पर्ल फार्मिंग शुरू कर चुके हैं।
राजस्थान में अजमेर, सीकर, झुंझुनू, चूरू, अलवर, भरतपुर, नागौर, चित्तौड़गढ़, उदयपुर में भी पर्ल फार्मिंग की जा रही है। नरेंद्र ने बताया कि नेपाल और भूटान तक से उनके पास प्रोजेक्ट शुरू करने के ऑफर हैं। इसके अलावा 2023 में दुबई और रोमानिया में भी प्रोजेक्ट स्थापित करने की बात चल रही है।
कुदरती मोती अपने आप में कीमती होता है।
नरेंद्र ने बताया कि उनकी बड़ी बेटी हर्षित बीए पास कर चुकी है, वह 23 साल की है। छोटी बेटी याना 11वीं में पढ़ रही है। अब बेटियों की चिंता नहीं है। सालाना अच्छी कमाई हो रही है। लोग खुद इंटरनेट पर सर्च कर कॉन्टेक्ट करते हैं और वाइट पर्ल की डिमांड करते हैं। कुछ लोग फार्मिंग के बारे में जानना चाहते हैं। कुछ प्रोजेक्ट लगाने के लिए मदद मांगते हैं। अब पूरी तरह पर्ल फार्मिंग में ही बिजी हो गया हूं।
रेनवाल को क्यों कहते हैं किशनगढ़-रेनवाल, यह भी दिलचस्प है।
रेनवाल को लेकर रोचक फैक्ट्स
- रेनवाल नमक की झील सांभर के नजदीक है। यह चौमूं ठिकाने के अधीन एक गांव था। व्यापारिक केंद्र होने के कारण यहां से व्यापारी गुजरते थे। इस गांव के किनारे से नदी बहती थी। उसी नदी के किनारे व्यापारी लंबी यात्रा के बाद रात्रि विश्राम करते थे। इसी कारण इसका नाम रैन-वास के कारण रेनवाल पड़ा।
- रेनवाल ऐसा कस्बा है जिसके 2 नाम हैं। रेनवाल और किशनगढ़-रेनवाल। दरअसल नमक झील के कारण यह व्यापार का बड़ा केंद्र था। यहां से व्यापारी गुजरते थे। चौमूं ठिकाने के अधीन होने के कारण चौमूं ठिकाने के ठाकुर कृष्ण सिंह नाथावत ने यहां गढ़ बनाया और चुंगी (टोल-टैक्स) बना दिया।
- कृष्णगढ़ के कारण ही कस्बे के एक हिस्से को किशनगढ़ कहते हैं। नजदीकी गांव रेनवाल पहले से था। ऐसे में रेनवाल को किशनगढ़-रेनवाल कहा जाता है। यह अजमेर के किशनगढ़ से अलग है।
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