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एक बार फिर शरिया कानून के साए में अफगान महिलाएं महिला अधिकारों पर फिर से भारी पड़ी सियासत

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अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे का अंतर्राष्ट्रीय पटल पर गहरा असर दिखाई दे रहा है। ऐसा लग रहा है फिर से एक बार आतंक का साया अफगानिस्तान को शिकंजे में पूरी तरह से ले चुका है।
इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा परेशानी और भय के माहौल में अफगानिस्तान की महिलाएं नजर आ रही हैं। तालिबान ने अपने रुख को साफ करते हुए फिर से एक बार फासीवाद और हिटलर शाही से भरे निर्णय लेते हुए अफगानिस्तान में शरिया कानून को लागू करने की घोषणा कर दी है। घोषणा के बाद से विश्व भर में अफगानी महिलाओं के प्रति तालिबानी व्यवहार और उनके विचारों का डर दिखाई दे रहा है।
प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन ने अपने हैंडल से किए एक ट्वीट में कहा- ‘तालिबान ने कहा कि वे शरिया कानून के तहत महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करेंगे, लेकिन समस्या यह है कि शरिया कानून में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिए अधिकार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ही नहीं।’
देश में तालिबान के कट्टर शरिया शासन लौटने की आहटें आते ही वहां की जनता को 1996 से 2001 का बिताया समय याद आने लगा है। 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान से तालिबान शासन को समाप्त किया। बहुत से लोगों को अब भय सताने लगा है कि तालिबान शासन आने के बाद महिलाओं और जातीय अल्पसंख्यकों की आजादी समाप्त हो जाएगी और पत्रकारों और गैर सरकारी संगठनों के काम करने पर पाबंदियां लग जाएंगी।
उल्लेखनीय है कि पिछली बार 1996 से लेकर 2001 तक तालिबान ने अफगानिस्तान पर 15 साल तक क्रूर शासन व्यवस्था लागू की थी। इस दौरान महिलाओं पर मानवाधिकारों का उल्लंघन, उन्हें रोजगार और शिक्षा से वंचित करना, बुर्का पहनने के लिए मजबूर करना पुरुष या संरक्षक के बगैर बाहर न निकलने देना जैसे नियमों का पालन करना पड़ा था।
इसके साथ ही इस कानून के मुताबिक देश का मुखिया कोई मुसलमान मर्द ही हो सकता था, औरत नहीं. महिलाओं के अकेले बाहर निकलने और काम करने पर पांबदी थी और उनको बुर्का में रहना अनिवार्य था. जरूरत पड़ने पर महिलाएं अपने महरम, जिनसे शादी नहीं हो सकती जैसे- पिता, भाई, चाचा, मामू, फूफा, दादा, नाना के साथ ही बाहर निकल सकती थीं. उस दौरान महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी थी. सिर्फ 8 साल की उम्र तक तालीम की इजाजत थी. यहां तक की महिलाओं के लिए हाई हील के जूते पहनने पर पाबंदी थी. कोई पुरुष महिलाओं के कदमों की आहट न सुन सके, इसलिए महिलाओं को हाई हील के जूते पहने की इजाजत नहीं थी।
कोई अजनबी न सुन ले, इसलिए महिलाएं सार्वजनिक तौर पर तेज आवाज में बात नहीं कर सकती थीं।
हालांकि तालिबान ने लोगों को आश्वासन दिया है कि सरकार और सुरक्षा बलों के लिए काम करने वालों पर प्रतिशोधात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी और जीवन, संपत्ति और सम्मान की रक्षा की जाएगी। वे देश के नागरिकों से देश नहीं छोड़ने की भी अपील कर रहे हैं, लेकिन तालिबान की हालिया कार्रवाई कुछ और ही तस्वीर पेश करती है। उस वक्त ऐसी कई खबरें सामने आई थीं, जिनमें यह कह गया था कि तालिबान के आतंकी घर-घर जाकर 12 से 45 साल उम्र की महिलाओं की सूची तैयार करते थे। इसके बाद ऐसी महिलाओं को आतंकियों से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता था। दिसंबर 1996 में काबुल में 225 महिलाओं को ड्रेस कोड का पालन नहीं करने पर कोड़े लगाने की सजा सुनाई गई थी।
लड़कियों को स्कूल जाने की इजाजत नहीं थी।
पूरे अफगानिस्तान में संगीत और खेल गतिविधियों पर पाबंदी थी। यहां तक कि पुरुषों को अपनी दाढ़ी साफ कराने की इजाजत नहीं थी। आज आवश्यकता यह है कि इस दौर में जब महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं ,खतरनाक आतंकी संगठन का पर्याय बन चुके तालिबान के वहशी और भयाक्रांत कानून से महिलाओं की रक्षा की जाए। अन्यथा 21वीं सदी का विश्व एक बार फिर उस पुरातन पंथी और भयाक्रांत माहौल में जीने को विवश हो जाएगा।

डॉ मुदिता पोपली

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