मैंने गांव वालों का खून पिया, सीना चीरकर खाया:मुझे मैला पिलाया, रॉड से दागा; गर्दन पर गड़ासा रखा तो कहना पड़ा- मैं डायन हूं
”मां को कुछ लोग घसीटते हुए ले गए। पेड़ से बांधकर पूरी रात पीटा। मां दहाड़ मारकर चीखती रही, चिल्लाती रही। मारते-मारते थक गए तो सुबह भरी पंचायत में गर्म रॉड से दागा। जबरन मैला पिलाया। एक आदमी ने मां की गर्दन काटने के लिए गड़ासा उठा लिया। मां डर गई और चिल्लाकर बोल पड़ी- हां मैं डायन हूं, मैंने ही गांव वालों को खाया है।”
इतना कहते-कहते मुन्नी टूडू बिफर पड़ती हैं। गले से माइक हटा देती हैं। मुन्नी झारखंड के दुमका जिले के आसवारी गांव में रहती हैं। 24 सितंबर को उनकी मां सोनामुनी टूडू सहित चार लोगों को गांव वालों ने डायन बताकर अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी।
इन्हीं पीड़ितों से मिलने मैं दिल्ली से देवघर होते हुए करीब 1365 किलोमीटर का सफर तय करके दुमका जिले के असवारी गांव पहुंची।
सोनामुनी का घर। आंगन में खुला किचन है (बाएं)। दरवाजे पर पानी के बर्तन रखे हैं। दूर से पानी भरकर लाना पड़ता है।
झोपड़ीनुमा घर। छोटा दरवाजा। झुककर मैं अंदर दाखिल होती हूं। आंगन में खटिया पर 14-15 साल की एक लड़की और लड़का बैठे हैं। सामने मिट्टी का चूल्हा है। आसपास बर्तन बिखरे पड़े हैं। पीछे बांस के ऊपर पुराने और मैले कपड़े टंगे हैं। बाजू में लगी मिट्टी की दीवार दरकी पड़ी है।
मैं पूछती हूं यही सोनामुनी का घर है?
पीछे से लाल मेक्सी पहने 30-35 साल की एक महिला आती हैं। संथाली में कहती हैं,’ वे रिश्तेदार यहां गई हैं। आप यहां से जाओ, हमें किसी से बात नहीं करनी।’
क्या डर की वजह से आप बात नहीं कर रहीं? मेरे सवाल के बाद वे कुछ देर चुप रहती हैं। फिर मुझे खटिया पर बैठने का इशारा करती हैं। मेरे समझाने के बाद बातचीत के लिए हामी भरती हैं। ये महिला सोनामुनी की बेटी मुन्नी टूडू हैं।
सोनामुनी की बेटी मुन्नी टूडू। मुन्नी की शादी हो गई है। मां से साथ मार-पीट की घटना के बाद वे मायके आई हैं।
आपकी मां को डायन क्यों कहा उन लोगों ने?
मुन्नी कहती हैं, ‘अगस्त-सितंबर में गांव के दो लोगों की मौत सांप के डसने से हो गई। एक आदमी के पेट में दर्द हुआ और उसकी जान चली गई। गांव के लोगों ने मां को इसका गुनहगार बना दिया। वे लोग मेरी मां से कहने लगे कि तुमने ही डायन किया है।
उस रात में हम लोग खाना खाकर सो रहे थे। तभी दरवाजा जोर-जोर से पीटने की आवाज आई। मां ने जैसे ही दरवाजा खोला, उन लोगों ने मां को बाहर खींच लिया। मां को घसीटते हुए ले गए और एक पेड में बांध दिया। पूरी रात पीटा। जान बचाने के लिए मां को बोलना पड़ा कि मैं डायन हूं।’
मुन्नी कहती हैं कि मां की जान तो बच गई है, लेकिन हमारा जीवन नर्क हो गया है। मां और हमारे परिवार पर डायन का ठप्पा लग गया है।
भीड़ में से एक ने पूछा- गांव वालों को कैसे खाया (मारा)? कांपती हुई मां बोली- पहले खून पिया। फिर छाती चीरकर खाया। इससे मां की जान तो बच गई, लेकिन हमारी जिंदगी नर्क हो गई। मां उस दिन के बाद से ही सदमे में है। किसी से बात नहीं करती।
सुबह जंगल के लिए निकल जाती है और देर रात तक लौटती है। कभी एक-दो कौर खा लेती है, तो कभी बिन कुछ खाए-पिए सो जाती है। गांव का कोई भी हमारे घर नहीं आता। लोग देखते ही दूर भागते हैं। रात-बेरात दबंग घर आकर धमकी दे जाते हैं कि पुलिस से कुछ कहा तो पूरा परिवार खत्म कर देंगे।’
मैं दबंगों के नाम पूछती हूं। इस पर मुन्नी चुप्पी साध लेती हैं। आपकी मां कब लौटेंगी? जवाब मिलता है, पता नहीं!
ये वो चार लोग हैं जिन्हें गांव वालों ने डायन बताकर पेड़ से बांधकर पीटा था। तस्वीर में बाएं से सोनामुनी, कोला मुर्मू, श्रीलाल मुर्मू और रस्सी मुर्मू।- फाइल फोटो
रस्सी मुर्मू, श्रीलाल मुर्मू और उनकी पत्नी कोला टूडू ये वो तीन नाम हैं, जिन्हें सोनामुनी के साथ गांव वालों ने डायन बताकर पीटा था। मैंने मुन्नी से इनके बारे में पूछा। वे कहती हैं, ‘तीनों गांव छोड़कर जा चुके हैं। श्रीलाल मुर्मू और उनकी पत्नी कोला टूडू भौंडेटांड गांव में अपने रिश्तेदार के यहां हैं। रस्सी मुर्मू कहां हैं, मैं नहीं जानती।’
इसके बाद मैं कोला टुडू के घर पहुंची। कच्चे ईंट का घर। घर की चौखट निकाल ली गई है। आंगन में सूखे पत्तों का ढेर लगा है। मिट्टी का चूल्हा ढांपा-धपा पड़ा है। देखने से ही लग रहा है कि महीनों से यहां किसी का आना नहीं हुआ है। पास में ही 4-5 पीपों में पानी भरा रखा है। उसमें गंदगी भर गई है।
यहां से कुछ ही कदम चलने पर रस्सी मुर्मू का घर मिला। पुरानी ईंट की दीवारों पर खप्पर का घर। दरवाजे निकाल लिए गए हैं। आंगन में ताड़ के पत्ते-ढंठल बिखरे पड़े हैं।
श्रीलाल मुर्मू का घर। घर के दरवाजे निकाल लिए गए हैं। आंगन में चूल्हा ढांपा पड़ा है।
यहां से बाहर निकलती हूं तो सामने 5-6 महिलाएं खड़ी मिलती हैं। वे शायद मुझे देखने आई हैं कि शहर से कोई लड़की आई है। मैं उन लोगों से पूछती हूं- उस रात क्या हुआ था पंचायत में?
जवाब मिलता है- हमें कुछ नहीं पता। पंचायत में महिलाओं को जाने नहीं दिया जाता।
फिर रस्सी मुर्मू, कोला टुडू और सोनामुनी मुर्मू वहां कैसे पहुंचे?
एक महिला कहती हैं, ‘जिसका मामला होता है, उसे ही पंचायत में बुलाया जाता है। इन लोगों ने डायन की बात खुद ही कबूली है, तो हम क्या कर सकते हैं।’
इसी बीच एक महिला बोल पड़ती है, ‘मेरे पति का कोई दोष नहीं है। पुलिस उन्हें उठा ले गई है। जेल में बंद कर दिया है। पता नहीं वो कब वापस आएंगे। फसल कट गई है, लेकिन पूजा नहीं हो पा रही। ये पूजा मांझिहाड़ यानी गांव का प्रधान करता है और वो जेल में है। पूजा नहीं होगी तो हमारे देवता नाराज हो जाएंगे। अगले साल फसल भी नहीं मिलेगी।’
मैंने उन लोगों से भी बात करने की कोशिश की जिन घरों में लोगों की मौतें हुई हैं, लेकिन कोई बात करने के लिए राजी नहीं हुआ, लेकिन दबे जुबान से वे इन महिलाओं को ही गुनाहगार मानते हैं।
मेरा अगला पड़ाव है भौंडेटांड गांव। श्रीलाल मुर्मू और कोला टुडू फिलहाल इसी गांव में रह रहे हैं। जब मैं उनसे मिलने पहुंची, वे काम पर गए थे। कुछ देर इंतजार करने के बाद उनसे मुलाकात हुई।
श्रीलाल मुर्मू और उनकी पत्नी कोला टूडू। श्रीलाल कहते हैं कि हम वापस गांव नहीं लौट पाएंगे। गांव के दबंग लोग हमें धमकी देते हैं।
उस स्याह रात को याद करते हुए कोला टूडू कहती हैं, ‘रात का खाना खाने के बाद मैं, पति और बच्चों के साथ सो रही थी। जोर-जोर से दरवाजा पीटने की आवाज आई। मैंने उठकर दरवाजा खोला। सामने लाठी-डंडा लिए 10-12 लोग खड़े थे। मुझे देखते ही बाल पकड़कर जमीन पर पटक दिया। लात-घूंसे मारने लगे। रोने-चीखने की आवाज सुनकर पति आए तो उन्हें भी वे लोग मारने लगे।
वे कह रहे थे कि तुम गांव वालों को खा रही हो। हम रोए-गिड़गिड़ाए, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। पूरी रात पीटा। घर में घुसने नहीं दिया। पति भी गली में रात-भर जमीन पर पड़े रहे। ये लोग तो बच्चों पर भी झपटे थे, लेकिन अंधेरा होने के चलते वे घर से भाग गए। उनकी जान बच गई।
श्रीलाल मुर्मू अपने पीठ पर जख्म के निशान को दिखाते हुए। पंचायत में गांव के दबंगों ने उन्हें लोहे की रॉड से दागा था।
सुबह पीटने वालों ने पंचायत बुलाई। मांझीहांड की मौजूदगी में मुझे, मेरी बड़की माई (बड़ी मां) और उनकी सहेली सोनामुनी को डायन बताया गया। हम नहीं माने तो उन लोगों ने लोहे का रॉड गर्म किया और उससे हमें मारने लगे। फिर मैला पिलाया।
इसके बाद भी हम नहीं माने तो उन लोगों ने गर्दन पर गड़ासा रख दिया। अब हम क्या करते। जान बचाने के लिए कहना पड़ा कि हम डायन हैं।’
चलते-चलते मैंने पूछा- दिनभर काम करने के कितना रुपए मिलेंगे? जवाब मिला- 160 रुपए।
पद्मश्री छुटनी देवी कहती हैं- अकेली और संपत्ति वाली महिला को गांव वाले करते हैं टारगेट
झारखंड के सरायकेला खरसावां जिले की रहने वाली छुटनी देवी डायन प्रथा के खिलाफ मुहिम चलाती हैं। इसके लिए पिछले साल उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। 90 के दशक में छुटनी देवी को भी डायन प्रथा का दंश झेलना पड़ा था।
तस्वीर पिछले साल की है। तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद छुटनी देवी को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित करते हुए।
वे अपनी कहानी सुनाती हैं…
‘’तारीख 3 सितंबर 1995, मेरे पड़ोसी की बेटी बीमार थी। वो ठीक नहीं हो रही थी। उन लोगों ने मुझसे कहा कि तुमने इस पर डायन कर दिया है। तुम इसकी जान लेना चाहती हो। गांव वालों ने पंचायत बुलाई और मुझ पर 500 रुपए का जुर्माना लगा दिया। मैंने जैसे-तैसे कर्ज लेकर जुर्माना तो भर दिया, लेकिन वो बच्ची अगले दिन भी ठीक नहीं हुई।
4 सितंबर को एक साथ 40-50 लोगों ने मेरे घर पर धावा बोला। मुझे घसीटते हुए घर से बाहर ले गए। रास्ते में कपड़े भी नोंच डाले। बेरहमी से पीटा। मल-मूत्र फेंका। इस घटना के बाद पति ने घर से निकाल दिया। तीनों बच्चों को लेकर आधी रात को मैं गांव से निकल गई।
नदी पार करके अपने भाई के घर पहुंची। कुछ रोज बाद मां की मौत हो गई। यहां भी लोग मुझे डायन कहने लगे। मुझे यह घर भी छोड़ना पड़ा। इसके बाद गांव के बाहर एक पेड़ के नीचे झोपड़ी बनाकर रहने लगी।
मजदूरी करके किसी तरह अपना और बच्चों का पेट भरने लगी। इसके बाद एक NGO से जुड़ गई और डायन प्रथा के खिलाफ लोगों को जागरूक करने लगी।’’
मैंने छुटनी देवी से डायन प्रथा के बारे में पूछा। वे कहती हैं- महिला अकेली हो, बूढ़ी हो या बाल-बच्चे न हों तो पड़ोसी शक करते हैं। किसी की मौत हो जाए, कोई बीमार हो जाए, कोई पेड़ सूख जाए, गाभिन गाय का दूध सूखे या कोई और अनहोनी हो, सब अकेली, बुजुर्ग और बेसहारा औरतों को ही घेरकर पीटते हैं।
औरत अकेली है और संपत्ति वाली है तब भी गांव के दबंग उसे डायन करार दे देते हैं।’
गांव में कोई पढ़ा-लिखा नहीं, डॉक्टर के पास जाते नहीं, इसलिए ऐसा हो रहा
सोशल एक्टिविस्ट सच्चिदानंद सोरेन कहते हैं,’ गांव वालों ने पुलिस को बताया है कि ये महिलाएं भूत-प्रेत की पूजा करती हैं। जादू-टोना करती हैं। इसलिए जब भी कोई बच्चा बीमार होता है, पशु बीमार होता है, पेड़ सूखता है या फिर किसी की मौत होती है, तो इन्हीं महिलाओं को जिम्मेदार ठहराया जाता है।
मैं सवाल करती हूं- क्या आपको भी ऐसा लगता है? सोरेन बताते हैं- इस इलाके में स्वास्थ्य सुविधाएं अच्छी नहीं हैं। लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं। जागरूक नहीं हैं। ये लोग डॉक्टर के पास नहीं जाते।
ओझा और भगत के पास जाते हैं या फिर झोला छाप डॉक्टर से इलाज कराते हैं। इलाज के अभाव में लोग मर जाते हैं। फिर कहते हैं कि डायन ने जान ले ली। मैं इन चीजों को नहीं मानता।’
सोरेन आगे कहते हैं- रस्सी मुर्मू अकेली रहती हैं, उनका मकान और जमीन है, लेकिन पति या बच्चे नहीं। सोनामुनी भी पति की मौत के बाद से सिंगल मदर हैं। श्रीलाल और उनकी पत्नी कोला का रस्सी और सोनामुनी के यहां आना-जाना है। इसलिए लोगों ने इन्हें टारगेट किया।’
जैसे ही किसी महिला पर आरोप लगता है, गांव के लोग उसका बहिष्कार कर देते हैं
दुमका की घाट रसिकपुर पंचायत की मुखिया और आदिवासियों की समस्याओं पर लिखने वाली निर्मला पुतुल कहती हैं- ‘2001 में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम बना। इसमें कड़ी सजा और जुर्माने का प्रावधान है। इसके बावजूद महिलाओं को डायन के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है। पुलिस का लचर रवैया इस तरह की घटनाओं को बढ़ावा दे रहा।
बेशक औरत चांद तक पहुंच गई हो, लेकिन आज भी पुरुष महिलाओं को जागीर समझते हैं। महिलाएं घर संभालती हैं। ताड़ी बेचकर पैसा लाती हैं। खेत में काम करती हैं, लेकिन जैसे ही उन पर कोई आरोप लगाता है, पुरुष उसका बहिष्कार कर देते हैं।’
जब इस मुद्दे पर मैं सरैयाहाट के थाना प्रभारी विनय कुमार से बात करती हूं तो वे बताते हैं कि 4 महीने पहले मैंने यहां पदभार संभाला था। तब से अब तक इस तरह का यह पहला मामला है। 6 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है। गांव का माहौल अब शांत हैं। गांव में चौकीदार तैनात किए गए हैं, ताकि पीड़ित अपने गांव जाकर रह सकें।
हालांकि गांव के जो हालात हैं, उससे नहीं लगता कि इतनी जल्दी इन लोगों की वापसी हो पाएगी। यहां के लोग ये मानने को तैयार ही नहीं है कि डायन प्रथा अंधविश्वास है।
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