6 घंटे में 2,600 लोगों को मार डाला:इंदिरा गांधी पहुंचीं, तब तक शव नदी में फेंक दिए गए; नेल्ली नरसंहार की पूरी कहानी
‘मेरे पिता ने बताया कि जब ये सब हुआ तो मैं छह महीने की थी। मेरी मां जान बचाने के लिए खेतों में भागते हुए गिर गईं। छह दिन बाद एक पुलिस वाले में मुझे मेरी मां के शव से लिपटे हुए देखा। बाद में मुझे मेरे पिता को सौंप दिया गया, जो राहत शिविर में रह रहे थे।’
ये आपबीती है असम के नौगांव की रहने वाली जोहरा खातून की। वो जिस घटना का जिक्र कर रही हैं वो आजाद भारत का सबसे बड़ा नरसंहार था। जिसमें नेल्ली और आस-पास के गांवों में महज 6 घंटे में जोहरा की मां समेत 2600 लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई थी। मरने वालों में ज्यादातर बांग्ला भाषी मुसलमान थे।
ये नरसंहार इंदिरा गांधी की सरकार में हुआ था। मामले की जांच हुई, रिपोर्ट बनी, लेकिन सार्वजनिक नहीं की गई। मृतकों के परिजनों को मुआवजे में 5 हजार रुपए और टीन शेड मिले और घायलों को महज 1500 रुपए।
18 फरवरी 1983 को हुए नेल्ली नरसंहार को आज ठीक 40 साल पूरे हो चुके हैं। हम इसकी पूरी कहानी बता रहे हैं। कहानी को आसान बनाने के लिए हमने इसे 4 चैप्टर में बांटा है…
चैप्टर-1: असम में बांग्ला भाषियों को वोटिंग का अधिकार
आजादी के बाद से ही बांग्लादेश से सटे असम के जिलों में खूब पलायन हुआ। 70 के दशक में इंदिरा गांधी की सरकार ने बांग्लादेश से आए करीब 40 लाख बांग्ला भाषी मुस्लिमों को वोटिंग का अधिकार दे दिया। असम की जनसंख्या 1971 में 1 करोड़ 46 लाख से 1983 में 2 करोड़ 10 लाख हो गई।

असम में बंग्लादेश से आए मुस्लिमों के खिलाफ छेड़े गए असम आंदोलन के दौरान गुवाहाटी में प्रदर्शन एक तस्वीर। साभार- विकिपीडिया
इससे असम मूल निवासी नाराज हो गए। उन्हें डर सताने लगा कि अब स्थानीय लोगों को संसाधनों पर अवैध तरीके से आए बाहरी लोगों का कब्जा हो जाएगा। असम में राष्ट्रपति शासन था और धीरे-धीरे तनाव बढ़ता जा रहा था। स्थानीय संगठन और खासकर स्टूडेंट यूनियनों के विरोध प्रदर्शनों ने जोर पकड़ लिया।
दो छात्र संगठन आमने-सामने थे। इनमें से एक संगठन था असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू), जो चुनाव नहीं चाहता था। दूसरा था आल असम माइनरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (आमसू) जिसे चुनाव से कोई परहेज नहीं था। उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांग्रेसी नेता गनी खान चौधरी के साथ इलाके का दौरा किया और 1983 में चुनाव का ऐलान कर दिया।

असम में ‘विदेशियों’ के विरोध को लेकर सड़क पर प्रदर्शन करते आसु के कार्यकर्ता। साभार- PSBT
स्थानीयों की मांग थी कि नई वोटर लिस्ट बनाई जाए। इसे अनसुना कर दिया गया और 1979 की मतदाता सूची पर ही चुनाव कराने का ऐलान किया गया। आसू नहीं चाहता था कि चुनाव हो। उनकी मांग थी कि अवैध रूप से रह रहे प्रवासी मुसलमानों को बाहर निकाला जाए। आसू ने ऐसा न किए जाने पर चुनाव में वोटिंग का विरोध किया।
चैप्टर-2: 14 फरवरी 1983 को वोटिंग के बाद बढ़ा आक्रोश
14 फरवरी यानी घटना से चार दिन पहले मतदान था। जिन इलाकों में नरसंहार हुआ था, वहां के मुस्लिम बहुल्य गांवों में स्थानीय आंदोलनकारियों ने मीटिंग बुलाई। यहां ऐलान कर दिया कि गांव से कोई भी चुनाव में भाग लेगा तो उसे समाज से निकाल दिया जाएगा और 500 रुपए का जुर्माना भी लगाया जाएगा।
इन सब के बीच चुनाव चल ही रहे थे कि 18 फरवरी की घटना वाले इलाके नौगांव से 150 किलोमीटर दूर डारंग के गोहपुर में हिंसा की खबरें आ गईं। वहां की बोरो जनजाति ने असमियों की हिंसा से तंग आकर ऐलान कर दिया कि वो चुनाव में भाग लेंगी।
बोरो जनजाति और प्लेन ट्राइबल काउंसिल ऑफ असम (PTCA) नामक संगठन के कार्यकर्ताओं के बीच तनाव बढ़ गया। यहां हिंसा हुई और अफवाह फैल गई कि 17 गांवों को जला दिया गया है, जिसमें 1000 लोगों की जान चली गई है।
तीन दिन बाद, 17 फरवरी को जब पुलिस ने आखिरकार इलाके की छानबीन शुरू की, तो पता चला कि हमला दोनों तरफ से किया गया था। बोरो जनजाति के तकरीबन 27 गांवों पर हमला किया गया था और 30 लोगों को मार दिया गया था। इसके बाद जवाबी हिंसा हुई थी और कुल मृतकों की संख्या 100 आंकी गई।

1983 के विधानसभा चुनाव के समर्थन में प्रदर्शन करते प्लेन ट्राइबल कॉउंसिल ऑफ असम (PTCA) के समर्थक।
16 फरवरी को नेल्ली के पास लाहौरीगेट के इलाके में लालुंग जनजाति के पांच बच्चे मृत पाए गए तो स्थानीयों का गुस्सा बढ़ता गया। इस दौरान प्रशासन ने अपनी तरफ से 1,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया और 22 लोगों पर NSA लगाकर उन्हें हिरासत में ले लिया।
इस घटना के एक दिन बाद 17 फरवरी को इसी जगह पर तीन मुस्लिम बच्चों के शव मिले। इसी दिन नेल्ली और आसपास के इलाके में मुस्लिमों को दूसरे चरण के मतदान से रोक दिया गया।
इसके बाद फसाद बढ़ता ही गया और 18 फरवरी की सुबह 8 बजे वो क्रूर समय आ गया।
चैप्टर-3: महज 6 घंटे में 2600 लोगों की निर्मम हत्या
18 फरवरी, सुबह 8 बजे। बंदूकों, भालों, तलवारों से लैस भारी भीड़ के जत्थे ने सबसे पहले बोरबारी गांव को तीन तरफ से घेर लिया। इस गांव के लोगों के पास अब कोपिली नदी की तरफ जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। “जय ऐ अहोम!” और ‘लॉन्ग लिव मदर असम’ का नारा लगाते उपद्रवियों ने लोगों को मारना-काटना शुरू कर दिया।

बारबोरी गांव की कोपिली नदी जिसमें नरसंहार के बाद शवों को फेंका गया था। साभार- PSBT
घटना स्थल पर तब इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार हेमेन्द्र नारायण मौजूद थे। अपनी एक रिपोर्ट में उन्होंने लिखा, ‘सुनियोजित तरीके से दंगाइयों ने डेमलगांव के मुसलमानों के घरों में आग लगाई। जल्द ही डेमलगांव का एक-एक घर जलने लगा। पहले सफेद धुआं, फिर काला गाढ़ा धुआं और फिर घरों से लाल लपटें निकलने लगीं।’
यह नरसंहार आस-पास के 14 गांवों में हुआ। ये गांव तीन छोटी-छोटी नदियों कोपिली, किलिंगी और देमल के डेल्टा पर स्थित थे। यहां की जमीन दलदल युक्त थी और भागने के लिए ग्रामीणों के पास बहुत मौके नहीं थे।
बसंतोरी के अब्दुल सुभान ने BBC को बताया था, ‘दूर से हमने देखा कि सैकड़ों लोग ट्रकों से उतरे, तुरंत अपने मुंह ढंके और उसके बाद गोलीबारी शुरू हो गई। आदिवासी धनुष-बाण लिए हुए थे। सबने इधर-उधर भागना शुरू कर दिया। ज्यादातर लोग नदी की ओर भाग रहे थे।’

साल 2011 में घटना के 28 साल बाद नेल्ली में स्मृति पट्टिका लगाई गई। साभार- PSBT
1983 प्रकाशित इंडिया टुडे की एक स्टोरी में नेल्ली के रहने वाले नूरुद्दीन बताते हैं, ‘हम सभी अपने घर के सामने खड़े दूर भीड़ को इकट्ठा होते देख रहे थे और सोच रहे थे कि हमें क्या करना चाहिए। अचानक हमने देखा कि भीड़ हमारी ओर दौड़ रही है। मैं नीचे गिर गया और आंख खुली तो मैं दौड़ते हुए पैरों के बीच में था। फिर वहां आग और धुआं था। मैं नहीं जानता कि मैं वहां कितनी देर तक पड़ा रहा।’

साल 1935 में बना अपना जन्म प्रमाण पत्र दिखाते नेल्ली के एक स्थानीय। साभार- PSBT
मरने वाले CRPF के कैंपों की तरफ भागे। जो पहुंचे वो बच गए बाकी भगदड़ में औरतें, बच्चे और बूढ़े छूटते गए। मरने वालों में 70 फीसदी महिलाएं और 20 फीसदी बूढ़े थे। लगातार मारकाट होता देख मुस्लिम आबादी ने नदी पार कर दूसरी तरफ भागना शुरू किया। देमल बिल नाम के पानी के एक बड़े सोते के ऊपर एक बांस का पुल था। पार करने वालों ने पुल को इस उम्मीद मे जला दिया कि हमलवार उसी तरफ रहेंगे।
लेकिन उस तरफ दाओ नामक हथियार चलाने वाले लालुंगो जनजातियों ने इन पर दोबारा हमला किया और भागकर जान बचाने निकले लोग भी मौत के मुंह में समा गए।
उस दिन बसंतोरी, बुकदोबा-हाबी और आस-पास के तकरीबन दर्जन भर गांवों के करीब 2,600 लोग मारे गए थे। अकेले बोरबोरी गांव में मृतकों की संख्या क़रीब 550 थी और यह सब कुछ सुबह 8 बजे से 3 बजे के बीच हुआ। मृतकों का यह आंकड़ा सरकारी है और अलग अलग रिपोर्ट्स के हवाले से कम से कम 4000 से 6000 लोगों की मौत की बात कही जाती है।

नरसंहार के बाद पुरुषों, महिलाओं, बच्चों के शव सूखे धान के खेतों के बीच पड़े रह गए।
नेल्ली के आसपास के ग्रामीणों को लगता है कि इस नरसंहार का खामियाजा महिलाओं और बच्चों को भुगतना पड़ा। इंडिया टुडे मैगजीन के 1983 अंक में स्थानीय तहरमुद्दीन ठाकुर कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि हत्यारे पूरी नई पीढ़ी से छुटकारा पाना चाहते थे साथ ही यह भी आश्वस्त करना चाहते थे कि कोई नया जन्म न हो।’

मृतक के परिजनों को 5000 रुपये का मुआवजा मिला। मृतकों की नाम, उम्र आदि डिटेल के साथ एक फॉर्म। साभार- PSBT
अनवर हक उस वक्त गांव में नहीं थे। जब लौटे तो अपनी आंखोंदेखी बताते हैं, ‘मैं गांव आया तो सब तरफ सिर्फ राख थी। मैंने पागलों की तरह अपने रिश्तेदारों को खोजना शुरू कर दिया। अचानक पेड़ के नीचे मुझे मेरी बहन मिली। उसकी गर्दन लुढ़की हुई थी। गला रेत कर काट दिया गया था। मुझे मालूम चला कि मेरे घर के सभी 20 लोग मार दिए गए हैं और अपने परिवार में मैं आखिरी बचा हूं।’
देमाई गांव के अब्दुल हई के अनुसार, ‘हमलावरों में से कई अज्ञात चेहरे थे, लेकिन उनका नेतृत्व आसू के नेता कर रहे थे। हमलवार ‘जय ऐ अहोम” और “डेथ टु द मियास” के नारे लगा रहे थे और यह नारा पहले भी आसू के नेता ही लगाते थे।’

घटना के पांच दिन बाद एक अखबार में छपी खबर बता रही है कि मौत का आंकड़ा 3000 पहुंच चुका है।
चैप्टर-4: सबसे बड़े नरसंहार के बाद की लीपा-पोती
नरसंहार के दो दिन बाद, अधिकारियों ने जीवित बचे लोगों के लिए नेल्ली गांव में कैंप लगाया और बेघर हुए 2,000 लोगों के रहने का इंतजाम किया। हालत ये थी कि कैंप में लोग मुर्गियां ला रहे थे क्योंकि उनके पास और कुछ बचा ही नहीं था।
कैंप लगने के बाद सेना की तीन टुकड़ियां वहां पहुंचीं और जब 21 फरवरी को इंदिरा गांधी स्थिति का जायजा लेने पहुंचीं तो गांव में कहीं भी शव आदि नहीं थे। सब कुछ साफ किया जा चुका था। स्थानीय बताते हैं कि रात गए शवों को पास के कोपिली नदी में फेंका जाता था।

21 फरवरी को नरसंहार में बचे स्थानीयों से मिलने पहुंचीं इंदिरा गांधी।
हिंसा के बाद सरकार ने जुलाई 1983 में जांच आयोग बनाकर IAS केपी तिवारी को अध्यक्ष बना दिया, लेकिन इसकी रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। कुछ साल पहले RTI के जरिए कुछ जानकारियां सामने आईं।
कहा गया कि हमले की जानकारी सबसे नजदीकी जागीरोड पुलिस स्टेशन पर दी गई पर कार्रवाई में देरी हुई। 18 फरवरी को सुबह 10.54 पर नेल्ली में गड़बड़ी की खबर मिली और CRPF की दो प्लाटून भेजी गईं।
इसके बाद मोरीगांव पुलिस स्टेशन में भी सूचना गई और वहां से देरी की गई। इसके बाद कार्रवाई करते हुए राज्य सरकार ने मोरीगांव के पुलिस अधिकारी को 10 दिन के लिए निलंबित कर दिया। उसे 10 दिन बाद बहाल कर दिया गया और फिर किसी अन्य कार्रवाई का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता।

नेल्ली के पास बहने वाली नदी के तट पर पुलिसकर्मी।
जांच आयोग ने कहा कि इस नरसंहार को सांप्रदायिक कहना गलत होगा। बल्कि ये जमीन, भाषा और जातीयता का संघर्ष था। इस नरसंहार का मुख्य उद्देश्य ‘बाहरियों’ को हटा कर अपनी जमीन पर अपना हक स्थापित करना था।
चुनाव के परिणाम आए और कांग्रेस की सरकार बन गई। इस चुनाव में 32 प्रतिशत मतदान हुआ और कांग्रेस ने 108 में से 90 सीटें जीत ली थीं।
घटना के तुरंत बाद 21 फरवरी को इंदिरा गांधी ने इलाके का दौरा किया। उनसे पूछा गया कि इस नरसंहार की जिम्मेदारी किसकी है? उन्होंने जवाब दिया कि केंद्र से चल रही बातचीत को बंद करने के बाद छात्र संगठन इसके दोषी हैं। चुनाव कराने में जल्दबाजी के सवाल पर इंदिरा गांधी ने कहा, ‘आर्टिकल 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू रखने की एक समय सीमा है उसके बाद चुनाव कराना जरूरी था।’
688 FIR और 299 चार्जशीट के बाद इस नर संहार का दोष किसी को भी नहीं दिया गया।

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