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श्री कृष्ण और गोवर्धन पर्वत: एक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

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श्री कृष्ण और गोवर्धन पर्वत: एक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

अमित नेमा भोपाल

श्री कृष्ण के आशीर्वाद का शांति पूंज नाथद्वारा

श्री कृष्ण की भक्ति और उनके शिक्षाओं का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। विशेष रूप से गोवर्धन पर्वत की कथा, जो श्री कृष्ण के महान कार्यों और उनके सामर्थ्य को दर्शाती है, एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस लेख में हम श्री कृष्ण के गोवर्धन पर्वत से संबंधित कार्यों और उसके वैज्ञानिक महत्व पर विस्तृत चर्चा करेंगे।

गोवर्धन पर्वत: श्री कृष्ण की उपासना का केंद्र

श्री कृष्ण के काल में बृज क्षेत्र में इंद्र देवता की पूजा एक महत्वपूर्ण परंपरा थी। इस परंपरा का पालन न करने पर अन्न-जल की कमी और बुरा समय आने की आशंका होती थी। श्री कृष्ण ने इस परंपरा को तोड़कर इंद्र दमन का संकल्प लिया। इस संकल्प से इंद्र देवता नाराज हो गए और अतिवृष्टि कर प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर दी।

श्री कृष्ण ने इस आपदा का समाधान करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठाया। इस कार्य के माध्यम से उन्होंने न केवल बृजवासियों की रक्षा की, बल्कि पर्वत के महत्व को भी उजागर किया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, पर्वतों का महत्व न केवल प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा में है, बल्कि वे पर्यावरण के संरक्षण और संतुलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर्वत विभिन्न हवाओं को रोकते हैं, चक्रवात से बचाते हैं और औषधीय पौधों तथा वन्य जीवों का घर होते हैं, जो पृथ्वी की जीवन-रेखा हैं।

गोवर्धन पर्वत और श्री कृष्ण का सन्देश

श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को गुरु मानकर लोगों को पर्वत की रक्षा और उसकी पूजा का महत्व समझाया। पर्वतों की ऊंचाई और उनके गुणों को समझाते हुए, उन्होंने पर्वत को संरक्षण का प्रतीक बताया। यह संदेश था कि पर्वत पृथ्वी का अभिन्न अंग हैं और उनका संरक्षण जीवन के लिए आवश्यक है।

महाप्रभु जी और वैष्णव संप्रदाय

सोलहवीं शताब्दी में, जब मुगलों का आतंक और धार्मिक भक्ति की भावना कमजोर हो रही थी, तब रायपुर के समीप चंपारण में एक अग्नि कुंड में पाए गए बालक, जिन्हें महाप्रभु जी के नाम से जाना गया, ने वैष्णव संप्रदाय की स्थापना की। उन्होंने गोवर्धन पर्वत पर श्री कृष्ण की शक्ति पुंज की पहचान की और इस शक्ति को संरक्षित करने के लिए देश के विभिन्न राजाओं से आव्हान किया।

मेवाड़ के महाराजा राज सिंह ने इस जिम्मेदारी को स्वीकार किया और गोवर्धन पर्वत की काष्ठ प्रतिमा को नाथद्वारा में स्थापित किया। महाप्रभु जी ने न केवल गोवर्धन पर्वत की पूजा को पुनर्जीवित किया, बल्कि उन्होंने भक्ति मार्ग को भी प्रोत्साहित किया। उन्होंने भारतवर्ष के 84 स्थानों पर श्री कृष्ण के उपदेशों और भक्ति को फैलाने का कार्य किया।

नाथद्वारा और गोवर्धन पर्वत की पूजा

नाथद्वारा में स्थापित श्री कृष्ण की काष्ठ प्रतिमा, जिसे श्रीनाथजी के रूप में पूजा जाता है, भक्ति की शक्ति का प्रतीक है। यह स्थान लोगों को एक सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यहाँ आकर लोग अपनी आस्थाओं और विश्वास को पुनर्जीवित करते हैं, और पीड़ित लोग भी यहां की ऊर्जा से मानसिक और शारीरिक शांति प्राप्त करते हैं।

गोवर्धन पर्वत की पूजा और परिक्रमा, विशेषकर दंडवती परिक्रमा और पैदल परिक्रमा, भक्तों के शरीर और आत्मा के लिए महत्वपूर्ण हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, पैदल यात्रा और दंडवती परिक्रमा से शरीर की ऊर्जा प्रणाली को लाभ होता है। यह यात्रा न केवल शरीर की विकृतियों को दूर करती है बल्कि मानसिक और भावनात्मक संतुलन भी प्रदान करती है।

आधुनिक समय में भक्ति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

आजकल, लोग धार्मिक स्थलों की यात्रा करते समय अक्सर भेड़ चाल में चले जाते हैं और केवल दर्शन की लालसा रखते हैं। लेकिन भक्ति के वैज्ञानिक महत्व को समझकर ही इस यात्रा का पूरा लाभ उठाया जा सकता है। पर्वतों की चढ़ाई और परिक्रमा शरीर के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होती है, और यह यात्रा जीवन के लिए एक प्रकार का बीमा करती है।

निष्कर्ष

श्री कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की कथा हमें केवल धार्मिक आस्था ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण सिखाती है। पर्वतों का संरक्षण, भक्ति की सच्ची भावना, और समर्पण जीवन को संतुलित और स्वस्थ बनाते हैं। हमें इस सन्देश को समझकर, अपनी भक्ति यात्रा को सही दिशा में ले जाना चाहिए और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

अगले लेख में हम वैष्णव संप्रदाय के पतन पर चर्चा करेंगे और देखेंगे कि यह प्रवृत्ति गोवर्धन पर्वत की तरह किस प्रकार हो रही है।

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