BY Dr Mudita Popli
‘’मैं अपने सीने पर गोली खाकर मरना चाहता हूं. मैं आम आदमी की तरह नहीं मरना चाहता, जिसे कोई जान ही न पाए’’.
शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह की यह पंक्तियां उनकी पत्नी ने उस समय कहीं जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पंजाब रेजिमेंट की 26वीं बटालियन के आर्मी मेडिकल कोर के कैप्टन अंशुमान सिंह को मरणोपरांत कीर्ति चक्र से सम्मानित किया।
देश इस समय एक बहुत अजीब बहस के दौर से गुजर रहा है, शहीद अंशुमान सिंह को मरणोपरांत कीर्ति चक्र मिलने के बाद जब महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शहीद की पत्नी और माता को एक साथ कीर्ति चक्र अर्पित किया तो वहां पीछे बैठे राजनाथ सिंह सहित सभी लोगों की भरी आंखें, उनकी मां और पत्नी के दर्द को महसूस कर पा रही थी। उस दर्द को देखकर ऐसा लगा कि भारत का हर नागरिक अंशुमान सिंह के परिवार के दर्द को महसूस कर दिल से द्रवित हो रहा है।
लेकिन अब कुछ ही दिन बीतते ही जिस प्रकार शहीद अंशुमान सिंह को कीर्ति चक्र मिलने के बाद उनके परिवार की लड़ाई सड़कों पर उतर आई है उसने उस शहीद की उस बलिदान को भुलाकर एक अलग ही माहौल बना दिया है। माता-पिता के लिए संतान खोने से बड़ा दुःख क्या होता है, यह हम सब समझ सकते हैं।मगर उनके माता पिता के इंटरव्यू के बाद सेना में निकटतम परिजन (एनओके) की परिभाषा को बदलने को लेकर जो बवाल हो रहा है उससे सहमत हो पाना संभव ही नहीं है। इस पूरे मामले को अगर बहुत गंभीर होकर देखा जाए तो सेना में सैनिक के स्तर पर भर्ती होने वाले अधिकांश युवा लड़के ग्रामीण समाज से आते हैं, उन लड़कों की शादी भी ग्रामीण लड़कियों से होती है। ग्रामीण लड़कियों की परवरिश किन भेदभावों, पिछड़ेपन और रूढ़ियों के बीच होती है कौन नहीं जानता ? ज्यादातर लड़कियों की बहुत कम उम्र में शादी हो जाती है, जल्दी शादी होने से जल्दी बच्चा भी हो जाता है। पति का वैसा सहयोग जैसा सामान्यतः मिलता है, वैसा इन्हें कभी नहीं मिलता। ऊपर से हमारे समाज की पितृसत्तात्मक संरचनाएं और फासिस्ट राजनीति उन्हें एक सामान्य जीवन जीने नहीं देती। ऐसे में कुछ पैसा और सुविधाएं ही हैं जो सैनिकों की पत्नियों /विधवाओं और बच्चों के काम आती हैं। इसी पैसे से हमने कितनी ही लड़कियों को पढ़ते हुए, नौकरी करते हुए, बच्चों को पढ़ाते हुए देखा है।
इस पर से भी उनका हक़ छीन लिया जाएगा फिर उनके पास बचेगा क्या ? कैप्टन अंशुमन सिंह सेना में डॉक्टर थे, सेना में डॉक्टर होना कोई साधरण बात नहीं है, इससे पता चलता है उनका परिवार ठीक-ठाक व सम्पन्न मध्यवर्गीय परिवार होगा। अगर इस देश की शक्ति संस्थाएं सम्पन्न वर्ग (मध्यवर्ग) को ध्यान में रखकर डिज़ाइन की जाएंगी, तो यह वंचित वर्गों के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफ़ी होगी। इसलिए एन ओ के को बदलना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।
अब अगर केवल अंशुमान सिंह के मामले को देखा जाए, तो यह नितांत ही पारिवारिक मसला है, यदि मां बाप का दुख पहाड़ सा है तो पत्नी का दुख भी कम तो नहीं। मां-बाप तो शायद एक दूसरे बेटे के सहारे जीवन फिर भी काट लेंगे, उन मां-बाप का तो सोचिए जिनकी जिंदा बेटी एक मृत प्रायः सा जीवन जी रही है। “बहू भाग गई” ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कहीं भी किसी भी दृष्टि में उचित नहीं ठहराया जा सकता, किन परिस्थितियों में उस बच्ची ने क्या निर्णय लिया इसका विश्लेषण हम अपने घरों में बैठकर नहीं ले सकते और उसे गलत नहीं ठहरा सकते।
यहां केवल एक ही सत्य ध्यान देने योग्य है कि शहीद अंशुमान सिंह के लिए उनके परिवार और इस देश की असली श्रद्धांजलि यही होगी कि हम इस मुद्दे को मीडिया के भुनाने के लिए ना छोड़े, स्वयं एक मीडिया कर्मी होने के बावजूद मेरा मानना है कि देश और देश की अस्मिता सर्वोपरि है और उसके मान को ठेस पहुंचाने का हक किसी को नहीं।
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