रिलेशनशिप- मिर्जापुर जैसी सीरीज मेंटल हेल्थ के लिए खतरा:वॉयलेंट कंटेंट का ब्रेन के इमोशनल सेंटर पर बुरा असर, क्या कहता है साइंस
चर्चित वेब सीरीज मिर्जापुर का तीसरा पार्ट ओटीटी पर रिलीज हो गया है। माफिया डॉन कल्चर के इर्द-गिर्द बुनी गई इस कहानी में शुरू से लेकर अंत तक हिंसा का बोलबाला है।
बाहुबली बनने की सनक में एक आदमी गोली चलाता है, गोली दूसरे आदमी को लगती है, खून का फव्वारा-सा फूट पड़ता है और इसी बीच गोली चलाने वाला वह चरित्र थोड़ी ‘मजबूती’ से उभर जाता है। किरदार मजबूत और कहानी का प्लॉट चौड़ा होता चला जाता है।
पूरी सीरीज में ऐसे दर्जनों सीन हैं, जिसमें गला काटते, आंख फोड़ते, हाथ को गन्ने का रस निकालने वाली मशीन में डालते, चाकू से अंगों के टुकड़े करते दिखाया गया है। तुर्रा यह कि ये सारे काम कहानी का मुख्य नायक ही कर रहा होता है।
जाहिर-सी बात है, ऐसे सीन्स को दर्शक वर्ग और उनकी उम्मीदों को ध्यान में रखकर ही बनाया गया होगा। मिर्जापुर सीरीज के तीनों पार्ट काफी लोकप्रिय भी रहे हैं। हिंसा से भरपूर ड्रामा लोगों को अपनी ओर खींच भी रहा है।
लेकिन इन सबके बीच हमारे चेतन-अवचेतन मन के साथ क्या हो रहा होता है। क्या वेब सीरीज का बाहुबली कल्चर, खून के फव्वारे और कटते अंग हमारे मन और सोशल लाइफ को भी प्रभावित करते हैं?
आज ‘रिलेशनशिप’ कॉलम में ऑन स्क्रीन हिंसा के रियल लाइफ इफेक्ट की बात करेंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि किस तरह फिल्मी दुनिया की सच्चाई धीरे-धीरे हमारी असल जिंदगी में दिखने लगती है।
कल्टीवेशन थ्योरीः धीरे-धीरे पर्दे की सच्चाई बनती हमारी हकीकत
फिल्म, टीवी सीरियल्स या ओटीटी प्रोग्राम में हिंसा दिखाना कितना सही या गलत है, ये बातें तर्क का विषय हो सकती हैं। अलग-अलग वैचारिक, सामाजिक और भौगोलिक पृष्ठभूमि में इसके जवाब भी अलग-अलग हो सकते हैं।
लेकिन मीडिया इफेक्ट की कल्टीवेशन थ्योरी साइंटिफिक रिसर्च के आधार पर ऑन स्क्रीन हिंसा के प्रभावों की बात करती है। इसे समझना माइंडफुल कंटेंट कंजप्शन में मददगार साबित हो सकता है।
जॉर्ज गेर्बनर अमेरिका के शुरुआती कम्युनिकेशन थ्योरिस्ट में से थे। 1960-70 के दशक में टेलीविजन अमेरिका समेत दुनिया भर के घरों में अपनी जगह बना रहा था। इसी के साथ यह चिंता भी बढ़ती जा रही थी कि टीवी पर दिखाए जाने वाले कंटेंट का लोगों, खासतौर से बच्चों के मन पर कैसा असर होगा।
अपनी रिसर्च में जॉर्ज गेर्बनर ने पाया कि टीवी या किसी भी माध्यम से कंटेंट कंज्यूम करना मानसिक खेती के जैसा होता है। जिसका फसलरूपी परिणाम जिंदगी और सोसाइटी में देखने को मिलता है।
हम जैसी खेती करते हैं, फसल भी वैसी ही होती है। इसी तरह हम जिस तरह के कंटेंट को देखते हैं, धीरे-धीरे हमारा मन भी वैसा ही बनता चला जाता है। गेर्बनर ने इसे ‘कल्टीवेशन थ्योरी’ यानी खेती का सिद्धांत नाम दिया।
तो क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म हमारे मन में हिंसा की फसल उगा रहे हैं
एक पुरानी कहावत है- जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि। यानी कवि की कल्पना वहां तक पहुंच सकती है, जहां सूर्य की रोशनी भी नहीं पहुंचती। अंग्रेजी में पर्सी बिशी शेली, जॉन कीट्स और विलियम वर्ड्सवर्थ तो हिंदी में पंत, दिनकर और निराला जैसे कवियों ने समाज को नई दिशा दी।
मिर्जापुर सीरीज में एक सीन है, जिसमें एक कवि दर्शकों के बीच भरे मंच से गालियां बक रहा होता है और बदले में दर्शक उस पर जूते चलाते हैं। पूरा माहौल गालियों से गुंजायमान होता है।
इस स्थिति में ‘सिनेमा समाज का आईना है’ वाली बात पूरी तरह गलत साबित होती है। यहां फिल्मी दुनिया समाज की हकीकत से मुंह मोड़ अपनी एक अलग कहानी बुनती है, जो खुद में समाज की स्याह हकीकत से भी ज्यादा कालिमा समेटे हुए है।
जॉर्ज गेर्बनर की कल्टीवेशन थ्योरी के आधार पर समझें तो इस सीन को देखने के बाद कोई शख्स कवि सम्मेलन में जाए तो उसका मन इस संभावना से इनकार नहीं कर पाएगा कि कवि सम्मेलन में कवि गालियां बक सकता है और बदले में दर्शक जूते चला सकते हैं।
कंटेंट कल्टीवेशन की वजह से उसके मन का एक हिस्सा इस ‘विद्रूप सिनेमाई सच्चाई’ को स्वीकार करने लगता है कि कवि सम्मेलन में गालियां और जूते चलना नॉर्मल है।
वह मन-ही-मन ऐसी हिंसक घटनाओं को नॉर्मल मानने लगता है। आसान भाषा में कहें तो उसके मन में हिंसा की फसल लहलहा रही होती है। जिसका बीज उस कंटेंट को देखने के साथ ही पड़ गया था।
कंटेंट को बदलने से बदल सकता है प्रभाव
नीतिशतक में भृतहरि का एक श्लोक है-
साहित्य-संगीत कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।
इसका मतलब है कि साहित्य, संगीत और कला से विहीन इंसान नाखून और सींग के बिना पशु के समान है। लेकिन क्या हो, जब लोगों को इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाला साहित्य, संगीत, सिनेमा सहित पूरा कला जगह खुद नाखून और सींग के साथ गोली, बम, बारूद को भी महिमामंडित करने लग जाए।
जिस आर्ट फील्ड को समाज का अगुआ और पथ प्रदर्शक समझा जाता था, आज वह खुद हिंसा की चपेट में है। इस मामले में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की स्थिति खासतौर से चिंताजनक है।
हालांकि इसका उपाय भी बहुत मुश्किल नहीं है। जॉर्ज गेर्बनर ने भी यही कहा है कि जैसा कंटेंट देखेंगे, सोच वैसी होगी। ऐसे में किसी कंटेंट के हिंसा और फूहड़ता को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवीय संवेदना, तन-मन और जीवन को लेकर बेहतर समझ से बदल दें तो नतीजा भी बदल जाएगा।
अगर कंटेंट मन में लोक कल्याण और बेहतर जीवनशैली का बीज डाले तो इसका सीधा सकारात्मक असर तन, मन, जीवन और रिश्तों पर पड़ेगा। ऐसे में जरूरी है कि सिनेमा या ओटीटी कंटेंट दर्शकों के मन में सही बीज डालें, ताकि कंटेंट कल्टीवेशन के माध्यम से उसका परिणाम भी सुखद और कल्याणकारी हो।
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