“संकीर्णता के दायरे में सिमटते रिश्ते”
✍🏻भारतीय संस्कृति जिसकी कभी पहचान होते थे ,यहाँ के पारिवारिक रिश्ते जो आज अपनी पहचान कहीं खो से गए है।आज के इस परिवर्तनशील युग में जहाँ जीवन बहुत कुछ बदल सा गया है।वहीं हमने अपने रहन-सहन और जीवन शैली में इस क़दर बदलाव कर दिया है कि हम तकनीकी रूप से तो आगे बढ़ गये है लेकिन बदले में हमने खोया है अपने सांस्कृतिक मापदंडों को,अपने पारिवारिक मूल्यों को और परिवार नाम की एक महत्वपूर्ण संस्था को ,जो कभी हमारी पहचान थी।यहीं कारण है कि आज भविष्य की पीढ़ियाँ अवसाद से ग्रसित पाई जाती है।आये दिन घटित होने वाली समस्याएँ जैसे-जीवन मूल्यों की कमी,सहनशीलता की कमी इसी का परिणाम है।टूटते परिवार व आदर्श जैसे आज आम बात हो गयी है।
एक समय वह भी था जब हमारे यहाँ परिवारों की महत्ता सर्वोपरि थीं।बड़ा परिवार सम्पन्नता का सूचक माना जाता था।संयुक्त परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में भाईचारा और स्नेह का विशिष्ट माहौल रहता था। परिवार का बुज़ुर्ग सभी के लिये आदरणीय हुआ करता था।उस समय रिश्तों को बोझ नहीं समझा जाता था बल्कि रिश्तों की ज़रूरत समझीं जाती थी।रिश्तों के बिना जीवन असंभव सा प्रतीत होता था।प्रारंभ से ही संयुक्त परिवार की परंपरा पर ज़ोर दिया जाता था।कुछ हद तक ये परम्पराएँ हमारी सुविधा के लिए ही बनाई गयी थी।दादी दादा ,नाना नानी,चाचा-चाची,ताऊ-ताई से पूरित परिवार में हमारे बच्चें कब बड़े हो जाते थे पता ही नहीं चलता था।भारतीय संस्कार और संस्कृति का ज्ञान वो अपने से बुज़ुर्गों से प्राप्त कर लेते थे।हारी-बीमारी में अपनो का साथ सदैव रहता था।संयुक्त परिवार में रहने के कारण बच्चों में कई अच्छी आदतों का विकास स्वतः ही हो जाया करता था।
आपाधापी के दौर में जीवन से जूझता व्यक्ति रिश्तों को भूल सा गया है।
काम काज प्रधान संस्कृति के परिणाम स्वरूप माता पिता दोनो ही घर से बाहर रहते है।बच्चों में अच्छी आदतों के विकास के लिए माता पिता बाहरी शिक्षकों का सहारा ले रहे है।आज के बच्चों को अपने चाचा चाची,मामा,ताया के बच्चे अपने भाई बहन नहीं लगते।स्थिति बेहद ही हास्यास्पद सी हो गयी है ,सहनशीलता जैसे गुणों के अभाव के कारण घर के बुज़ुर्गों को वृद्धाआश्रम में रहने को मजबूर होना पड़ता है।बच्चें एकाकी प्रकृति के होने लगे है।बच्चों में अपनी संस्कृति और परम्पराओं के प्रति उदासीनता देखने को मिल रही है।जिसका परिणाम यह है कि बच्चों में अपने माता-पिता से भी लगाव नहीं रहा।भावी पीढ़ी भावना शून्य होती जा रही है।बड़ें-बुज़ुर्गों के सानिध्य के अभाव में बच्चों में संस्कारो का अभाव बढ़ता जा रहा है।एकल परिवार में एक एक बच्चें होने के कारण हर समस्या का सामना करने के लिये उन्हें हर परिस्थितियों में जूझना पड़ता है।जिसके परिणामस्वरूप मानसिकअवसाद जैसी बीमारियाँ बढ़ती जा रही है।अंत में माता पिता को अपने बच्चों के लिये मनोचिकित्सक का सहारा लेना पढ़ रहा है।जहाँ पहले ये कार्य घर के बुज़ुर्ग अपने अनुभव मात्र से ही कर देते थे।वही अब इन समस्याओं के लिये सलाहकारों का सहारा लेना पढ़ रहा है।स्थिति इतनी गंभीर हो गयी है कि चाचा चाची ,ताऊ ताई जैसे रिश्ते अंकल आंटी जैसे औपचारिक रिश्तों में तब्दील हो गये है। रिश्तों के दायरे संकीर्ण होते जा रहे है।समय रहते हम अगर सावधान नहीं हुए तो भारतीय रिश्तों की ये परम्पराएँ कहीं विलुप्त हो जायेगी।वो दिन दूर नहीं जब हम भी आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने संस्कारो को भूल कर मानसिक अवसादों की समस्याओं से जूझते रह जायेंगे।आज ज़रूरत है औपचारिकता को मिटाकर सभी को साथ लेकर चलने की,विकास के साथ साथ परिवार को सुखी और सम्पन्न बनाने की।
✍🏻डॉ.अजिता शर्मा.
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