उस एक प्रश्न का मर्म
इस उम्र में मुझको ये बसीरत क्यूं दी
फिर साफ़ कहने की आदत क्यूं दी
ऐसे माहौल में पैदा करना था अगर
या रब मुझे अहसास की दौलत क्यूं दी
शीन क़ाफ़ निज़ाम की यह पंक्तियां हमेशा मुझे प्रिय रही हैं। एक पत्रकार के रूप में कई बार दिमाग में बात आती है कि लोग क्यों सोच लेते हैं कि पत्रकार एहसास हीन होते हैं।ऐसा नहीं है, खबर कहना, खबर बताना पत्रकार का केवल शगल ही नहीं, उसकी रोजी रोटी के साथ उसकी सच के अन्वेषण के प्रति एक ललक है। मीडिया पर इल्जाम बार-बार लगते रहे हैं कि लोगों के दुखों को भुनाने और उनकी दुखती रग पर रोटियां सेकने का काम मीडिया करती है। नामी पत्रकार संजय सिन्हा के जीवन का एक वृतांत पढ़ रही थी जिस में उन्होंने लिखा है कि जब वे अमेरिका में रह रहे थे। उन्होंने बीबीसी में नौकरी के लिए निकली वैकेंसी पर अप्लाई किया था। बीबीसी वालों ने इसके लिए अमेरिका के डेनवर शहर में ही लिखित परीक्षा का आयोजन कराया था। लिखित परीक्षा में वे अच्छे नंबरों से पास हुए। फिर फोन पर उनका इंटरव्यू हुआ। उन्होंने दस साल से अधिक समय तक ‘जनसत्ता’ अखबार में काम किया था। फिर वे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले गए। नौकरी में रहते हुए ही वे पत्नी के साथ अमेरिका चले गए,वहां जब बीबीसी में नौकरी के लिए उन्होंने वैकेंसी दिखी, तो अप्लाई कर दिया था। लेकिन उन्हें बीबीसी में नौकरी नहीं मिली।
वे स्वयं बताते हैं कि परीक्षा में उन्होंने सभी प्रश्नों के उत्तर सही दिए थे। लेकिन इंटरव्यू में उन्होंने एक भारी भूल की और उनकी पत्नी जो स्वयं एक पत्रकार है उन्होंने इंटरव्यू के बाद उन्हें टोका और कहा संजय तुम पत्रकार हो और तुमने ऐसा जवाब दिया इतना गैर जिम्मेदाराना जवाब, लेकिन उन्हें लगता था कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा। उनसे इंटरव्यू में प्रश्न किया गया था कि “संजय जी, मान लीजिए रात की शिफ्ट में आप ही न्यूज़ विभाग के इंचार्ज हैं और अचानक खबर आती है कि भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया है, तो खबर के प्रसारण पर आपका क्या फैसला होगा? उन्होंने कहा कि यह भी कोई प्रश्न है ,मैं भारत में टीवी न्यूज़ चैनल में कई बार ऐसा होते देख चुका हूं। खबर मिली, फटाक से उसे प्रसारित कर दो। खबर गलत साबित हो जाए तो चुप्पी साध लो या फिर माफी मांग लो। और जो सही साबित हो जाए तो अपनी पीठ ठोको, कहो “सबसे पहले हम”, “सबसे आगे हम”, “नंबर वन हम”, “सर्वश्रेष्ठ हम”। और इसी एक प्रश्न ने उन्हें बीबीसी का हिस्सा बनने से रोक दिया। बस शायद इसी एक प्रश्न से भारत में पत्रकारिता कटघरे में आ जाती है। सबसे पहले और जल्दी दिखाने की जिद में जिस दिन पत्रकार सही और गलत का भेद करना भूल जाता है वहीं पत्रकारिता पर एक यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है। आज से बहुत वर्ष पूर्व एक डॉक्टर दंपति की पुत्री की मृत्यु सुर्खियों में रही 14 साल की उस बच्ची की मृत्यु उस समय ही नहीं आज भी अनेक अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गई है लेकिन वहां भी सिर्फ जल्दी दिखाने की जिद में पत्रकार या मीडिया अपने कर्तव्य को भूल गया।
एक पत्रकार होने के नाते मैं कभी नहीं कहती कि पत्रकार को एहसास नहीं होता या उसमें भावनाएं नहीं होती परंतु जब एक पत्रकार किसी छोटी बच्ची की जिंदगी की चीर फाड़ करने पर उतर जाए तो प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं और शायद इस एक चीज पर यदि भारतीय पत्रकार अंकुश लगा ले या खबर की विश्वसनीयता को जांचे बगैर प्रथम आने की इस भीड़ से खुद को अलग कर ले तो सही मायने में मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में स्थापित हो सकेगा।
आखिर पत्रकार हूं और यह मानती हूं
मेरे शब्द कलम-स्याही से नहीं,
आत्मा की आग-पानी से लिखे जाते हैं।
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