गुल भी, घुंचा भी, बुलबुल भी गुलज़ार भी…
साथ उसके मेरा एक दिले बेज़ार भी..
फ़िक्र इस दुनिया की है, ख़ौफ़ उस जहां का भी है..
एक जहां दर्द का इस पार भी उस पार भी। हिज्र का शब है..
नाम नहीं ज़ुलमत का कहीं..
मेरी महफ़ील को सजाया रेशमी ज़ुल्फ़ों से कई बार भी..
गुल फ़क़त गुल नहीं खार महज़ ख़ार नहीं…
ख़ार से जुड़े हैं गुल, गुल से जुदा ख़ार भी…..
हराम से बेगाना हुए, कलीसा से बेज़ार हुए..
हम को किसी से क्या मतलब दिल में बसा दादरे यार भी…
दिल को जलवागाहे जनाना बनाया होता.
हमने काबा को सनम खाना बनाया होता।
मेरी मिट्टी से जो पैमाना बनाया गर तूने।
शेख को भी आशिके मैखाना बनाया होता।
देकर तालीम वफ़ा दिल को अपनी आवाज़।
काबिले कुचाए जाने जाना ना बनाया होता।
तुम तो रौशन हो अंबरी शम्मा बनकर।
काश हर दिल को भी परवाना बनाया होता.
तुमने दीवानों को दीवाना बनाया तो क्या।
होशवालों को भी अम्बरी दीवाना बनाया होता
हुस्ने जमाल का ना दिले बेकरार का.
अहले चमन ये दौर है बर्क ओ शररार का।
गम का रिश्ता है जो ख़ुशी के साथ-साथ।
रिश्ता वही है गुल का गुलिस्ताँ में ख़ार का।
वो भी गुजर गया जो हमारा था नोहागर।
बुझ गया चिराग भी मेरे मजार का।
सुबह के साथ का भी करूंगी तज़केरा।
क़िस्सा तो ख़तम कर लूं शबे इंतज़ार का।
दर्द है ख़ुशी के बाद, ख़ुशी के बाद दर्द है।
पैग़ाम यही है गर्दिशे लैल ओ निहार का।
दिल को जो छू ना ले वो ग्लू क्या है.
शफ़क़ पे रंग ना भर दे तो फिर लहू क्या है।
समझ सको तो समझ लो मेरी खामोशी को।
ज़ुबान से कोन कहे दिल की आरज़ू क्या है।
अगर फैली नहीं ये दिल की गरम आहें।
धुआँ धुआँ सा फैला चार सु क्या है।
तुम्हारे रुखसार की शौक़ीन गर नहीं ये तो।
गुलों की नाज़ुकी हुस्ने रंग ओ बू क्या है।
अम्बारी के दिल के नालों का असर नहीं तो क्या।
ये जो आप कह दें आकार हैं जो रूबरू क्या है
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